मैं हैदराबाद विश्वविद्यालय के कई छात्रों की चिंताओं को केवल स्वर दे रही हूं। यह प्रतिक्रिया देर से है क्योंकि मैं मानकर चल रही थी कि हमें आखिर में मीडिया की कवरेज ज़रूर मिलेगी चूंकि एचसीयू में हालात ही कुछ ऐसे हैं। मैं यह मानकर चल रही थी कि ब्रेकिंग न्यूज़ के भूखे चैनलों की ओर से यह एक पल भर की चूक भर रही होगी। मैं समझती हूं कि विश्वविद्यालय के परिसर (जिसे हम सब नाज़ से कैंपस कहते हैं) में मीडिया के प्रवेश पर बंदिश लगाई गई है और इसके संबंध में निर्देश जारी किए गए हैं। हमें हालांकि यह बात समझ में नहीं आती कि मीडिया को नागरिक स्वतंत्रता समूहों के साथ संवाद करने या उन्हें कवर करने से क्या चीज़ रोके हुए हैं और जबकि फैकल्टी, वकील और अन्य सरोकारी लोग हमारी ओर से संघर्ष में जुटे हुए हैं, तो इस कानूनी मोर्चे पर विकसित हो रहे घटनाक्रम का फॉलो-अप मीडिया क्यों नहीं कर रहा। दरअसल, हो यह रहा है कि हैदराबाद शहर के छात्रों, उनके मित्रों और देश के अन्य हिस्से के युवाओं को इतने सारे छात्रों पर हुए हमले की प्रामाणिकता से जुड़े सवालों का सामना करना पड़ रहा है। लोग इसे वास्तविक मान ही नहीं रहे। अगर लोगों को फेसबुक पर ट्रेडिंग खबरों के नाम से चलने वाले केवल 11 शब्दों से ही सरोकार है, तो मुझे उनके लिए अफ़सोस है।
इसी मोड़ पर हमारी निगाह दिल्ली में बैठे मीडिया की ओर जाती है कि वह अफ़वाहों और झूठ का परदाफ़ाश कर के देश के लिए एक संतुलित कवरेज मुहैया कराएगा और लोगों को खबरों के हर पहलू से वाकिफ़ कराएगा। हम तो यह भी नहीं मान रहे कि मीडिया उन निहत्थे छात्रों के पक्ष से स्टोरी को सक्रिय तरीके से उठाए जिन्हें कैंपस में सीआरपीएफ और रैपिड एक्शन फोर्स से निपटना पड़ रहा है। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि छात्रों को कम से कम इन चीजों का सामना करना पड़ा है:
क) एक ऐसे कुलपति की वापसी का सदमा जिससे अब कोई सहानुभूति नहीं बची और उस प्रशासनिक संस्कृति का कायम होना जो बातचीत के ऊपर आतंकित करने को तरजीह देता है।
ख) छात्रावासों में तकरीबन बंधक बना लिए जाने का भय जहां खाना/पानी/बिजली/इंटरनेट के प्रावधान, शौचालयों तक कम से कम जरूरतमंद छात्राओं की पहुंच, थोड़ी सहानुभूति भी मौजूद नहीं है और यहां तक कि खाना लेकर आने वाले वेंडरों को भी गेट से लौटा दिया जा रहा है।
ग) एक ऐसे सेमेस्टर के नाजुक अंत के कगार पर खड़ा होना जो बहुत संकटग्रस्त रहा है और जिसमें हमने अपने बीच का एक सदस्य प्रशासनिक लापरवाही के हाथों खो दिया है।
घ) एक ऐसे शहर में जीना जहां आने वाली गर्मियों में होने वाले पानी के संकट के साफ संकेत दिख रहे हैं, और जबकि विश्वविद्यालय प्रशासन ने खुद स्वीकार किया है कि विश्वविद्यालय के क्षेत्र में पानी के संकट के चलते हफ्ते में केवल 6 दिन ही कामकाजी रखे गए हैं।
रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या और उसके बाद के घटनाक्रम के पश्चात छात्रों ने अपने स्तर पर लगातार कोशिश की है कि वे अपने दुख और गुस्से के बीच समन्वय बैठाते हुए किसी तरह नियमित दिनचर्या में लौट आएं और पढाई जारी रखें। मैं यह समझना आपके ऊपर छोड़ती हूं कि ऐसे बुरे हालात में फंसे छात्रों को अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या से इतर चल रहे अघोषित राजनीतिक घटनाक्रम को समझने में और उसे पचाने में इतना वक़्त क्यों लगा। ऐसे हालात में हम मीडिया में बैठे आप लोगों की ओर देखते हैं कि आप उन चीजों को दुनिया को बताएंगे जो हम खुद नहीं बता सकते। हम युवा ऐसे आदर्शवादी हैं जो अभी हकीकत की दुनिया में प्रवेश करने की राह देख रहे हैं और मैं पक्के तौर पर कह सकती हूं कि आप भी एक नवाकांक्षी युवा पत्रकार के बतौर किसी न किसी मोड़ पर हमारे जैसे ही रहे होंगे। इस नाते हम उम्मीद कर रहे थे कि आपके नियमित काम में हमारी नुमाइंदगी भी निष्पक्ष तरीके से होगी यानी आप देश में होने वाली खबर योग्य घटनाओं की रिपोर्टिंग ज़रूर करेंगे। मुझे अफ़सोस के साथ पूछना पड़ रहा है कि यदि छात्रों पर ऐसा भयावह दमन और राज्य की मिलीभगत से विश्वविद्यालय के प्रशासन द्वारा खुलेआम की जा रही हिंसा दिल्ली के मीडिया में खबर के लायक नहीं है, तो फिर क्या है?
