नई नारायण कथा: जब राजा ने शुरू की पूरी प्रजा के लिए कारावास निर्माण की कल्‍याणकारी योजना

Courtesy Mumbai Mirror

हिंदू संस्‍कृति और धार्मिक जीवन-जगत का एक अभिन्‍न अंग है सत्‍यनारायण कथा। हम सब ने बचपन में सुनी है। अब भी सुनते हैं। उसमें कथाएं चाहे कितनी ही काल्‍पनिक व विविध हों, लेकिन उनमें सत्‍य का एक तत्‍व अवश्‍य होता है। इस अर्थ में कि वे सदियों के दौरान समाज के आज़माये हुए नैतिक नुस्‍खे हैं। समय बदला है तो कथाएं भी बदली हैं। उनमें सत्‍य हो या नहीं, इससे बहुत फ़र्क नहीं पड़ता। ज़रूरी यह है कि कथा मुकम्‍मल होनी चाहिए, चाहे नैतिक सबक दे या नहीं। फिर उन्‍हें आज़माने की किसमें हिम्‍मत जब कथा खुद राजा ही बांच रहा हो। ऐसी कथाओं को ही नई नारायण कथा कहा जाता है। इसमें राजा-प्रजा के रिश्‍ते समान हैं, केवल सत्‍य के संधान के तरीके बदल गए हैं। थोड़ा आधुनिक तरीके हैं। हमारा राजा वैज्ञानिक है। हमारी प्रजा लैब-रैट। यानी नई नारायण कथाओं में राजा खुद प्रजा पर ही प्रयोग करता है। प्रजा ऐसे प्रयोग खुद पर करवा के कृतकृत्‍य होती है। ऐसे प्रयोगों पर अजीत यादव गहरी नज़र रखते हैं। मीडियाविजिल पर सावन के सोमवार को आपने इस कथा का पहला पाठ सुना था। अब सावन जा चुका है और भादों बरस रहा है। प्रस्‍तुत है नई नारायण कथा का अगला खंड – संपादक


राजा के परमादेश पर विशेष सभा आहूत कर दी गई थी। राज्यादेश का पालन हुआ और सभी मंत्री, संतरी, गुरूओं और दरबारी विद्वानों का जमावड़ा हुआ। सभा में चर्चा का विषय था कि ऐसा क्या हुआ है… सब तो ठीक चल रहा था! पशु-पक्षी और यहां तक कि नागरिक भी तो राजा के आवंटित विधान और आदेशों का पालन कर ही रहे थे। सदैव की भांति इस बार भी किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था।

तभी दरबानों ने राजा के आने का उद्घोष कर दिया। सदैव की भांति सभी दरबारी एक पैर खड़े हो गए। कई दरबारी तो सिर के बल खड़े हो गए। सभा की कार्यवाही शुरू करने का आदेश हुआ। राजा के सबसे विश्वस्त दुखी और चिंतित मुद्रा में धरती में गड़े जा रहे थे। राजा की इस विद्वत परिषद में सबसे खास उनके वित्त मंत्री ने एक पत्र पढ़ कर राज्य पर वर्तमान संकट की आदेशनुमा जानकारी दी। मंत्रिवर ने कहा कि हमारे राज्य में कुछ तत्व हमारे चक्रवर्ती, यशस्वी महाराज के विरूद्ध विद्रोह करने की योजना बना रहे हैं। ये विद्रोही भिन्न प्रकार के विद्यार्थी और उनके शिक्षक, वनवासियों, मजदूरों और सुविधा नागरिकों को हमारे राजा के विरूद्ध विद्रोह करने के लिए भड़का रहे हैं। राज्य पर संकट की घड़ी है। गुप्तचरों ने सूचना दी कि वे हमारे यशस्वी चक्रवर्ती व राजा की हत्या की साजिश रच रहे हैं।

भरी सभा में रहस्यमय शांति छा गई किंतु शीघ्र ही कौतूहल ने उसकी जगह ले ली। कुछ दरबारियों को क्रोध आया और बाकी सभी को मूर्छा। हे ईश्वर! कौन अधम, नीच, पापी ये दुस्साहस कर रहा है? म्यानों से तलवारों के निकलने से धातुओं के टकराने की ध्वनि साफ सुनी जा सकती थी। वातावरण में पहले तनाव, फिर उतनी ही तेज़ी से अफवाह फैलने लगी। सभी की अपनी अपनी समझ, निष्ठा और स्वादानुसार चर्चा होने लगी। राजर्षि ने सभी से समान मात्रा में विचलित, दुखी और व्यग्र होने का आदेश मिश्रित आह्वान किया। सभी दरबारियों ने हर बार की तरह ऐसा ही किया। समान मात्रा और समवेत स्वर में सब कुछ। राजा ने भरी सभा में घोषणा कि मैं राज्य के सभी निवासियों के लिए कितने कल्याणकारी काम कर रहा हूँ और वहीं कुछ नगरवासी इतनी निम्न कोटि के षडयंत्र कर रहे हैं। अगर मैं यानि आपका राजा नहीं रहा तो मेरे राज्य के नागरिक गरीब हो जाएंगे और जनता बेरोज़गार हो जाएगी। मुझसे भिन्न विचार रखने वाले देशद्रोही नर्क जाएंगे। राजा ने ऐसे देशद्रोहियों को तुरंत गिरफ्तार कर राजदरबार में प्रस्तुत करने के आदेश दिए।

