बंबई की आग हो या भगदड़, हर बार चार्ल्‍स कोरिया का ही सपना टूटता है!

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शहरी योजना निर्माण के लिहाज से देखें तो मुंबई के कमला मिल परिसर में शुक्रवार को लगी भीषण आग को पिछले दिनों शहर के एलफिंस्‍टन रोड रेलवे ब्रिज पर हुई भगदड़ का विस्‍तार माना जा सकता है। ये घटनाएं स्‍वायत्‍त और स्‍वतंत्र नहीं हैं। एक शहर का असमान नियोजन और उसमें पैबस्‍त भ्रष्‍टाचार इन घटनाओं को आपस में जोड़ता है। एलफिँस्‍टन ब्रिज पर हुई भगदड़ के बाद 4 अक्‍टूबर को मिंट ने चार्ल्‍स कोरिया के शहरी नियोजन का हवाला देते हुए एक बेहतरीन संपादकीय टिप्‍पणी लिखी थी जो साल के अंत में लगी आग के मामले में भी बराबर मौजूं है जिसमें अब तक 16 लोग मारे जा चुके हैं। टीवी-अखबारों के माध्‍यम से कमला मिल परिसर की घटना तो हमारे सामने है, लेकिन घटना को ऐतिहासिकता के परिप्रेक्ष्‍य में समझने का नज़रिया इस संपादकीय से पाठकों को मिल सकता है। कोई भी हादसा यूं ही नहीं होता। हादसे की ज़मीन पहले से तैयार होती है। ताज़ा हादसे की ज़मीन को पकड़ने के लिए पढ़े दैनिक मिंट का यह ज़रूरी संपादकीय – (संपादक)

मुंबई की परिकल्‍पना का दूसरा अवसर कैसे हमने गंवा दिया

अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर उन्‍होंने चाहे जो भी कामयाबी हासिल की हो, लेकिन जिस शहर को उन्‍होंने अपना घर बनाया उस पर अपनी वास्‍तविक छाप छोड़ पाने में चार्ल्‍स कोरिया नाकाम रहे। मुंबई का आखिरी दुर्भाग्‍य यही है। इस वास्‍तुकार और शहरी योजनाकार के काम को बरबाद करने के पीछे राजनीतिक संवेदनहीनता और भ्रष्‍टाचार का बड़ा हाथ है और मुंबई ने इसकी भारी कीमत चुकायी है। एलफिंस्‍टन रोड के रेलवे पुल पर पिछले हफ्ते हुई भगदड़ इसी कीमत की पैमाइश है।

आज़ादी के बाद के वर्षों के दौरान मुंबई की कारोबारी ताकत की रीढ़ दरअसल उसकी कपड़ा मिलों की ज़मीनें हैं जो शहर के बीचोबीच हुआ करती थीं। इसका सिलसिला 1982 में समाप्‍त हुआ जब दत्‍ता सामंत की अगुवाई में साल भर तक मिल मजदूरों की हड़ताल चली। शहर की कुल 58 मिलों में 26 को बीमारू घोषित कर के सरकार ने उन पर कब्‍ज़ा कर लिया। इसमें कोई आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए कि शहर के मध्‍य में स्थित इस महंगी ज़मीन के साथ क्‍या किया जाना चाहिए, यही सवाल सर्वाधिक विवादास्‍पद बना रहा। महाराष्‍अ्र में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना की सरकार ने 1996 में कोरिया की अगुवाई में एक अध्‍ययन समूह गठित किया जिसका काम समग्र विकास योजना का खाका तैयार करना था।

इस समूह ने कथित चार्ल्‍स कोरिया कमेटी रिपोर्ट सरकार को साल के अंत में सौंपी। इस रिपोर्ट में तीन हिस्‍सों में ज़मीन को बांटने की सिफारिश की गई थी- एक-तिहाई ज़मीन का इस्‍तेमाल सार्वजनिक स्‍थलों के लिए हो जिनमें बागीचे, स्‍कूल और अस्‍पताल बना जाएं; एक-तिहाई को सरकार किफायती आवासों के लिए विकसित करे और बाकी एक-तिहाई ज़मीन आवासीय या वाणिज्यिक उद्देश्‍यों के लिए तत्‍कालीन मालिकान को दे दी जाए। संयोग से इस योजना में एलफिंस्‍टन रोड स्‍टेशन के पुनर्विकास का काम भी शामिल था जहां एक ज्‍यादा चौड़ा ओवरब्रिज बनना था जो एक विशाल प्‍लाज़ा में जाकर खुलता हो- अगर ऐसा हो गया रहता तो भीड़ से निपटने की स्थिति बेहतर होती, पिछले हफ्ते वाली त्रासदी नहीं देखनी पड़ती।

इस योजना का कुछ नहीं हुआ। ”मुक्‍त भूमि” को दोबारा परिभाषित कर दिया गया जिसके चलते सार्वजनिक उपयोग हेतु आरक्षित भूमि का आकार 166 एकड़ से घटकर 32 एकड़ रह गया। इसमें से अधिकतर ज़मीन का इस्‍तेमाल निजी विकास के लिए किया गया जिसमें नियोजन की कोई झलक नहीं थी। जैसा कि कोरिया अपने लेख ”दि ट्रेजडी ऑफ तुलसी पाइप रोड” में कहते हैं, ऐसा इसलिए हुआ क्‍योंकि ”सड़कों के एक समर्थ ढांचे, इंजीनियरिंग सेवाओं और तार्किक निर्णयकारी तंत्र का अभाव था।”

