‘तीन तलाक’ की जंग तो जीत ली, पर हिंदू लड़कियों के अधिकारों की लड़ाई कब होगी ?


शीबा असलम फ़हमी

क्या नारी विमर्श करें ! 26 साल की एक शिक्षित भारतीय युवती हादिया वैवाहिक विज्ञापन से पति ढूंढती है, लेकिन परिवार, समाज, न्यायपालिका उसके इस फैसले को ‘आपराध’ बता रहे हैं क्योंकि महिला ने पहले अपनी मर्ज़ी से अपनी आस्था का चुनाव किया और फिर पति भी  !

भारतीय न्यायपालिका क़ानून की सभी किताबों को कूड़े के ढेर में फेंक कर हादिया को ‘संरक्षण’ देने पर तुला है। ‘इस्लाम से नाता जोड़ना’ सभी नागरिक अधिकारों से नाता तुड़वा देगा ये हादिया ने सोचा भी नहीं होगा। हादिया, अभिनेत्री सागरिका घटगे की तरह मशहूर नहीं हैं इसलिए असहाय है। न ही उसका चुनाव एक सेलिब्रिटी क्रिकेटर ज़हीर ख़ान की तरह मशहूर और धनी है, इसलिए उसको आईएसआईएस से जोड़ दिया जाना आसान है।

एक और भारतीय महिला हैं दीपिका पादुकोण। तीस पार की इस अभिनेत्री का शुमार सफलतम अभिनेत्रियों में होता है। एक किरदार निभाने पर उनकी नाक काटने से लेकर गला रेतने तक का राजपूती फ़रमान जारी हो गया। फरमान जारी करने वालों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। फिल्म में इनके किरदार पर एक ‘मुस्लिम किरदार’ का आसक्त होना ही इनका जुर्म है। दोनों मामलों में ये महिलाएँ शिक्षित, रोज़गारयुक्त और बालिग़ हैं, लेकिन संविधान और आधुनिकता इन्हे वो सब नहीं दे सकते जो इस दौर के साधारण अधिकार हैं।

जो समाज, न्यायपालिका और सरकार, मुस्लिम महिलाओं को मर्दों के अन्याय से बचाने पर अत्याधुनिक और न्यायप्रिय हो जाती है, वह हिन्दू महिलाओं के लिए इतनी ढपोरशंखी क्यों है ? क्या असल मुद्दा मुसलमान पुरुषों का खलनायकीकरण है?  क्या मक़सद सिर्फ पति/प्रेमी/पिता और समाज के रूप में मुसलमान पुरुषों को अपराधी साबित करना है ? अगर ऐसा है तब तो तीन तलाक़ पर जो लड़ाई मुस्लिम महिलाओं ने जीती वो भी अपनी चमक खो देती है। यानी क्या मुसलमान महिलाएँ अपने ही परिवार के सदस्यों के विरुद्ध इस्तेमाल हुईंं, तीन तलाक़ के मुद्दे को मुस्लिम समाज से बाहर ला कर ? तीन तलाक़ इंसानियत के विरुद्ध है और आपराधिक है, तो अपनी बालिग़ बेटियों के जीवन पर इस तरह हुक़ूमत करना, उनके अधिकारों को छीन लेना भी आपराधिक और पुरातनपंथी है !

2017 चल रहा है। नारी अधिकारों की तमाम क़ानूनी जंगें जीतने के बाद, भारत का बहुसंख्यक समाज मुस्लिम नफ़रत में उलटे पांव पंद्रहवीं सदी में लौट रहा है। जब हमें नारी अधिकारों के संघर्षों के विजय के क़िस्से लिखने थे तब हम हादिया और दीपिका पादुकोण को हिन्दू पितृसत्ता, और हिन्दू राष्ट्र-राज्य से बचाने में लग रहे हैं।

26 वर्षीय अखिला उर्फ़ हादिया को पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय पितृसत्ता ने एक साथ बंदी बनाया है। आस्था के चुनाव का इस्तेमाल करते हुए अखिला ने इस्लाम धर्म चुना, इस चुनाव के बाद उसने वैवाहिक विज्ञापन के ज़रिये पति चुना। ये स्वाभाविक ही था। उसका परिवार धर्म परिवर्तन पर कुछ नहीं बोल सका, तो उसके पति के चुनाव में लव-जिहाद की एंगल फिट कर रहा है.

