मोदी ‘राणा’ के लिए एबीपी का ‘नक़लगढ़’ और ओम थानवी की नसीहत !

एक क़िस्सा है कि चित्तौड़ का राणा बूँदी के किले पर कब्जा करना चाहता था पर बार-बार नाकामी हाथ लगती थी। एक बार पिनक में राणा ने क़सम खा ली कि जब तक बूँदी का किला ज़मींदोज़ नहीं हो जाता तब तक पानी भी नहीं पिऊँगा। यह प्रतिज्ञा सुनकर सब शुभचिंतक परेशान। समझाया कि, ‘राणा जी, यह तो असंभव है !’ राणा ने जवाब दिया, ‘ मेरी मौत तो असंभव नहीं है। मैं मृत्यु का वरण करूँगा।’

ऐसे में एक मंत्री ने सुझाया कि रात भर में बूँदी के क़िले जैसा ही  मिट्टी का एक नक़ली क़िला बनाया जाए। सुबह राणा जी उसे अपने ही हाथों से नेस्तनाबूद करें। इससे उनकी प्रतिज्ञा भी पूरी होगी और जान भी बच जाएगी।

बहरहाल, राणा की प्रतिज्ञा कैसे पूरी हुई वह क़िस्सा फिर कभी, लेकिन इन दिनों मीडिया ख़ासतौर पर न्यूज़ चैनलों का हाल देखकर बार-बार उस ‘नकलगढ़’ की याद आ रही है। संपादकगण किसी तरह अपने ‘राणा’ यानी मोदी के हाथो पाकिस्तान को तुरत-फ़ुरत बर्बाद होते देखना चाहते हैं। उन्हें युद्ध, ऊपर से परमाणु हथियारों के इस्तेमाल वाला युद्ध बच्चों का खेल लग रहा है। ऐसा लगता है कि अगले ब्रेक में एंकर ख़ुद मिसाइल बनकर पाकिस्तान पर गिर जाएगा।

अफ़सोस यह कि इस खेल में एबीपी भी पूरी शिद्दत से शामिल हो गया है जो कुछ दिन पहले तक थोड़ा होशमंद माना जाता था। हाल ही में उसने पीएम के वॉररूम में जाने की ख़बर को स्क्रीन पर जिस तरह के ग्राफ़िक्स बनाकर पेश किया, वह बताता है कि वह युद्ध को लेकर कितना ‘आशान्वित’ है। बाक़ायदा रेत के मॉडल के ज़रिये पाकिस्तान को नेस्तोनाबूद करने का तरीक़ा समझाया जा रहा था।

एबीपी चैनल के मैनेजिंग एडिटर मिलिंद खांडेकर ने इस ख़बर पर अपनी पीठ ठोंकते हुए फ़ेसबुक पर जानकारी दी, लेकिन वरिष्ठ पत्रकार और जनसत्ता के पूर्व संपादक ओम थानवी ने पलटकर गंभीर टिप्पणी की। पढ़िये पहले कि मिलिंद ने क्या बताया—

अब ज़रा देखिये कि ओम थानवी ने इस पर क्या लिखा है—

 

यह दो संपादकों की दृष्टि है। एक पूर्व संपादक वर्तमान संपादक को चेता रहा है कि पत्रकारिता के नाम पर खिलावड़ मत करो। न युद्ध करना रेत का टीला बनाना है और न सामरिक योजनाओं की रिपोर्टिंग बच्चों का खेल। लेकिन असर तो होने से रहा ! टीवी का लक्ष्य फौरी सनसनी पैदा करके टीआरपी लूटना है जो एबीपी कर गया। मोदी जी को विजयी बनाने के लिए नकलगढ़ का क़िस्सा गढ़ गया। अब क़िस्सों में सच क्या या झूठ क्या ! पत्रकारिता का ‘वर्तमान’ यही है, थानवी जी ‘भूत’ बनकर भटकते रहें !

 

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