‘मालिक’ प्रणव रॉय 25 % ‘मज़दूरों’ की बलि लेकर बचाएँगे एनडीटीवी !

 पंकज श्रीवास्तव

वह अक्टूबर की कोई दोपहर थी। प्रेस क्लब में एनडीटीवी से जुड़े दो पत्रकार अपने मित्रों के साथ बैठे थे। कुछ दिन पहले ही इंडियन एक्सप्रेस की इस ख़बर का खंडन हुआ था कि एनडीटीवी को स्पाइसजेट वाले अजय सिंह ख़रीद रहे हैं। हमने उन्हें संकट टलने बधाई दी लेकिन जवाब में जोश नहीं था। एक ने ठंडी साँस भरते हुए कहा- ‘ देखिए कब तक। दिल्ली में चूल्हा जलाए रखना आसान नहीं होगा !’

जवाब से माथा ठनका था। एक बहुत पुराने परिचित और एनडीटीवी कर्मी को फ़ोन किया तो उनकी आवाज़ में उदासी थी। उन्होंने बताया कि ख़बर का खंडन तो हो गया है लेकिन हर बार की तरह इस बार मालिकों की ओर से कोई टॉउन हॉल (आम सभा) नहीं हुआ, ख़बर को ग़लत बताने के लिए। ख़तरा बरक़रार है।

और दिसंबर नहीं बीता कि ख़बर आ गई। एनडीटीवी 25 फ़ीसदी कर्मचारियों की छँटनी करने जा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक क़रीब 250 लोगों की छँटनी होगी।

जब एनडीटीवी के मालिक प्रणव रॉय के घर सीबीआई का छापा पड़ा था तो इसे पूरे मीडिया पर छापा बताने वाले पत्रकारों की कमी नहीं थी। प्रेस क्लब में ज़बरदस्त जमावड़ा हुआ था। एनडीटीवी का तो हर मुलाज़िम डॉ.रॉय के साथ कंधे से कंधा मिलाकर वहाँ खड़ा था, लेकिन अब डॉ.राय ने अपना कंधा धीरे से अलग कर लिया है। उनकी प्राथमिकता कंपनी चलाना है, किसी का चूल्हा बुझने से बचाना नहीं। एनडीटीवी की एडीटोरियल डायरेक्टर सोनिया सिंह इस ख़बर को सही बता रही हैं। उनके मुताबिक सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए हैं और सच्चाई का झंडा बुलंद करने की क़ीमत है।

 

बहरहाल, मौक़ा पाकर सोनिया सिंह की पूर्व सहयोगी और कभी एनडीटीवी का चेहरा रहीं पत्रकार बरखा दत्त तंज़ कस रही हैं।

 

याद कीजिए, अक्टूबर में जब प्रणव रॉय के घर छापा पड़ा था तो भी सोनिया सिंह ने इसे सच की लड़ाई का नतीजा बताया था।

मान लेते हैं कि सोनिया सिंह सही बोल रही हैं। एनडीटीवी को सच का साथ देने की वजह से सज़ा दी जा रही है। पर क्या सच की लड़ाई सिर्फ़ एनडीटीवी के कुछ टॉप बॉस लड़ रहे थे ? क्या इसमें उन पत्रकारों या अन्य कर्मचारियों का कोई योगदान नहीं था जिन्हें निकाला जा रहा है ? फिर उन्हें इस तरह अकेला छोड़ने का क्या मतलब ? अगर यह साझा लड़ाई थी, तो तकलीफ़ के दिन भी तो साझेदारी से काटे जा सकते हैं।

क्या कर सकते हैं..?

जायज़ सवाल है। लेकिन ग़ौर से देखिए तो एनडीटीवी को एक ऐतिहासिक मौक़ा मिला है जिसका इस्तेमाल करके वह मिसाल बन सकता है। एनडीटीवी टीआरपी की रेस में चाहे पीछे हो, लेकिन साख उसकी बहुत ज़्यादा है। सरकार की नाराज़गी की वजह भी यही है। एनडीटीवी चाहे तो छँटनी की जगह ये दो क़दम उठा सकता है—