वनिता पत्रिका के 21 साल सफलता पूर्वक पूरे हुए हैं। सोचा था नारीउत्थान पर, भारतीय महिला की इक्कीसवीं सदी की अब तक की उपलब्धियों पर इतराता हुआ लेख लिखूंगी। लेकिन अखिला और दीपिका की ख़बरों ने अब तक की क़ानूनी सफलताओं पर पानी फेर दिया है। तीन तलाक़ के विरुद्ध जीती हुई जंग बेमानी लग रही है। जब-तब साध्वी, स्वामी, संघ प्रमुख के बयान भी सामने आते रहते हैं कि हिन्दू महिलाएँ 4, 5 या 8 बेटे पैदा करें ! किसी क़स्बे में लड़कियां शपथ लेती हैं कि अब वो जीन्स नहीं पहनेंगी,  तो खाप पंचायत समर्थित महिलाएँ मोबाइल फ़ोन इस्तेमाल के लिए लड़कियों को रोकती है ! इस पर ये भी याद रहे की ‘जातिवादी बलात्कार’ और अत्याचार बढ़े हैं। हिन्दू महिलाओं के साथ जातिवादी बलात्कार और हिंसा की जघन्यतम घटनाएँ इसी इक्कीसवीं शताब्दी में सामने आई हैं! तो क्या इक्कीसवीं सदी हिन्दू महिलाओं को पितृसत्ता से बचाने के नाम वक़्फ़ करनी पड़ेगी?

दूसरी तरफ सरकार ने स्वास्थ्य और शिक्षा से खुद को बाहर कर लिया है जिसका सबसे बुरा असर महिलाओं की शिक्षा और स्वास्थ्य पर पड़ेगा। तमाम नयी आर्थिक नीतियों का शिकार युवा वर्ग हुआ है और महिलाएँ इसका आधा हिस्सा हैं। बेरोज़गारी, महंगी शिक्षा, श्रम क़ानूनों में ढील जैसी बातें सीधे तौर पर महिलाओं को प्रभावित कर रही हैं. सिर्फ एक ही क्षेत्र है जिसने महिलाओं की अनदेखी नहीं की और वो है उपभोक्ता वस्तुओं का बाज़ार। विज्ञान, तकनीक और बाजार के मिश्रण ने महिलाओं के लिए नित नए उत्पाद, यंत्र और राहत सामग्री का आविष्कार कर ज़िंदगी आसान बनाने के साधन पैदा किए। बाजार की प्रतिस्पर्धा ने उन्हें सस्ते दामों में उपलब्ध भी करवाया, लेकिन फिर भी ये आधुनिक राहतें वर्ग विशेष तक ही सीमित हैं.

पिछले सत्तर सालों में भारतीय महिलाओं ने अपने संघर्ष से अभूतपूर्व मुक़ाम हासिल किये हैं। वे खेलकूद, राजनीति, सामाजिक न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, आर्थिक क्षेत्र और नवीनतम विधाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। देश की जीडीपी में एक बड़ी वर्क-फ़ोर्स महिलाओं की है। खेतों-सड़कों-पहाड़ों और शहरी मज़दूर के तौर पर तो वो हमेशा से उपस्थित थी, लेकिन शीशेवाले गगनचुम्बी ऑफिस और ट्रेड चैम्बर्स में भी महिलाओं ने अब जनसँख्या अनुपात लगभग बराबर कर दिया है। इन सफलताओं को अर्जित करते हुए उसे सम्पूर्ण नागरिक और मानवीय अधिकार भी मिल गए होते तो क्या बात थी। बालिग़ महिला एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व है, ये बात अगर हिंदू परिवार, समाज, न्यायपालिका और राष्ट्र नहीं क़ुबूल कर पा रहा है तो अब तक हासिल ही क्या किया है ? वक़्त आ गया है की अब हम दोबारा कमर कस लें और हिन्दू महिलाओं को संरक्षणवाद से बचाने का संघर्ष शुरू करें, जैसा एक दशक पहले तीन तलाक़ और बहुविवाह पर किया था।

 

शीबा असलम फ़हमी, महिला विषयक टिप्‍पणियों के लिए ख्‍यात हैं। सामाजिक कार्यकर्ता, जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय से शोध।

 



 

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