“प्राइम टाइम का हर एक घंटा कश्मीर को भारत से एक मील दूर ले जाता है”…. कश्मीर के एक आला अफसर शाह फ़ैसल (जिन्होंने आईएएस परीक्षा में टॉप किया था) के ब्लॉग का यह वाक्य दिल्ली और एनसीआर में बैठे राष्ट्रीय मीडिया की कारगुज़ारी पर कड़ी टिप्पणी थी।
और सिर्फ़ तीन महीने बाद अब यह साफ़ हो गया है कि यह कथित मुख्यधारा का राष्ट्रवादी मीडिया कश्मीर का मोर्चा तेज़ी से हार रहा है। किसी पत्रकार के लिए इससे बुरी बात क्या होगी कि जनता उसकी नीयत पर भरोसा करना छोड़ दे। यह मान ले कि रिपोर्टर सच्चाई जानने नहीं, झूठ फैलाने के तयशुदा मिशन पर है
हालाँकि यह ख़बर न दिखाई जाएगी न छपेगी लेकिन हक़ीक़त यह है कि ऐसे मीडिया के लिए कश्मीरियों ने अपना दरवाज़ा बंद कर दिया है। उनके बीच का एक तबका दुश्मन मानकर लड़ने पर भी आमादा है। हाल ही में लास एजेंल्स टाइम्स के रिपोर्टर पार्थ एमएन को जिस परेशानी से गुज़रना पड़ा वह एक चेतावनी है। पार्थ ने कैच पर अपना अनुभव कुछ यूँ लिखा है–
“ मैं 14 अक्टूबर को श्रीनगर में था. उस दिन मैं अल-सुबह ही उठ गया था. मैं पिछले कुछ दिनों से यहीं हूं और श्रीनगर के लोगों से मिलता-मिलाता रहा. पूरा एक दिन मैंने साउथ कश्मीर के कुछ विस्फोटक इलाकों की पड़ताल में गुज़ारा. उस दिन मुझे उरी के लिए निकलना था ताकि यह देख सकूं कि लाइन ऑफ कन्ट्रोल के सीमाई क्षेत्रों में लोग क्या कर रहे हैं.
मैंने श्रीनगर के अपने पत्रकार दोस्त समीर यासीर को उनके घर से सुबह 8 बजे अपने साथ लिया और हम दोनों 110 किमी के सफ़र पर निकल गए. हम कार में थे और पुराने हिन्दी गानों का मज़ा लेने में डूबे थे. हवा में ठंडक का एहसास था. जब हम यहां से 30 किमी आगे डेलिना पहुंचे कि तभी एक बड़ा सा पत्थर हमारी कार के शीशे से आ टकराया. पत्थर उसी तरफ आकर लगा जिधर मैं बैठा हुआ था. मैं तो बच गया, पर खिड़की का शीशा चकनाचूर हो गया.
पत्थर से मुझे मेरे सीने पर चोट पहुंची और टूटे हुआ शीशा मेरे शरीर पर जगह-जगह धंस गया. मेरा बाएं हाथ पर शीशे के टुकड़े काफी गहरे से धंस गए जिसके कारण खून बहने लगा. हमने कुछ मीटर दूर आगे जाकर गाड़ी रोकी. समीर तुरन्त ही कार से कूदकर और उस लड़के की ओर दौड़ा जो पत्थर फेंककर भाग रहा था. मैं भी कार से बाहर निकला और शीशे के जो टुकड़े कार के भीतर थे, उन्हें उठाकर बाहर निकालने लगा. ड्राइवर ने पिछली सीट साफ की. इस बीच कुछ स्थानीय़ बाशिंदे वहां का हाल जानने के लिए आकर खड़े हो गए थे.
