हमारे मीडिया की नयी पहचान: वीडियो से छेड़छाड़, शब्दों से खिलवाड़ और संकेत चिह्नों का दुरुपयोग !
जेएनयू में लगे देशविरोधी नारे?
“देशद्रोही” कन्हैया गिरफ़्तार
उमर खालिद है देशविरोधी नारों का मास्टर माइंड !
अफज़ल के कार्यक्रम के पीछे हाफिज़ सईद ?
जेएनयू में अफज़ल प्रेमी गैंग !
वामपंथ का ‘बौद्धिक आतंकवाद’
जैसे ‘प्रोफेसर’, वैसे ‘कन्हैया’!
ये कुछ ऐसे वाक्य हैं जो मीडिया ख़ासकर टेलीविज़न में पिछले कुछ दिनों से हैडिंग/स्लग, स्टिंग और बीजी (बैक ग्राउंड) के तौर पर छाए हुए हैं। हर चैनल अपने शीर्षक को धार और तेवर देने के लिए, दमदार या सनसनीखेज़ बनाने के लिए इस तरह का प्रयोग करता है। पहले ख़बर के ब्योरे से कथित शब्द हटा और अब शीर्षक से आरोप आरोपी शब्द हट गया है और “…” (Inverted commas) ! (exclamation mark विस्मय बोधक) या ? (question mark प्रश्नवाचक चिह्न) लगाकर कुछ भी लिख देने की परंपरा बन गई है।
इसके पीछे एक गहरी राजनीति और समझ है, हालांकि दर्शक या पाठक तक बात सीधे पहुंचे और ज़ोरदार चोट करे इस नाम पर इस तरह के प्रयोग किए जाते हैं। कभी-कभी शीर्षक पट्टी में स्पेस (जगह) का भी बहाना रहता है। अब अगर कोई पत्रकार अपनी स्क्रिप्ट में कथित शब्द लिख दे तो बाक़ी साथी उसपर हंसते हैं और सीनियर या बॉस उसे हटा देते हैं। अब बताइए एक आम पाठक या दर्शक इन वाक्यों या शीर्षक का क्या मतलब समझेगा। वो दर्शक जो इस तरह की तकनीक में नहीं जाता, जो इन संकेत चिह्नों का अर्थ नहीं समझता वो ऐसे वाक्यों का क्या अर्थ निकालेगा? वो तो सीधे यही अर्थ निकालेगा या समझेगा कि देशविरोधी नारे लगे हैं। पाकिस्तान ज़िंदाबाद बोला गया है। कन्हैया और उसके साथी देशद्रोही हैं।
ये सिर्फ़ एक ख़बर या घटना की बात नहीं है। यह तो सिर्फ़ उदाहरण मात्र हैं। चैनलों के न्यूज़ रूम में ऐसी ही समझदारी बन गई है। एक सहज ख़बर को सनसनीख़ेज़ बनाना ही डेस्क पर काम करने वालों की काबलियत माना जाता है। इसे आप डेस्क पर काम करने वालों की मजबूरी भी कह सकते हैं। लेकिन देखते-देखते हुआ यह कि मालिक या बॉस के बिना किसी विशेष दिशा-निर्देश के भी आम मीडियाकर्मी (टीवी में प्रोड्यूसर, प्रोडेक्शन एक्ज्यूकेटिव आदि और अख़बार में सब एडिटर, सीनियर सब एडिटर आदि) हर ख़बर में ऐसी भाषा-शैली का प्रयोग करने लगे हैं। अब यह उनकी सामान्य आदत में आ गया है। शायद इसे ही अनुकूलन कहते हैं। अब तो ख़बर में दम पैदा करने के नाम पर 5WH (What क्या, Why क्यों, Who कौन, When कब, Where कहां और How कैसे) का फार्मूला भी भुला दिया गया है और अब ख़बर के इंट्रो में दो-तीन W से ही काम चला लिया जाता है। कई बार तो असल ख़बर या ख़बर का सार आख़िरी लाइनों में मिलता है। इसी के चलते अब इंट्रो पैकेज का चलन हुआ है, जिसमें मूल ख़बर दो-तीन पैकेज या ब्रेक के बाद आती है। यह सब दर्शक की जिज्ञासा बढ़ाने और उसे आधे घंटे के प्रोग्राम तक बांधे रखने के नाम पर होता है। इससे चाहे दर्शक को कितनी उलझन या असमंजस क्यों न हो। और अगर वह प्रोग्राम बीच में छोड़कर दूसरे चैनल पर चला जाए तो उसे तो आधी-अधूरी ख़बर ही मिलेगी। पहले एक ख़बर में सिलसिलेवार पूरी बात सहज भाषा में बताने-समझाने की ताकीद होती थी। लेकिन अब अख़बारों में भी ज़्यादातर पहले पेज की ख़बरों का शेष पेज नंबर 3, 9, 13 आदि पर डाल दिया जाता है और आम पाठक आमतौर पर उस पेज पर जाकर पूरी ख़बर नहीं पढ़ता और आधी-आधूरी ख़बर से ही अपनी राय बना लेता है और कहा जाता है कि आधा सच, झूठ से भी ज़्यादा ख़तरनाक़ होता है।
