मज़दूरों की तनी मुट्ठी देखकर ‘एक्सप्रेस’ भी ‘पैसेंजर’ बन जाता है !

तीन दिन तक लगभग एक लाख मज़दूर दिल्ली के संसद मार्ग पर जमा रहे, लेकिन अगर आप ख़बरों के लिए महज़ न्यूज़ चैनल या अख़बारों पर आश्रित हैं, तो आप न इसकी वजह जान पाएँगे और न ये कि आख़िर ज़हरीले धुएँ के बीच दिल्ली में दी गई इस तेज़ दस्तक के पीछे कौन हैं। यह सिर्फ़ आम कारोबारी समाचार संस्थानों का हाल नही ंहै, ‘सरोकारी’ एक्स्प्रेस भी जब मज़दूरों के हक़ की बात आती है तो पैसेंजर हो जाता है।

यह कोई जुमला नहीं है। जब नौ नवंबर को शुरू हुए इस महापड़ाव की ख़बर इंडियन एक्सप्रेस में 10 नंवबर को नहीं मिली और 11 को भी चूँ-चूँ का मुरब्बा बनाकर पेश की गई तो दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक और हिंदी के आलोचक संजीव कुमार ने फ़ेसबुक पर यही लिखा। पढ़िए–

आरएसएस से जुड़े भारतीय मज़दूर संघ को छोड़कर देश के तमाम मज़ूदर संगठन, पिछले तीन महीने तहसील और ज़िला स्तर पर अभियान चलाने के बाद दिल्ली पहुँचे थे। यानी यह राष्ट्रीय स्तर पर मज़दूरों में बढ़ रहे आक्रोश की अभिव्यक्ति थी। मज़दूरों ने संसद मार्ग पर महापड़ाव डाला था। लेकिन कुछ ट्रैफिक डायवर्ज़न को छोड़करअगर सत्ता को कोई क़दम नहीं उठाना पड़ा तो इसलिए कि मीडिया ने इसकी घनघोर उपेक्षा की। ज़ाहिर है, जिस कॉरपोरेट पूँजी से यह कारोबारी मीडिया संचालित है, वह मज़दूरों के मुद्दे को बीच बहस लाने को ख़तरनाक मानता है। इंडियन एक्सप्रेस भी इससे बरी नहीं है।

मज़दूरों का शांतिपूर्ण और अनुशासित रहना भी मीडिया के लिए सुकून की बात थी। वरना लाठी-डंडे चलते, तोड़फोड़ होती तो वह चाहे जितना आलोचना के स्वर में बात करती, लेकिन बात निकलकर दूर तलक़ भी जाती।

बहरहाल, सोशल मीडिया के ज़माने में ख़बरों को दबाना इतना आसान नहीं रहा। कई वेबसाइटों ने इसकी ख़बर बताई। वीडियो भी लगाए ताकि सूचनाक्रांति के नाम पर सूचनाओं को छिपाने-दबाने का खेल क़ामयाब न हो सके।

मीडिया विजिल ने जो ख़बर इस सिलसिले में लगाई थी, उसे आप नीचे क्लिक करके पढ़ सकते हैं—

दिल्‍ली की ज़हरीली धुंध में एक लाख मजदूरों ने डाला संसद के बाहर महापड़ाव, मीडिया बेख़बर

 



 

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