कोरिया की जिंदगी में यह दूसरी बड़ी हताशा रही। पहली हताशा का सामना उन्‍हें साठ के दशक के आरंभ में करना पड़ा था जब न्‍यू बॉम्‍बे के निर्माण और विकास की उनकी बनाई योजना को सरकार ने आधे-अधूरे मन से लागू किया था। मिलों की ज़मीन के संबंध में उनकी बनाई योजना की नाकामी के पीछे अगर ज़मीन की खरीद-फ़रोख्‍त थी, तो इस बार योजना की उपेक्षा ने उन्‍हें नाकाम कर दिया। वाणिज्यिक शहरी-केंद्रों के इर्द-गिर्द आपस में जुड़े हुए उपनगरों का एक संपर्क तंत्र जो मुंबई की विस्‍फोटक आबादी का दबाव कम कर पाता, उसे बनाने के बजाय ऐसा न्‍यू बॉम्‍बे बनाया गया जो दो दशकों तक ऊंघता हुआ कस्‍बा बना रहा। उपनगरीय रेलवे को 90 के दशक मे जाकर वहां से जोड़ा गया।

जो लोग मुंबई में रहते हैं या फिर देश के महानगरों में, उनके लिए यह सब कोई चौंकाने वाली नई बात नहीं है। दिल्‍ली को अगर छोड़ दें- जिसे राष्‍ट्रीय राजधानी होने का कुछ लाभ बेशक मिला है- तो भारत का कोई ऐसा महानगर नहीं है जहां के प्रशासकों और राज्‍य सरकारों ने उसकी सच्‍ची सेवा की होगी। ऐसा क्‍यों है, इसका सबसे आसान जवाब होगा भ्रष्‍टाचार। साथ ही 1992 में किए गए संविधान में 74वें संशोधन के दिशानिर्देशों को पूरा करने की नाकामी भी इसके पीछे है जहां शहरी निकायों के लिए पर्याप्‍त तरीके से अधिकरण और स्‍वायत्‍तता का इंतज़ाम नहीं किया जा सका जिससे जवाबदेही में थोड़ा इजाफा हो सकता था। ये तमाम जवाब गलत नहीं हैं, लेकिन अधूरे ज़रूर हैं।

भारत के शहरी नियोजन की असफलता के मूल में दरअसल शहरी नियोजन को समझने की नाकामी मौजूद है कि वाकई वो है क्‍या। कोरिया का कहना है कि ”बाज़ार की ताकतें किसी शहर का निर्माण नहीं करती हैं, बल्कि वे उसे नष्‍ट करती हैं।” वे इस मामले में गलत थे। नियमन और नियोजन भले अनिवार्य हों लेकिन किसी शहर के रहवासी खुद को स्‍वाभाविक तौर पर कुछ इस तरह से संगठित कर लेंगे जिससे वे आर्थिक गतिविधियों में सबसे अच्‍दे तरीके से अपनी भागीदारी कर सकें। यही चीज़ उनके इर्द-गिर्द शहरी स्‍पेस को तय करती है।

इस सोच के दूसरे छोर पर हम जेनी जेकब्‍स को खड़ा पाते हैं जिन्‍होंने 1961 में अपनी पुस्‍तक ”दि डेथ एंड लाइफ ऑु ग्रेट अमेरिकन सिटीज़” में शहरी नियोजन का विखंडन किया था। वे मानती थीं कि शहरी वृद्धि को जैविक होना चाहिए औश्र केंद्रीय नियोजन मोटे तौर पर एक अभिशाप है। वे अपने मामले को थोड़ा अतिरंजित कर के रख रही थीं, लेकिन दोनों ही विचारों का संगम जिस जगह पर होता है वहां एक सरोकार साझा है और वह है शहर के रहवासियों की चिंता- यह मान्‍यता कि शहरों को इस तरीके से संगठित किया जाना चाहिए जिससे शहरी समाज के सभी संस्‍तरों का कल्‍याण और आर्थिक भागीदारी सुनिश्चित हो सके।

भारत के शहरी योजनाकारों ने शायद ही कभी इस पर ध्‍यान दिया हो, बजाय इसके वे मोटे तौर पर एक यांत्रिक संस्‍करण पर टिके रहे जो इनफ्रास्‍ट्रक्‍चर पर ज्‍यादा ज़ोर देता है, नागरिकों के परस्‍पर संवाद पर नहीं। इसका अपरिहार्य नतीजा यह हुआ है कि हमारे यहां ऐसे ठस और भागीदारीविहीन मास्‍टर प्‍लान बनाए गए जो बनते वक्‍त ही या तो अप्रासंगिक हो गए या फिर कारगर ही नहीं हुए। इसका उदाहरण आप मुंबई की झुग्गियों की ज़मीनों के अंतहीन विकास और उनके निवासियों के पुनर्स्‍थापन में देख सकते हैं। या फिर करोड़ों रुपये जो मुंबई की मीठी नदी को साफ करने में फूंक दिए गए जो अपने आप में एक असंभव सा कार्य है चूंकि नदी के किनारे बसी झुग्गियों और टप्‍परों समेत नदी के तमाम फीडर नालों की पहुंच सीवेज या कचरा निस्‍तारण सुविधा तक नहीं है। इसकी एक झलक पिछले दिनों जारी मेट्रो नीति में मिलती है जब पहली बार नोडल परिवहन इकाइयों की जरूरत को मान्‍यता दी गई जिनका काम शहर में बिखरी हुए सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों के बीच संयोजन करना है।

पिछले साल तत्‍कालीन पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन राज्‍यमंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा था कि ”आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी असफलता हमारे यहां शहरी, नगरी और ग्रामीण नियोजन में है।” समस्‍या की पहचान करने का मतलब है कि हम अब भी पहले चरण में ही हैं।


मिंट से साभार 

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