मैं पक्का नहीं कह सकता कि पत्थर फेंकने वाले लड़के ने गाड़ी पर ‘प्रेस’ लिखा स्टीकर देखा है लेकिन अगले ही पल जो कुछ हुआ, वह ज़्यादा हैरान कर देने वाला था. लोगों का समूह मेरी कार के आसपास खड़ा हो गया था मानों कि मैं इस ही लायक हूं. मुझे ज़ेहनीतौर पर चोट पहुंची. यह मेरे लिए पहला मौका था जब मुझे पत्थर लगा था. इसके पहले कभी भी मुझे पत्थरों का सामना नहीं करना पड़ा था.
भारतीय मीडिया प्रोपगंडा करता है
मैं वहीं खड़ा रह गया. यह सोच रहा था कि अगर कहीं यह पत्थर मेरे सिर पर आकर लग गया होता या शीशे के टुकड़े मेरी आंख में धंस गए होते तो क्या होता. मेरी बेचैनी और दुख देखकर आसपास खड़े लोगों को ख़ुशी का एहसास हो रहा था. यह उनके चेहरे से झलक रहा था. तभी एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने चेहरे पर बनावटी हंसी लाते हुए कहा, ‘भारतीय मीडिया हमारे खिलाफ प्रोपेगंडा करता है’.
कुछ देर के लिए मुझे उस अधेड़ पर हैरानी हुई क्योंकि उसका रवैया मुझे अंदर से परेशान कर रहा था जो ‘कश्मीरियत’ से मेल नहीं खाता था. वही कश्मीरियत जिसका तजुर्बा मुझे पिछले साल घाटी में एक हफ्ता रहने के दौरान हुआ था. अधेड़ के सुर में सुर मिलाते हुए एक नौजवान, जो शायद 20 साल के आसपास का होगा, ने बड़े फख्र से कहा, ‘हमने यहां पिछले कुछ दिनों में तीन मीडिया की गाड़ियां चूर-चूर कर दी हैं.’
मैंने कड़कदार आवाज में कहा, फिर क्या हुआ? मिल गई आजादी ? हालांकि, मैं यह महसूस कर रहा था कि इस समय मुझे यह बात नहीं कहनी चाहिए थी. इस नौजवान ने भी सभ्य तरीके से अपना गुस्सा जताया. उसने मेरी ओर देखते हुए मुझ पर और मीडिया पर भी आरोप लगाया कि भारतीय मीडिया उन पर राष्ट्रविरोधी होने की तोहमत लगा रहा है और हालात पहले से अधिक बदतर होते जा रहे हैं.
मैंने तुरन्त ही अपना प्रेस कार्ड निकाला और उससे कहा कि मैं ‘लॉस एंजिल्स टाइम्स’ के लिए काम करता हूं. भारतीय मीडिया का एक वर्ग क्या करता है, मैं उससे इत्तेफाक नहीं रखता. मैंने ‘भारतीय मीडिया का एक वर्ग’ वाक्य को एक बार फिर दोहराया. वह रुक गया और उसके चेहरे पर थोड़ा सुकून के भाव आ गए.
ठीक तभी समीर लौट आया. उसने बताया कि पत्थर फेंकने वाला वाला भाग निकला था. समीर ने चटका हुआ शीशा और मेरे हाथ पर घाव देखा तो उससे रहा न गया. उसने पत्थर फेंकने वाले लड़के के खिलाफ कुछ अशोभनीय शब्द कह दिए.
जिस युवा ने मेरे ऊपर तोहमत जड़ी थी, जब उसने समीर की बात सुनी तो उसमें और समीर दोनों में गरमागरम बहस हो गई. कुछ बुजुर्ग लोगों के समूह ने दोनों को अलग-अलग किया. मैं यह तो नहीं अंदाज लगा सका कि उन्होंने क्या कहा है क्योंकि वे कश्मीरी भाषा में बात कर रहे थे लेकिन एक व्यक्ति को ‘लॉस एंजिल्स’ कहते हुए कई बार सुना.
प्रेस को रोको
हम अपनी बिना खिड़की वाली कार में वापस आकर बैठ गए और आगे का सफ़र शुरू किया. मेरे ज़ेहन में शुजात बुखारी के वे लफ्ज़ कौंध गए जो उन्होंने कुछ दिन पहले कहे थे. ‘दि राइजिंग कश्मीर’ के सम्पादक शुजात ने कहा था, यहां के लोग राष्ट्रवाद का वही अफसाना सुनते हैं जिसका बखान टीवी स्टूडियो में बैठकर कुछ लोग करते हैं.