हाल यह है कि टीवी में तो अब सीधे तस्वीर दिखाकर ललकार कर कहा जाता है देखिए इस शख़्स को, इसके मासूम चेहरे के पीछे एक ख़ूंख़ार दरिंदा छिपा है। चाहे अभी उस व्यक्ति विशेष के ऊपर प्राथमिक आरोप भी तय न हुए हैं, सिर्फ एफआईआर दर्ज होते ही या कभी-कभी उससे भी पहले भी उसे दोषी बना दिया जाता है। एक पैनल बैठाकर जिसमें अपनी पसंद के मेहमान या एक्सपर्ट ज़्यादा होते हैं, के बीच चर्चा कराके एक व्यक्ति विशेष को अपराधी साबित कर दिया जाता है। यही है मीडिया ट्रायल। यानी कोर्ट ट्रायल से पहले ही मीडिया की अपनी अदालत या कहें कि एंकर की अपनी अदालत सज जाती है, क्योंकि ज़्यादातर चैनलों में कुछ ख़ास एंकर ही बॉस (सीईओ) या मालिक की भूमिका में हैं। उनकी अपनी अदालत, अपनी सुनवाई, अपने वकील, अपनी गवाही और जज बनकर अपने पूर्वाग्रह या लाभ-हानि के आधार पर तुरंत फैसला। अब आप देते रहिए अपने निर्दोष होने की दुहाई, कौन सुनता है। तभी आपने देखा होगा कि हत्या से लेकर आतंकवाद की तमाम घटनाओं को लेकर जिस तत्परता से आरोप लगाकर किसी को तुरत-फुरत में अपराधी या आतंकवादी बना दिया जाता है उसी शख़्स के अदालत से बरी होने पर एक ख़बर तक नहीं दिखाई जाती। जिस व्यक्ति के ख़िलाफ़ दिन-दिन भर चर्चा की जाती है। प्राइम टाइम में हल्ला बोला जाता है उसके बेगुनाह साबित होने पर उसे प्राइम टाइम में जगह तो छोड़िए एक पैकेज बराबर भी जगह नहीं मिलती और बहुत ज़रूरी और मजबूरी हो तो एक वोशॉट या वोशॉट-बाइट या फिर फटाफट न्यूज़ में निपटा दिया जाता है।
ख़ैर, मैं बात कर रहा था विशेष भाषा-शैली और संकेत चिह्नों की। निर्भया बलात्कार और हत्याकांड से पहले मीडिया में महिलाओं से अपराध के मामलो में जिस तरह की शब्दावली प्रयोग की जाती थी वो भी बेहद शर्मनाक थी। आपने देखा और पढ़ा होगा कि महिला से बलात्कार या यौन शोषण की ख़बर में इज़्ज़त लूटी, मुंह काला किया, आबरू तार-तार कर दी ऐसे ही शब्दों का प्रयोग होता था। टीवी में ग्राफिक्स के माध्यम से एक डरी-सहमी लड़की का स्केच, अपनी हथेलियों में अपना मुंह छिपाए लड़की ऐसी तस्वीरों का प्रयोग किया जाता था। निर्भया कांड के बाद इसमें कुछ बदलाव आया है। अब इज़्ज़त लूटी, आबरू तार-तार की, जैसे शब्दों के प्रयोग से बचा जाता है। हालांकि कुछ अख़बार और चैनल अब भी पुराने ढर्रे पर हैं लेकिन कई ने इसमें बदलाव किया है। ग्राफिक्स के मामले में अभी कम बदलाव आया है। फिर भी कई चैनल अब महिला संघर्ष और हौसले की तस्वीरे दिखाते हैं।
मैंने अपने पत्रकारिता जीवन में भरसक कोशिश की लड़की घर से भाग गई, अवैध संतान, अवैध संबंध जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल न करूं। इसकी जगह लड़की घर छोड़कर चली गई, उन दोनों का आपस में संबंध था जैसे वाक्यों का ही इस्तेमाल किया है। मेरी नज़र में कोई बच्चा या संतान तो कभी अवैध हो ही नहीं सकती। हालांकि ज्यादातर अन्य साथी अभी भी इसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। दरअस्ल ऐसे शब्दों या जुमलों की उपज हमारी पुरुषवादी यानी पितृसत्तात्मक मानसिकता से ही होती है।
ये बहुत ही शर्मनाक शब्दावली है। महिलाओं के प्रति बिल्कुल अपमानजनक। समझदार और संवेदनशील पत्रकार हमेशा इससे बचने की कोशिश करते हैं। अभी कुछ दिनों पहले तक हम ऑनर किलिंग या इज़्ज़त की खातिर हत्या शब्द का इस्तेमाल करते थे लेकिन फिर कोर्ट के ऐतराज के बाद हम लोगों ने इसे हॉरर किलिंग, झूठी शान के लिए हत्या लिखना, बोलना शुरू किया। तो ऐसा नहीं है कि एक बात को कहने के लिए दूसरे बेहतर शब्द या विकल्प नहीं है, लेकिन फिर मामला उसी मानसिकता का आ जाता है।
एक और बात आपसे साझा करता हूं। इससे आप हमारे यानी पत्रकारों के जातीय या वर्ग भेद को भी पहचान सकते हैं। हम लोग एक बड़े या समृद्ध व्यक्ति के साथ कोई घटना होने पर उसके लिए सम्मानसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। जैसे- वे बैंक से आ रहे थे कि बदमाशों ने लूट लिया या उन्हें किसी गाड़ी ने टक्कर मार दी। अब अगर यही घटना किसी मजदूर के साथ हो तो हम अनायास लिखने लगते हैं- वो बैंक से आ रहा था। या उसे किसी गाड़ी ने टक्कर मार दी। बड़ा आदमी किसी को कार से कुचल दे तो लिखेंगे… कार फलां साहब चला रहे थे। लेकिन अगर रिक्शा या ऑटो रिक्शा से टक्कर हो तो लिखते हैं- ऑटो फलां चला रहा था। यानी इस शब्दावली से हमारी जातीय पहचान या भेदभाव या फिर दंभ भी सहज उजागर हो जाता है।
तो मैं कहना चाहता हूं कि “…” ! ? जैसे संकेत चिह्नों का प्रयोग कविता-कहानी, फीचर में तो अच्छा लगता है क्योंकि इनके जरिये विशेष अर्थ की उत्पत्ति होती है लेकिन हार्ड न्यूज़ में इससे बचा जाना चाहिए क्योंकि ये विशेष अर्थ देने की बजाय सही अर्थ को छुपा देते हैं। अर्थ का अनर्थ कर देते हैं। इनसे अपना तकनीकी और कानूनी बचाव तो होता है लेकिन ख़बर के साथ अन्याय हो जाता है। सोचने वाली बात है कि हम क्यों नहीं ‘देशद्रोही’ कन्हैया की जगह देशद्रोह का आरोपी कन्हैया लिख सकते। और देशद्रोह से भी बेहतर और सही शब्द है राजद्रोह का आरोपी कन्हैया। कुल मिलाकर अब हल्ला बोल के अंदाज़ में शीर्षक और स्क्रिप्ट लिखी जाती है। जिसके चलते शब्द अपना अर्थ खो रहे हैं। क़हर शब्द की तो सबसे ज़्यादा दुर्गति हुई है। ज़रा-ज़रा बात पर अब क़हर टूटा, क़हर बरपा लिखा जाता है, जब वाकई क़हर टूटता है तब हमारे पास शब्द नहीं होते (असलियत ये है कि तब हमारे पास वह ख़बर ही नहीं होती।) अब तो रैली या सभा लिखने से भी काम नहीं चलता और बात हर बात में महा जोड़ने तक पहुंच चुकी है। अब लिखा जाता है महारैली, महासभा, महाकवरेज। अब ये ‘महा’ भी कब तक चलता है देखने वाली बात है। क्योंकि इस तरह के प्रयोग से शब्द अपना असर खो रहे हैं।
“शब्द बेदम हो रहे हैं
या कि फिर एक छल हुए हैं
घात में बैठे हैं जैसे एक बहेलिया…”
यह वही मीडिया है जो दुनिया भर के लिए कानून लागू करने की बात करता है लेकिन अपने लिए स्व:नियमन की वकालत करता है। कुल मिलाकर हमारे मीडिया की नयी पहचान वीडियो से छेड़छाड़, शब्दों से खिलवाड़ और संकेत चिह्नों का दुरुपयोग बनती जा रही है यानी ख़बर दिखाने से ज़्यादा ख़बर छुपाने या गुमराह करने वाली बनती जा रही है। मेरी नज़र में एक सही ख़बर छुपाना किसी अपराध से कम नहीं और एक ग़लत ख़बर दिखाना तो हत्या से भी बड़ा अपराध है। क्योंकि कोई हत्यारा अपने हथियार से एक व्यक्ति की हत्या करता है लेकिन मीडिया अपनी एक ग़लत ख़बर से हज़ारों-लाखों लोगों को गुमराह कर देता है।
ऐसा करने वाले नहीं जानते (सच यह है कि ख़ूब जानते हैं लेकिन जा मिले हैं शासकों से, शोषकों से) कि इससे पूरे मीडिया की ही विश्वसनीयता ख़त्म होती जा रही है। यानी हम उसी डाल को काट रहे हैं जिसपर बैठे हैं।
.मुकुल सरल