माणिक सरकार का संदेश रोकने के निहितार्थ
कृष्ण प्रताप सिंह
14 अगस्त को राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसन्ध्या पर देश के नाम अपना पहला संदेश दे रहे थे, तो उनके संदेश के सरकारी प्रसारकों दूरदर्शन व आकाशवाणी ने त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार का स्वतंत्रता दिवस संदेश प्रसारित करने से मना करके एक ऐसा ‘संदेश’ दे डाला, जिसकी दमनात्मकता 1975 के आपातकाल तक को लजाती है। प्रसारकों के इस ‘संदेश’ की सीनाजोरी देखिये: उन्होंने माणिक के कार्यालय को ‘बाकायदा’ पत्र लिखा कि जब तक वे अपना संदेश उनकी इच्छा के अनुरूप बदलते नहीं और जैसा वे चाहते हैं, वैसा संदेश नहीं देते, उसका प्रसारण नहीं किया जायेगा। माणिक ने इन प्रसारकों को उनका मनपसंद संदेश देने से इनकार कर दिया तो इन्होंने उनके संदेश का प्रसारण रोकने की अपनी जिद भी पूरी कर दिखायी।
हम जानते हैं कि तकनीकी तौर पर दूरदर्शन व आकाशवाणी का संचालन भले ही ‘प्रसार भारती’ के हाथ में है, यह विश्वास करने के कारण हैं कि उसने किसी मुख्यमंत्री का स्वतंत्रता दिवस संदेश रोकने की हिमाकत केन्द्र सरकार की सहमति के बगैर नहीं की होगी। तभी तो ये पंक्तियां लिखने तक इस सिलसिले में न उसकी ओर से अपनी किसी कसौटी के बिना भेदभाव के अनुपालन का दावा किया गया है, न यही बताया जा रहा है कि माणिक का संदेश उसने क्योंकर प्रसारण के योग्य नहीं पाया?
स्वाभाविक ही त्रिपुरा में सत्तारूढ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इस कृत्य को सहयोगी संघवाद की प्रधानमंत्री की घोषित मंशा के विपरीत, अलोकतांत्रिक, निरंकुश, असहिष्णु, अघोषित आपातकाल व तानाशाही का प्रतीक बताया, साथ ही कहा है कि वह इसे चुपचाप बर्दाश्त नहीं करने वाली और इसके खिलाफ नागरिकों के साथ मिलकर संघर्ष करेगी। उसके महासचिव सीताराम येचुरी ने यह भी आरोप लगाया है कि केन्द्र सरकार द्वारा प्रधानमंत्री के निर्देश पर विपक्ष की आवाज दबाने के लिए दूरदर्शन व आकाशवाणी का शर्मनाक ढंग से संघ व भाजपा की निजी संपत्ति जैसा इस्तेमाल किया जा रहा है।
उनकी बात को पूरी तरह स्वीकार न करें तो दूरदर्शन व आकाशवाणी की इस कारस्तानी में नरेन्द्र मोदी सरकार को अभीष्ट उस सर्वसत्तावाद की जबर्दस्त आहट महसूस की जा सकती है, जिसकी बात, और तो और, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे वरिष्ठ भाजपा नेता अरुण शौरी तक महसूस करने लगे हैं। आखिरकार, यह इस सरकार का सर्वसत्तावाद की दिशा में जाना नहीं तो और क्या है कि वह उत्तर प्रदेश के ‘अपने’ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ताजमहल जैसी विश्वविरासत के साम्प्रदायिक आधार पर प्रदेश की संस्कृति से अलगाव की सार्वजनिक घोषणा करने की ही नहीं, खुद को कट्टर हिन्दू घोषित करने तक की छूट देती है और त्रिपुरा के ‘पराये’ मुख्यमंत्री का स्वतंत्रता दिवस संदेश सेंसर करने पर उतर आती है? निश्चित ही इससे उन सारे लोगों को निराशा हुई है जो समझते थे कि देश के प्रायः सारे शीर्ष संवैधानिक पदों पर कब्जे के बाद भाजपा व उसकी सरकारें संविधान के मूल उद्देश्यों के प्रति थोड़ी जिम्मेदार होकर सामने आयेंगी और उनके संवैधानिक पदाधिकारी संविधान की रक्षा की अपनी शपथ निभायेंगे। रामनाथ कोविन्द ने अपने शपथग्रहण के वक्त सारी संवैधानिक मर्यादाओं की रक्षा का वचन दिया, तो भी लगा था कि वे वास्तव में इसे लेकर गम्भीर हैं। लेकिन अब समझ में नहीं आता कि बात को मुख्यमंत्रियों में भी अपने-पराये के भेद तक पहुंचाकर, साथ ही असहमति व प्रतिरोध की गुंजायशों को एकदम से नहीं बचने देकर, किस संवैधानिक परम्परा की रक्षा की जा रही है या कौन-सी नयी परम्परा बनाई जा रही है?