मानों कि मीडिया देश की भावनाओं की नुमाइंदगी करता हो. इसमें कोई शक़ नहीं कि मीडिया कश्मीरियों में अलगाववाद की भावना को और मजबूत करने की भूमिका निभा रहा है.
श्रीनगर के पत्रकारों का कहना है कि यहां के पत्रकारों के लिए रिपोर्टिंग करना बुहत ही खतरनाक और मुश्किल हो गया है. ‘कश्मीर रीडर’ से जुड़े एक पत्रकार मोअज्ज़म मोहम्मद कहते हैं कि कुछ हफ्तों पहले मेरे प्रेस कार्ड को एक गुस्साई भीड़ ने फाड़ डाला था. मेरे सम्पादक ने मुझे बचाया और प्रेस कार्ड को फिर से इकट्ठा किया.
बताते चलें कि हमने कुछ दिन पहले जब दक्षिणी कश्मीर के कुछ विस्फोटक इलाकों का दौरा किया था, तब समीर ने वहां गाड़ी पर से ‘प्रेस’ का स्टीकर हटा लिया था. समीर ने इसे तभी लगाया, जब हम श्रीनगर लौट आए.
बदलता वक़्त
मैं मई-2015 में घाटी में गया था. तब वहां हालात बिल्कुल शांतिपूर्ण थे. वैसे तो उनमें गुस्सा था, लेकिन सिर्फ़ भारत सरकार और सुरक्षा बलों के खिलाफ था. लेकिन इस बार तो सबके खिलाफ गुस्सा है. मीडिया भी उनकी नफ़रत की लिस्ट में अलग से जुड़ गया है.
प्रदर्शनकारियों से पैलेट्स के जरिए निपटा जाता है. प्रदर्शनों का जवाब पब्लिक सुरक्षा एक्ट लगाकर दिया जाता है. राज्य द्वारा इस विद्रोह और असंतोष से निपटने के कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं.
ऐसे माहौल में रहना जहां इंसाफ़ की कोई आहट न हो, और मीडिया के लोगों के लिए अपने विचार जायज न ठहरा पाना कि कश्मीरी क्या चाहते हैं, मोटे तौर पर घाव पर नमक छिड़कने का ही काम करेगा. इस तरह की स्थिति में कोई भी अर्नब गोस्वामी और बरखा दत्त के बीच बारीक भेद और अंतर नहीं देख सकता. जब गुस्सा और नाराजगी इतनी बढ़ गई हो कि गाड़ी से ‘प्रेस’ का स्टीकर भी हटाना पड़ जाए तो हालात बदतर होने के लिए काफ़ी हैं.
