मीडियाविजिल डेस्क / साभार The Caravan
सीबीआई जज बी एच लोया की मौत के संबंध में द कारवां की कवरेज के बाद इंडियन एक्सप्रेस और एनडीटीवी की रिपोर्ट पढ़ने के बाद यह साफ़ हुआ था कि दोनों ही रिपोर्टें एक ही किस्म के दस्तावेज़ और स्रोतों पर आधारित थीं। एक अन्य प्रकाशन में संपादक ने द कारवां को बताया कि उनके पास भी ऐसे ही दस्तावेज़ और स्रोत भिजवाए गए थे।
पत्रकारिता के दो स्तंभों के बीच फंस गई जज लोया की लाश, गहराते जा रहे हैं सवाल
एनडीटीवी और इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्टें न केवल गलत तारीख वाली ईसीजी रिपोर्ट पर पूरा भरोसा करते हुए निष्कर्ष देती हैं कि लोया की मौत में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था, बल्कि वे अपनी कवरेज को वे ज्यादा से ज्यादा बॉम्बे हाइकोर्ट के दो सेवारत जजों के बयानात पर आधारित करती हैं जो खुद सामने आए (दि इंडियन एक्सप्रेस ने जस्टिस गवई और जस्टिस शुक्रे को उद्धृत किया जबकि एनडीटीवी ने अकेले जस्टिस गवई को)। दोनों ही जजों का कहना था कि वे वे लोया को मेडिट्रिना पहुंचाए जाने के बाद वहां पहुंचे थे और इनमें से कोई भी यह दावा नहीं करता कि वह रवि भवन में मौजूद था जहां लोया ने सबसे पहले सीने में अचानक उठे दर्द की शिकायत की थी, और दोनों ही दांडे अस्पताल में होने की बात भी नहीं कहते।
सुप्रीम कोर्ट ने देश में सभी सेवारत जजों के लिए एक आचार संहिता बनाई है जिसका नाम है रीस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज़ ऑफ जुडिशियल लाइफ। इस संहिता का आठवां बिंदु कहता है कि ”एक जज को सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बनहीं बनना चाहिए और न ही सार्वजनिक रूप से राजनीतिक या अन्य ऐसे किसी मसले पर अपनी राय नहीं देनी चाहिए जो न्यायाधीन हो या फिर न्यायिक निर्णय के लिए जिसे आने की गुंजाइश हो।” नौवां बिंदु कहता है, ”माना जाता है कि एक जज अपने फैसलों से ही बोलेगा। उसे मीडिया को इंटरव्यू नहीं देना चाहिए।” उच्च न्यायपालिका के दो सदस्यों द्वारा एक सहोदर जज की मौत से जुड़े सवालों के अपवाद मामले में संहिता का उल्लंघन फिर भी समझा जा सकता है लेकिन यह संहिता मीडिया के लिए भी एक दिशानिर्देश का काम करती है, यही वजह है कि रिपोर्टर आम तौर से सेवारत जजों की प्रतिक्रियाएं नहीं लेते हैं। इस मामले में न तो एनडीटीवी और न ही इंडियन एक्सप्रेस ने यह साफ किया कि क्या जज खुद उनके पास चलकर आए थे या वे चलकर जजों के पास प्रतिक्रिया लेने गए थे। इस बारे में भी नहीं बताया गया कि इन जजों के इंटरव्यू कैसे लिए गए।
मीडिया केंद्रित वेबसाइट द हूट ने रिपोर्ट किया कि जस्टिस गवई ने ”अपने चैम्बर में एक प्रेस मीट बुलाई थी कोर्ट कवर करने वाले पत्रकारों को यह बताने के लिए कि दिसंबर 2014 में जस्टिस लोया की हुई मौत में कुछ भी संदिग्ध नहीं था।” रिपोर्ट कहती है, ”द हूट ने बॉम्बे हाइकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डॉ. मंजुला चेल्लूर से यह जानने की कोशिश की कि क्या उन्हें ऐसी प्रेस मीट के बारे में कोई जानकारी है और उन्होंने क्या इसकी अनुमति दी थी। उन्होंने इसका जवाब देने से इनकार कर दिया। उनके कार्यालय की ओर से पहले बताया गया था कि चीफ जस्टिस परंपरा के चलते मीडिया से संवाद नहीं करती हैं।”
जस्टिस गवई और जस्टिस शुक्रे में मीडिया से बात करने के अचानक उपजे उत्साह को देखते हुए हमने भी उनसे बात करने की कोशिश की। कई बार कोशिशों के बावजूद हम जस्टिस शुक्रे से संपर्क नहीं कर पाए। जस्टिठस गवई के ऑफिस में कॉल करने पर उनके सचिव ने हमें बताया, ”वे जो चाहते हैं मीडिया के सामने पहले ही बोल चुके हैं” और हमसे बात नहीं करेंगे।