इस सवाल की धार थोड़ी कम हो सकती थी, अगर माणिक सरकार टीवी या रेडियो के लिए कुछ भी बोल देने वाले अगम्भीर किस्म के प्रचारप्रिय या फायरब्रांड नेता होते। लेकिन संदेश रोकने वालों के दुर्भाग्य से माणिक न कभी किसी असंवैधानिक कृत्य से जुड़े रहे और न ही कोई भड़काऊ या विद्वेष फैलाने वाला बयान ही उनके नाम दर्ज है। सीताराम येचुरी ने उनके रोके गये संदेश के जो हिस्से ट्वीट किये हैं, उन्हें पढ़कर लगता नहीं कि उसको रोकना किसी मेरिट के आधार पर उचित हो सकता है। संदेश में उनके शब्द हैं, ‘विविधता में एकता भारत की परंपरागत विरासत रही है। धर्मनिरपेक्षता के महान मूल्यों की वजह से हम भारतीयों को एक देश के रूप में एकजुट रहने में मदद मिली, लेकिन आज धर्म निरपेक्षता की विचारधारा खतरे में है। धर्म, जाति और समुदाय के नाम पर हमारी राष्ट्रीय चेतना पर हमला करने और समाज को बांटने की कोशिशें की जा रही हैं। गाय की रक्षा के नाम पर और भारत को एक खास धर्म वाले देश के रूप परिवर्तित करने के लिए भावनाओं को भड़काया जा रहा है।’
अगर इन शब्दों को रोक का आधार बनाया गया तो पूछा जाना चाहिए कि जिस धर्मनिरपेक्षता का संविधान के मूल्य के रूप में उसकी प्रस्तावना तक में जिक्र है, अब उसकी चर्चा से किसी को भी सिर्फ इसलिए रोक दिया जायेगा क्योंकि हिन्दू राष्ट्र के समर्थक सत्ता में आ गये हैं? जहां तक गाय से जुड़ी बाते हैं, क्या प्रकारांतर से यही बातें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी नहीं कह चुके हैं? तो क्या ‘नये भारत’ में ऐसी बातें सिर्फ प्रधानमंत्री के ही श्रीमुख से शोभा पायेंगी? यह सवाल इसलिए भी प्रासंगिक है कि ऐसे ही शब्दों के प्रयोग के कारण पिछले दिनों सेंसरबोर्ड ने नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमत्र्यसेन पर बनी डाक्यूमेंटरी फिल्म ‘आग्र्यूमेंटेटिव इंडियन’ को पास करने से मना कर दिया था।
माणिक के संदेश के उस अंश को भी रोक का आधार नहीं ही बनाया जा सकता, जिसमें उन्होंने अल्पसंख्यक और दलित समुदाय के लोगों को खतरे में बताया या कहा कि उनकी सुरक्षा की भावना को ठेस पहुंचाया जा रहा है और उनकी जिंदगियां खतरे में हैं। इन अपवित्र प्रवृत्तियों और विध्वंसकारी कोशिशों को स्वतंत्रता आंदोलन के लक्ष्यों, सपनों और आदर्शों के खिलाफ बताने का उनका अधिकार क्या किसी प्रसारक का मोहताज हो सकता है? खासकर जब निवर्तमान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी अपने साक्षात्कार में पहले ही ऐसी ही बातें प्रसारित कह चुके हैं?
ऐसे में लगता है कि प्रसारकों को माणिक के संदेश में सबसे ज्यादा उनका यह कहना चुभा कि जो लोग आजादी की लड़ाई में साथ नहीं थे, बल्कि जिन्होंने उसे नाकाम करने की कोशिश की, जो नृशंस, क्रूर और लुटेरे अंग्रेजों के गुलामों की तरह रहे, जो राष्ट्र विरोधी ताकतों के साथ रहे, उनके अनुयायी आज भारत की एकता और अखंडता पर हमला कर रहे हैं। लेकिन यह तो इतिहास की बात है, जो कड़वा हो या मीठा, उसे इसी रूप में स्वीकार करना होगा।
हां, उन्हें यह कहने के कारण रोका गया है कि आज हर ईमानदार और देशभक्त भारतीय को एकीकृत भारत के विचार के प्रति प्रतिबद्ध रहने का संकल्प लेना चाहिए ताकि विध्वंसकारी षड्यंत्रों और हमलों की कोशिशों का जवाब दिया जा सके, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय की सुरक्षा और हमारे देश की एकता और अखंडता को संरक्षित करने के लिए हमें एकजुट होकर संघर्ष करना चाहिए, तब तो नरेन्द्र मोदी सरकार के सर्वसत्तावाद को प्रमाणित करने के लिए किसी और तथ्य की जरूरत ही नहीं है।
लेकिन इस सर्वसत्तावाद की विडम्बना देखिये: जहां एक ओर त्रिपुरा में मुख्यमंत्री का स्वतंत्रतादिवस संदेश रोक दिया जाता है, बंगाल की मुख्यमंत्री स्वतंत्रता दिवस से जुड़े ममता केन्द्र के निर्देश को यह कहकर खारिज कर देती हैं कि उन्हें उनसे देशभक्ति नहीं सीखनी। इतना ही नहीं, संघ प्रमुख मोहन भागवत केरल में झंडा फहराने के लिए उस प्रशासनिक आदेश की अवज्ञा पर उतर आते हैं, जिसमें किसी भी सरकारी सहायताप्राप्त संस्थान में उसके प्रशासन या शिक्षा विभाग के अधिकारी अथवा चुने हुए जनप्रतिनिधियों द्वारा ही झंडा फहराये जाने की बात कही गयी थी।
यह तस्वीर, इस टिप्पणी के लेखक और वरिष्ठ पत्रकार कृष्णप्रताप सिंह की है। वे इन दिनों फ़ैज़ाबाद से प्रकाशित जनमोर्चा के संपादक हैं
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