  1. 25 फ़ीसदी कर्मचारियों को नौकरी से निकालने के बजाय सौ फ़ीसदी कर्मचारियों के वेतन में यथोचित कटौती कर दे। एनडीटीवी ने तब अपने पत्रकारों को लाखों का पैकेज दिया था, जब बाक़ी संस्थानों में यह सपना था। आज वे लोग एनडीटीवी का साथ नहीं देंगे, यह मानने की कोई वजह नहीं बशर्ते इरादे पवित्र हों।
  2. पैसे की कमी फिर भी पूरी न हो सके तो जनता से सहयोग माँगने का शहर-शहर अभियान चलाया जाए। जनता सच के लिए लड़ने वालों का हमेशा साथ देती है, कम से कम जिनकी व्यापक पहचान होती है।

यह बिन माँगे सलाह इसलिए कि सोनिया सिंह ने सच की लड़ाई का हवाला दिया है। सच की लड़ाई आसान तो होती नहीं।  आपकी लंबी कार और बैंक बैलेंस बना रहे और आप सच की लड़ाई भी लड़ती रहें, तो यह संभव नहीं है। आज़ादी के बाद पहली बार (इमरजेंसी में भी चुप्पी साधी गई थी, चारण नहीं हुए थे) मीडिया का इतना बुरा हाल है और सच की लड़ाई क़ुर्बानी माँगती ही  है। सोनिया सिंह को समझना चाहिए कि पत्रकारों को बचाना, टाइगर बचाने की पत्रकारिता से कम महत्वपूर्ण नहीं है।


वैसे, अगर एनडीटीवी प्रबंधन ऐसा कुछ न करे तो छँटनी किए जाने वाले कर्मचारियों से अपील है कि अपने हक़ के लिए लड़ें ज़रूर। सड़क पर भी और अदालत में भी। पहले भी कहा था कि डॉ.प्रणव रॉय मालिक हैं, और आप मज़दूर। उनकी और आपकी लड़ाई एक नहीं है। दिक़्कत है कि किस्तों पर कटते जीवन ने आपसे मज़दूर होने का आपका स्वाभिमान छीन लिया है। अगर आप ख़ुद नहीं लड़ेंगे तो आपकी लड़ाई कोई नहीं लड़ेगा। मुद्दई सुस्त हो तो गवाह चुस्त नहीं होता। वैसे भी नौकरी तो जा रही है जिसके जाने के डर से सब चुप्पी साधे रहते हैं। खोने के लिए बचा क्या है? दूसरे चैनलों के तमाम दोस्त यार या बॉस टाइप के लोगों से कोई उम्मीद न करना, वे अपनी बचाने में जुटे हैं। आपकी मदद नहीं कर पाएँगे। कॉस्ट कटिंग उनके बने रहने की शर्त है।अब आप उन करोड़ो लोगों में शामिल हैं जिनकी ज़िंदगी रिफ़ॉर्म और ग्लोबलाइज़ेशन की चमक बढ़ाने में ग़ुल हो जाएगी।

आपकी पूर्व बॉस बरखा दत्त ने भी पूछा है कि प्रेस क्लब कब जाओगे.. ? है कोई जवाब ?

स्वतंत्र भारत के निर्माताओं ने जिस आज़ाद पत्रकारिता की कल्पना की थी, उसका आधार पत्रकारों की ‘सेवा सुरक्षा’ थी। इसीलिए श्रमजीवी पत्रकार एक्ट बना था ताकि तब मीडिया में पूँजी लगाने वाले जूट मिल मालिकों के स्वार्थ और आतंक से आज़ाद होकर बेख़ौफ़ पत्रकारिता हो सके। एनडीटीवी यूँ संवैधानिक संकल्पों की बहुत बात करता है, लेकिन अफ़सोस इसके मालिक भी पत्रकारों की नौकरी लेने का अधिकार अपने हाथ रखना चाहते हैं। जबकि ज़रूरत, श्रमजीवी पत्रकार एक्ट के दायरे में टीवी और वेब पत्रकारों को शामिल करने की लड़ाई लड़ना है।

यह तब लिखा था जब मालिक डॉ. प्रणय रॉय लिए एनडीटीवी के पत्रकार प्रेस क्लब में जुटे थे….आज फिर पढ़ने का वक़्त आ गया है– 


डॉ.प्रणय रॉय ! पत्रकार तो आपकी लड़ाई में साथ हैं, और आप ?


(लेखक 20 साल से पत्रकारिता में हैं। दो साल पहले आईबीएन7 में एसोसिएट एडिटर थे । अंबानी के टेकओवर के बाद उन्हें बरख़ास्त किया गया।  क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। )



 

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