सैनिक राजा के आदेश का मात्राश: पालन करने निकल पड़े। इन विद्रोहियों के निवास स्थलों से उन्हें बंदी बना कर राजदरबार के समक्ष प्रस्तुत किया। सैनिकों ने दरबार में महाराज को बताया कि बंदी लोगों में कई महिलाएं हैं। सैनिकों ने कहा- महाराज इनमें से एक बंदी महिला तो विवाहित होने के उपरांत भी विवाहित महिलाओं के जैसा साज-श्रृंगार नहीं करती। इतना ही नहीं, यह महिला ईश्वर की आराधना भी नहीं करती। इस महिला के पास एक विचित्र से व्यक्ति की प्रतिमा मिली है। सैनिकों ने महाराज को बताया कि ये महिलाएं वनवासियों के कल्याण और उनके अधिकारों पर कुछ वार्तालाप करती पकड़ी गई हैं। ये सामान्य बात नहीं है, ये तो राष्ट्रद्रोह की सूची के क्रमांक में सबसे ऊपर अर्थात जघन्य अपराध है। जब महाराज स्वयं जनता के कल्याण के लिए इतने चिंतित रहते हैं फिर इस प्रकार का प्रलाप कोई सामान्य नागरिक कैसे कर सकता है। एक मंत्री ने कहा कि यदि कोई नागरिक अथवा प्रजा राजा के विरूद्ध बातें करे तो उसे देशद्रोह ही माना जाएगा।

राजा मौन होकर चर्चा सुन रहे थे। दूसरे मंत्री ने तर्क दिया कि उनके राजा इतने दयालु और परोपकारी हैं इसलिए वे सभी के मन की बातें जान लेते हैं। इसी गुणवश महाराज ने सबके मन की बात जान ली और किसी नागरिक को कुछ कहने की आवश्यकता नही रही। अब ऐसे परोपकारी राजा के विरूद्ध षडयंत्र राष्ट्रद्रोह नहीं तो और क्या माना जाए।

विद्रोह के आरोपितों पर अनेक आरोप लगे, राज्य के सेनापति ने कहा कि इन विद्रोहियों ने राज्य में वनवासियों की एक सभा आयोजित की थी जहां राज्य के विरूद्ध अनर्गल प्रलाप किए गए और भोले भाले नागरिकों को भड़काया गया। ऐसा करने वाले ये नागरिक नर्क की अग्नि में जलने के पात्र हैं। महाराज की जय हों, महाराज शतायु हों, के उदघोष से सभा गूंज उठी। महाराज की सभा और दरबार में उपस्थित सभी नागरिकों और अधिकांश प्रजा ने इन्‍हें दोषी माना। इन लोगों कठोर कारावास की मांग उठी। राजा न्यायप्रिय और दयालु थे। उन्होंने कहा- इन्हें हम एक मौका देना चाहते हैं। अभी कुछ दिनों के लिए इन अधम लोगों को उनके घरों में नज़रबंद कर दिया जाय। महाराज ने कहा- शीध्र ही हम न्याय करेंगे। सभा में विद्रोहियों को दंडित कर समाज को संदेश देने पर सहमति बन चुकी थी, तभी एक दरबारी ने डरते हुए कहा कि महाराज यदि प्राणदान हो तो कुछ कहना चाहता हूँ। महाराज से पहले महामंत्री ने कहा- कहो।

दरबारी ने कहा- महाराज, आप निःसंदेह दयालु और परोपकारी हैं परंतु राज्य में आप द्वारा चलाई जा रही योजनाओं का लाभ प्रजा तक नहीं पहुँच पा रहा हैं। प्रजा दुखी है और प्रजा के मन की असली बात आप तक नहीं पहुंच पा रही है। राजा चूँकि दयालु थे इसलिए वे चुप रहे, दरबारी का सिर धड़ से अलग नहीं किया। राजा के कुछ विश्वस्तों ने उस दरबारी को चुप कराने की कोशिश की लेकिन वह कहते रहा- महाराज आज आप कुछ लोगों को कारावास भेज सकते हैं परंतु यदि इस प्रकार ही चलता रहा तो पूरी प्रजा के लिए कारावास कहां से लाएंगे।