पार्थ का अनुभव बताता है कि अविश्वास कितना गहरा है। चैनलों पर उछलकूद करते या आग उगलते ऐंकरो को देख कर उनके ”महान राष्ट्रवादी” होने का भ्रम कुछ लोगों को हो सकता है ( यह धंधे के लिए निर्मित की जाने वाली छवि का भी मसला है) लेकिन क्या सचमुछ उन्हें अहसास है कि कश्मीर किस दौर से गुज़र रहा है और उनकी हरक़तें कितनी भारी पड़ सकती हैं। 11 अक्टूबर को ‘दि हिंदू’ में पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन की हालात पर एक गंभीर टिप्पणी छपी थी जिसका हिंदी अनुवाद जनपथ ब्लॉग पर छपा है। उन्होंने बताया है कि हालात पहले के मुक़ाबले कैसे अलग हैं। पढ़िये—-
आज़ादी के वक्त से ही कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद का विषय बना रहा है। देश की गुप्तचर और सुरक्षा सेवाओं का अहम काम यह रहा है कि वे कश्मीर में पाकिस्तान की गतिविधियों पर अपनी नज़र बनाए रखें। तीन नाकाम युद्धों और तमाम बार नाकाम हो चुके आतंकी हमलों के बावजूद पाकिस्तान अपनी राह से डिग नहीं सका है।
बीती 8 जुलाई को हुई एक मुठभेड़ में (कोकरगाग, अनंतनाग जिला) बुरहान वानी की मौत अतीत में हलके-फुलके उपद्रव को पैदा करती। ऐसे मामलों में पाकिस्तान की संलिप्तता को मानकर चला जाता था। इस बार हालांकि घाटी में जारी हिंसा का जो लंबा दौर चला है, उसे समझने के लिए ज़रा गहरे जाकर पड़ताल करनी होगी ताकि समझा जा सके कि इस हालात के लिए वास्तव में कौन से कारण जिम्मेदार हैं।
रोज़ाना हो रही हिंसा को सौ दिन पार कर चुके हैं, राज्य भर में कर्फ्यू को लगे सत्तर दिन से ज्यादा हो चुका है, मारे गए और ज़ख्मी लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है जिनमें सुरक्षाकर्मी भी शामिल हैं। ये सभी तथ्य एक असामान्य स्थिति की ओर इशारा करते हैं। अब तक कोई साक्ष्य सामने नहीं आया है जो बता सके कि इस हिंसा में लश्कर-ए-तैयबा या जैश-ए-मोहम्मद का हाथ है, हालांकि हिज्बुल मुजाहिदीन के काडर पर्याप्त संख्या में मौजूद हैं। हिंसक उपद्रवों में शामिल लोगों की भारी संख्या ऐसी है जो जिनकी मंशा और उद्देश्य के आधार पर कहा जा सकता है कि उनका इन संगठनों से कोई लेना-देना नहीं है। अधिकतर शिक्षित बेरोज़गार युवा हैं। कुछ तो बमुश्किल दस या बारह साल के हैं।
वर्तमान हिंसा में संलिप्त ऐसे लोग जिनका आतंकवादियों से कोई संबंध नहीं, एक नई परिघटना है और अतीत के ‘विदेशी’ आतंकवादियों से तो यह बिलकुल अलहदा बात है। कश्मीर को 1988 के बाद से विदेशी आतंकियों की मौजूदगी और हिंसा भड़काने में उनकी संलिप्तता की आदत पड़ चुकी थी। अस्सी के दशक में हुए ‘अफ़गान जिहाद’ का यहां चमत्कारिक असर पड़ा था जिससे नब्बे के दशक में कश्मीर में हुए उपद्रवों को काफी प्रेरणा भी मिली थी। अफ़गानिस्तान की जंग धीमी पड़ी, तो कश्मीर में काम कर रहे एलईटी और कई अन्य मॉड्यूलों में अफ़गानिस्तान होकर वापस आए जिहादी भी शामिल रहे।
विदेशी आतंकियों के समानांतर सक्रिय हिज्बुल मुजाहिदीन के सदस्य अपेक्षाकृत ज्यादा देसी थे हालांकि उनकी प्रेरणा और सहयोग का स्रोत भी पाकिस्तान ही था। हिज्बुल मुजाहिदीन आतंक की जिस संस्कृति का वाहक था, वह स्थानीय कश्मीरी युवकों की महत्वाकांक्षाओं से ज्यादा करीब जाकर जुड़ती थी। सदी के अंत तक हिज्बुल दूसरे पाकिस्तानी संगठनों के मुकाबले कमज़ोर पड़ गया, हालांकि मौजूदगी उसकी बनी रही।
सुरक्षाबलों ने विदेशी आतंकियों को काबू में करने के लिए कठोर कार्रवाई की, साथ ही कश्मीरी युवकों और यहां तक कि हिज्बुल के कुछ तत्वों तक उसने अपनी पहुंच बनायी और उन्हें समझौते की मेज़ तक लाने की कोशिश की। 1988 के बाद हर प्रधानमंत्री ने, खासकर अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान की ओर दोस्ती का हाथ यही सोचकर बढ़ाया कि इससे घाटी में संकट पैदा करने की उसकी क्षमता थोड़ी कम हो सके। इसके नतीजे मिश्रित आए, लेकिन इतना श्रेय तो जाता है कि इनके चलते हालात काबू से बाहर नहीं गए। कश्मीरी युवकों तक पहुंच बनाने के कारण बेहतर नतीजे देखने को मिले। बड़ी संख्या ऐसे युवाओं की रही जो रोजगार के बेहतर अवसरों, आर्थिक लाभ और बेहतर संचार सुविधाओं इत्यादि की ओर देखने लगे थे।
घाटी में मौजूदा उथल-पुथल को अतीत में आए संकटों के विस्तार के रूप में बरतना बहुत सरलीकरण होगा। यहां 2013 के अंत से ही माहौल में बदलाव दिखने लगा था। इस पर नज़र नहीं गई। अब भी, जबकि घाटी में हालात असामान्य हैं (कई हफ्तों से कर्फ्यू, मीडिया पर प्रतिबंध, सड़क पर हिंसा का अचानक उभर आना), सतह के नीचे चल रही हलचल को समझने का कोई सार्थ प्रयास नहीं किया गया है। कुछ लोग ऐसा सोच रहे हैं कि कश्मीर के संकटग्रस्त इतिहास में यह एक खतरनाक निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है।
बहुत दिन तक इसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। बुरहान वानी कौन था?हिज्बुल ने उसे शहीद के रूप में कैसे देखा (जबकि हाल ही में उसे इस संगठन ने अपने साथ जोड़ा था)? ज्यादा अहम यह है कि आखिर उसके कद की तुलना चे ग्वारा के साथ कैसे की जा रही है? इतने कम समय में इतना बड़ा बदलाव कश्मीर के हिंसा के इतिहास में पहले तो कभी नहीं हुआ था। इसीलिए दिल्ली और श्रीनगर के पास परेशान होने की जायज़ वजह है कि कहीं यह स्थिति कश्मीर के तीन दशक पुराने उग्रवाद में एक नया बदलावकारी मोड़ तो नहीं है?
संघर्ष का चरित्र भी बदला है और इसके कारणों की भी गहरी पड़ताल होनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि अफ़वाहों ने यहां हिंसक आंदोलन की शक्ल ले ली हो। बुरहान वानी की हत्या पर उभरा जनाक्रोश सभी के लिए चिंता का विषय होना चाहिए- नेताओं, अधिकारियों, सुरक्षा प्रतिष्ठान और यहां तक कि आम लोगों के लिए भी। आज ऐसा आभास होता है कि इस आंदोलन का कोई घोषित नेता नहीं है और यह अपने दम पर आगे बढ़ा जा रहा है।
इतिहास के छात्रों को इसमें 1968 के प्राग की छवि देखने को मिल सकती है, लेकिन अधिकारियों को यहां एक ऐसी स्थिति से निपटने के तरीके खोजने होंगे जब ‘स्वयं स्फूर्त’ हिंसा सत्ता के हर एक प्रतीक को अपना निशाना बनाती हो और उसके पीछे न तो अलगाववादी हैं और न ही पाकिस्तान। यही बात 2016 और 2008, 2010 व 2013 के बीच फ़र्क पैदा करती है। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का यह बयान उनके संभावित पूर्वज्ञान को पुष्ट करता है कि ”बुरहान सोशल मीडिया पर जो कुछ भी कर सकता था, उससे कहीं ज्यादा उसकी क्षमता कब्रगाहों से आतंकियों को खींच लाने में थी।”
कश्मीर के मौजूदा उभार को समझने के लिए रोज़मर्रा वाली दलीलें अब काम नहीं आएंगी, बल्कि उनका उलटा असर हो सकता है। सुरक्षाबलों द्वारा किए गए उत्पीड़न के खिलाफ़ कश्मीरी युवाओं में जम चुकी नफ़रत व संदेह को लेकर सहानुभूति जताने या फिर हालात के लिए दिल्ली की समझदारी को जिम्मेदार ठहराने से बुरहान वानी वाली परिघटना का अंत नहीं हो जाएगा। इसके लिए आप गलती से युवाओं की नई शिक्षित पीढ़ी को भी जिम्मेदार मत ठहराइए यह कह कर कि वह ‘भारत से आज़ादी’ के लिए सोशल मीडिया का दोहन कर रहा है। बुनियादी कारण ज्यादा गहरे हैं। वानी के जनाज़े में दो लाख से ज्यादा लोगों की मौजूदगी का एक संतोषजनक जवाब चाहिए।
इस स्थिति को समझने के लिए सबसे पहले यह मान लेना ज़रूरी होगा कि कश्मीर में अतीत में पैछा हुए संकट से उलट मौजूदा आंदोलन विशुद्ध घरेलू है। कई छोटे-छोटे उभारों की स्वयं स्फूर्तता पहले के उभारों से अलग समझदारी की मांग करती है क्योंकि इसमें कश्मीरी युवाओं की एक समूची पीढ़ी के अलगाव की बू आ रही है जो मौजूदा परिस्थितियों से नाराज़ है। अपने आक्रोश के चलते कई युवा तो खुदकुशी तक करने को तैयार हैं।
‘इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत’ जैसे जुमले दुहराने भर से या फिर संविधान के अनुच्छेद 370 के प्रति हमारी वचनबद्धता को दुहराने, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (आफ्सपा) को हटाने और विकास सहयोग की अतिरिक्त खुराक का प्रावधान कर देने भर से आक्रोशित पीढ़ी को संबोधित नहीं किया जा सकेगा। गोलमेज वार्ताओं, कार्यसमूहों की बैठकों या वार्ताकारों के समूह (2007-11) की सिफारिशों और प्रस्तावों से भी काम नहीं चलेगा (हालांकि उन पर अगर वक्त रहते अमल किया गया होता तो ये हालात नहीं बनते)। अलगाववादी नेताओं से बात करना आकर्षक होगा, लेकिन आज के संदर्भ में वे अप्रासंगिक हैं और बग़ावत कर रही युवा पीढ़ी के साथ उनका जुड़ाव नहीं है।
यह लड़ाई अब कश्मीरी युवाओं के दिमाग में घर करती जा रही है। लश्कर, जैश या हिज्बुल के खिलाफ़ अपनाए गए बलप्रयोग के तरीकों को आज 10 से 12 साल के स्कूली बच्चों पर आज़माना भावनाओं को और भड़काने का काम करेगा। भारत ने विदेशी आतंकियों और पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के खिलाफ जंग जीत ली है लेकिन आज उसके सामने कहीं ज्यादा गंभीर समस्या कश्मीर के युवाओं का दिल जीतने की है, इससे पहले कि एक समूची पीढ़ी ही भारत से खुद को अलग मान बैठे। यह सबसे भयावह आशंका है।
मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती और उनके मौजूदा सलाहकार बमुश्किल ही ऐसी स्थिति में हैं कि वे मौजूदा हालात से निपट सकें, न ही उनके पास इसके लिए पर्याप्त बौद्धिक क्षमता व सियासी समझदारी है। दिल्ली भी कश्मीर की धरती की सतह के नीचे हो रहे बदलाव को पढ़ पाने व उससे निपट पाने की स्थिति में नहीं दिखती। इसीलिए, अब ज़रूरी हो गया है कि रणनीतिक चिंतकों व नेताओं के अलावा समाज वैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों से भी सहयोग लिया जाए ताकि वे इस हालात को संभालने के नए और ताज़ा नुस्खे लेकर सामने आ सकें।
.वाक़ई स्थिति बेहद जटिल है। न्यूज़रूम के शाखामृगों से इसकी संवेदनशीलता को समझने की उम्मीद करना बेमानी है।
(यह पोस्ट थोड़ी लंबी है, लेकिन हिंदी पाठकों की ज़रूरत को देखते हुए लेख अविकल छापे गये हैं–संपादक।)