सूचना प्रौद्योगिकी कानून 2010 के अंतर्गत आधिकारिक नियम ”संवेदनशील निजी विवरण या सूचना” के प्रकाशन को प्रतिबंधित करते हैं जिसमें एक व्यक्ति का मेडिकल रिकॉर्ड भी आता है। नियम यह भी कहता है, ”किसी कॉरपोरेट निकाय द्वारा किसी तीसरे पख को संवेदनशील निजी विवरण या सूचना का उद्घाटन ऐसी सूचना के प्रदाता द्वारा पूर्व मंजूरी की मांग करता है।” मेडिकल रिकॉर्ड के मामले में मंजूरी देने वाला मरीज़ होता है। सरकारी एजेंसी लिखित अनुरोध के आधार पर ही ऐसी सूचना प्रदाता की सहमति के बगैर प्राप्त कर सकती है। इस अनुरोध के संबंध में नियम कहता है, ”सरकारी एजेंसी को बताना होगा कि इस तरह प्रापत सूचना को किसी और व्यक्ति के साथ साझा नहीं कियाजाएगा और प्रकाशित नहीं किया जाएगा।” बॉम्बे हाइकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता मिहिर देसाई ने हमें बताया कि दांडे अस्पताल का कथित रूप से जारी किया ईसीजी चार्ट संवेदनशील निजी सूचना की श्रेणी में आता है। उन्होंने कहा, ”तो बिना मरीज़ की अनुमति के आप कुछ भी छाप नहीं सकते। मरीज़ की अगर मौत हो गई तो आपको उसके परिवार से मंजूरी लेनी होगी।” ध्यान दें कि इंडियन एक्सप्रेस ने ईसीजी चार्ट के प्रकाशन के ही दिन एक दूसरी स्टोरी में बताया था कि लोया परिवार के किसी भी सदस्य से उसका संपर्क नहीं हो सका है।
यह जानने के लिए कि इंडियन एक्सप्रेस ने कैसे वह सरकारी और गोपनीय सामग्री हासिल की जिनमें विसंगतियां मौजूद थीं और कैसे उसने उन आधिकारिक सूत्रों तक पहुंच बनाई जिन्होंने प्रतिक्रिया देने के क्रम में न्यायिक प्रोटोकॉल को ही तोड़ डाला, हमने अखबर से संपर्क साधा। अखबार के प्रमुख संपादक ने हमसे कहा, ”मैं इस पर चर्चा नहीं करता कि हम कोई स्टोरी कैसे करते हैं। स्टोरी अखबार में छप चुकी है। हमें एक भी लाइन कम या ज्यादा नहीं जोड़नी।”
एनडीटीवी के प्रबंध संपादक को निम्न सवाल भेजे गए, जिनका जवाब अब तक नहीं आया है:
- आपने जस्टिस भूषण गवई को उद्धृत करते हुए एक रिपोर्ट चलाई थी। क्या रिपोर्टर ने उनसे संपर्क किया था या फिर उन्होंने खुद रिपोर्टर से संपर्क किया?
- न्यायिक आचार संहिता पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनाए गए संकल्पपत्र का जज ने उल्लंघन किया है। क्या आपने पता किया था कि उन्होंने ऐसा करते वक्त मंजूरी ली थी या नहीं?
- द हूट के अनुसार जस्टिस गवई ने इस मसले पर अपने चैम्बर में पत्रकारों की एक बैठक रखी थी। क्या एनडीटीवी का रिपोर्टर इस ब्रीफिंग में गया था? यदि हां, तो यह बात रिपोर्ट का हिस्सा क्यों नहीं थी?
- जस्टिस गवई के बयान के मुताबिक वे लोया की मौत के बाद अस्पताल पहुंचे थे- इसके पहले का वे एनडीटीवी को जो कुछ भी बताते हैं वह उनका सुना हुआ है। क्या आपने ऐसी सूचना को प्रकाशित करने से पहले उसकी जांच का कोई प्रयास किया?
अमित शाह ने 2 दिसंबर को टाइम्स नाउ पर एक साक्षात्कार दिया। लोया की मौत से जुड़ा सवाल पूछे जाने पर उन्होंने कहा, ”यह सारा मामला मीडिया के एक तबके का उठाया हुआ है। इसके बाद मीडिया के दूसरे तबके ने उसका जवाब दे दिया। आपको उसे भी पढ़ना चाहिए- वह एक मुकम्मल जांच है।”
कुछ दिन बाद आजतक ने अमित शाह को क सार्वजनिक कार्यक्रम में दिखाया जहां जनता ने उनसे सवाल पूछे। फिर से लोया की मौत से जुड़ा सवाल आने पर शाह ने कहा, ”मुझे बस इतना कहना है कि कारवा पत्रिका ने एक स्टोरी छापी है और इंडियन एक्सप्रेस ने भी एक स्टोरी छापी है। जिस किसी को संदेह हो, उसे तथ्यों को देखना चाहिए। मुझे उम्मीद है कि आपने इंडियन एक्सप्रेस की स्टोरी भी पढ़ी होगी। अगर आपने उसका भी जि़क्र किया होता तो आप ज्यादा तटस्थ जान पड़ते।”