इतना सुनते ही महाराज क्रोधित हो गए। उन्होंने उसे बंदी बनाने का आदेश दे दिया। इस पूरे प्रकरण से महाराज चिंतित तो थे परंतु कोई उनके मन की बात नहीं पढ़ सकता था। महाराज ने विद्वत परिषद को आदेश दिया कि वे पूरी प्रजा के लिए कारावास का निर्माण कराना चाहते हैं। महाराज ने अपने महारत्नों को शीघ्र ही समस्या का हल ढूंढ कर लाने का आदेश दिया। शीघ्र ही राजा के महारत्न दरबार में अपने समाधान के साथ लौटे। सभा दोबारा शुरू हुई।

राजा के सबसे विश्वस्त महारत्न ने कहा कि इस संपूर्ण समस्या का कारण राज्य में उच्च शिक्षा की उपलब्धता और सभी को अपने  मत व्यक्त करने की स्वतंत्रता का सुलभ होना है। प्रजा भिन्न भिन्न प्रकार के ज्ञान अर्जित करती है जिसके कारण प्रजा के मन प्रश्न उठते हैं जो महाराज और स्वयं प्रजा के लिए भी अहितकर हैं। ये कालांतर में ईश्वर की सत्ता के लिए भी घातक हैं और हमारे परम यशस्वी चक्रवर्ती महाराज तो स्वयं पृथ्वी पर ईश्वर के प्रतिनिधि हैं ही। अतएव इस जगत की रक्षा के लिए महाराज को उच्च शिक्षा की सहज उपलब्धता को समाप्त करना होगा। इतना ही नहीं, प्रजा की मतभिन्नता महाराज के लिए खतरा है। राजा ने आदेश दिया कि राज्य के गुरूकुलों में सीमित विषयों पर ज्ञान दिया जाए। गुरूकुलों में बटुकों को ऐसे विषय नहीं पढ़ाए जाएं जिससे तर्कशक्ति का विकास हो। राज्य में आचार्यों को ऐसे आदेश दिए जाएं जिससे गुरूकुलों में मतैक्य का पोषण और विकास हो। राज्य में पुस्तकालय यदि हों तो उनको शीघ्र खाली करा कर इनमें देवालयों की अथवा तीर्थ स्थानों के रूप में विकसित किए जाए। राज्य में धर्म के प्रचार पर विशेष ध्यान दिया जाए एवं प्रजा द्वारा देवताओं की पूजा अनिवार्य कर दी जाए। राज्य में विशेष अभियान चलाकर वनवासियों से राज्य की भूमि को खाली कराया जाए।

राजा ने आदेश दिया कि राज्य में प्रजा में से चिन्हित कर स्वयंसेवी निरीक्षकों के कई दल बनाए जाएं जो म्लेच्छों, अधर्मियों, विधर्मियों और पापियों को चिन्हित कर तुरंत न्याय करें। इस प्रकार के त्वरित न्याय से राजकीय ईश्वर की कृपा राज्य पर पुन: बरसनी प्रारंभ हो जाएगी। दयालु और न्यायप्रिय राजा के आदेश सुनते ही सभा में राजा का जयघोष इतना उच्च स्वर हुआ कि ये जयघोष स्वर्ग तक पहुंचा। स्वर्ग से देवताओं ने पुष्पवर्षा की जिसका राजा ने प्रणाम कर धन्यवाद दिया।

राज्य में इस बीच छोटे मोटे विद्रोह के समाचार आते रहे। गुप्तचर निरंतर गुरूकुलों का निरीक्षण करते, राज्य के सैनिक पुस्तकालयों को ध्वस्त करते रहते। राज्य में तर्कशक्ति के क्षरण और मतैक्य के विकास पर राजा का विशेष ध्यान था। राजा के इन प्रयासों से संतोषप्रद परिणाम निकला हालांकि उसमें थोड़ा समय अवश्‍य लगा, परंतु शीघ्र ही गुप्तचरों ने सूचना दी कि निकट के वन में नदी के उस पार वनवासियों और विद्रोहियों व कुछ पड़ोसी राजकुमारों ने फिर से मंत्रणा की है।

राजा फिर उद्विग्न हो उठा। किले में बैठा वह नदी के उस पार वन से उठता धुआँ देख पा रहा था।


क्रमश:

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