हमारे सहपाठी और साथी, रूममेट और हॉस्टलमेट पहले एक थाने से दूसरे थाने तक खींच कर ले जाए गए और अब (पिछली सूचना तक) चेरलापल्ली की जेल में पड़े हुए हैं। ऐसा लगता है कि अधिकारियों ने जान-बूझ कर लंबी सरकारी छुट्टी से ठीक पहले यह सब सुनियोजित ढंग से रचा। छात्रों पर लाठियां बरसाई जा रही थीं, उन्हें पीटा जा रहा था और चुनिंदा गालियों से नवाजा जा रहा था लेकिन इन सब के बीच वे लोगों के लिए इन तस्वीरों और वीडियो को अपलोड करने में जुटे हुए थे। छात्राओं को पकड़ कर यातना दी गई, उन पर नस्ली और भद्दी टिप्पणियाँ की गईं- हमारे जैसे विश्वविद्यालय परिसर में ऐसी चीज़ें नहीं होती थीं। जैसा कि चलन है, उसके हिसाब से भले ही आपको भी यह लगता हो कि हम लोग ”बच्चे” हैं या फिर ”ऐसे गुंडे और छात्र नेता हैं जो पढ़ते-लिखते नहीं”, लेकिन इसके कारण राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मौजूद चौथे स्तम्भ को हमारे साथ संवाद करने और हमारे बीच की विविध राय को हासिल करने से तो नहीं रोका जा सकता? जाहिर है, नागरिक समाज भी केवल इस वजह से तो इस मसले को उठाना बंद नहीं कर सकता और हमसे उन चीजों के बारे में संवाद को नहीं रोक सकता जो हमारी समझ या तजुर्बे के दायरे से पार मानी जाती हैं। आखिर अब नहीं, तो कब?
हम सभी एक प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा की डिग्री हासिल करने आए हैं और हम में से अधिकतर को सरकारी विश्वविद्यालय में इस स्तर की शिक्षा तक पहुंचने के लिए कठिन हालात का सामना करना पड़ा है- और यह एक ऐसी बात है जिसे हम मौजूदा हालात व जनधारणा के बीच हलके में नहीं ले सकते। हमारी विविध पृष्ठभूमि, तजुर्बे और जिन सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक ढांचों का चाहते या न चाहते हुए भी हम हिस्सा हैं उनके बारे में हमारी समझदारी के कारण ही हम सब की कोई न कोई राय कायम है और हमारा एक विश्वदृष्टिकोण भी है। मैं पक्के तौर पर कह सकती हूं कि इस लोकतंत्र का नागरिक होने के नाते और ज़िम्मेदार व नैतिक कार्यप्रणाली की दरकार रखने वाले एक पेशे के शिक्षित अभ्यासी होने के नाते आपके साथ भी ऐसा ही होगा। आखिर आपने अपनी राय हमारे खिलाफ क्यों बना रखी है? छात्रावासों के अधिकतर छात्र हैदराबाद से बाहर के हैं और उनके माता-पिता व परिजन उनकी सुरक्षा को लेकर बेहद चिंतित हैं। कई बार उन्हें अपने परिवारों को यह समझाने में दिक्कत हो जाती है कि आखिर विश्वविद्यालय का प्रशासन ऐसी कार्रवाइयों पर क्यों उतर आया है- कई छात्र तो खुद ही इस बात को अब तक नहीं समझ सके हैं। मुझे नहीं लगता वे इस बर्ताव के अधिकारी हैं। कोई भी छात्र इसका अधिकारी नहीं है। कम से कम, लोकतंत्र के पहरुओं की तरफ से तो बिलकुल भी नहीं।
(प्रीति हैदराबाद विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं)