मूल सवाल के जवाब नहीं है तो कुछ भावुक मुद्दे लाइये
रवीश कुमार
महेश व्यास का कहना है कि भारत एक साल में पांच लाख भी नौकरियां पैदा नहीं कर पा रहा है, एक करोड़ या दो करोड़ की बात तो छोड़ ही दीजिए। लेबर मार्केट में नौकरियां नहीं हैं, इस कारण जिसकी नौकरी जा रही है वो लेबर मार्केट से बाहर हो जा रहा है। भारत सरकार का लेबर ब्यूरो भी हर तिमाही सर्वे करता है। 2016 में इसने दस हज़ार परिवारों के सैंपल से सर्वे किया है। लेबर ब्यूरो के चौथे सर्वे के अनुसार जनवरी 2017 के क्वार्टर में आठ सेक्टरों में नौकरियां बढ़ी हैं। 1 अक्तूबर 2016 के क्वार्टर की तुलना में। कितनी बढ़ी हैं वो देख लीजिए।
मात्र 1, 22,000 नौकरियां ही बढ़ीं। आठ सेक्टर हैं, मैन्यूफैक्चरिंग में 83,000, ट्रेड सेक्टर में 8000, ट्रांसपोर्ट में 1000, आई टी और बीपीओ में मात्र 12,000 नौकरियां बढ़ीं, हेल्थ में दो हज़ार और शिक्षा में 18,000 नौकरियां बढ़ी हैं। गैर कृषि क्षेत्र के इन आठ महत्वपूर्ण सेक्टर में मात्र सवा लाख नौकरियां बढ़ी हैं। आटे में नमक के बराबर है। इसके पहले की तिमाई में 32,000 और 77,000 नौकरियां बढ़ी थीं। 1 अप्रैल 2016 से लेकर 1 जनवरी 2017 के बीच मात्र 2, 31,000 नौकरियां बढ़ी हैं। यानी रोज़गार में मात्र 1.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। स्वदेशी जागरण मंच ने भी 22 मई को गुवाहाटी से आंकड़े जारी किये हैं कि नौकरियां मात्र 1 प्रतिशत बढ़ी हैं।
क्या आपको सरकार के किसी मंत्री ने ट्वीट करके बताया है कि हम नौकरियां नहीं बढ़ा पा रहे हैं? क्या आपको मंत्रियों ने अपने मंत्रालयों का हिसाब दिया कि उनके मंत्रालय में कितनी नौकरियां निकली हैं? सभी मंत्री टीवी शो में आकर जनरल बात करते हैं कि इतने करोड़ मुद्रा लोन दिये हैं तो नौकरियां बढ़ी हैं। सभी बैंक के पास रिकार्ड तो होगा कि किसे मुद्रा लोन दिया है, उसी से पूछ कर बता दीजिए कि लोन वाले हर व्यक्ति या उद्यम में कितनों को रोज़गार या नौकरी दी है, स्थायी या अस्थायी नौकरी दी है। इसका कोई एप नहीं बन सकता था क्या।
22 मई को केंद्रीय कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी ने प्रेस कांफ्रेंस कर दावा किया कि उनका मंत्रालय अगले तीन साल में एक करोड़ रोज़गार पैदा करेगा। यही दावा पिछले साल किया गया था मई 2016 में। जब केंद्रीय मंत्रिमंडल ने कपड़ा सेक्टर को 6000 करोड़ के पैकेज देने का फैसला किया था और कहा था कि अगले तीन साल में एक करोड़ रोज़गार का सृजन होगा। एक साल बीत गया तो कोई हिसाब नहीं, अब एक साल बाद कह रही हैं कि अगले तीन साल में एक करोड़ नौकरियां होंगी। यानी हर साल 30 लाख के करीब। कपड़ा कारखानों में भयंकर आटोमेशन हो रहा है। रोबोटीकरण। इसके कारण वहां अब रोज़गार का पहले जैसा सृजन नहीं है।
23 मई 2017 के फाइनेंशियल एक्सप्रेस में सुनील जैन ने एक लेख लिखा है। इसका शीर्षक है महान आर्किटेक्ट प्लंबिंग की समस्याएं फिक्स कर रहा है। उनका इशारा प्रधानमंत्री की तरफ है। सुनील जैन ने लिखा है कि पिछले कई हफ्तों में मैंने प्रधानमंत्री की नीतियों की तारीफ़ में कई कॉलम लिखे हैं, लगता है उन कॉलम को फिर से लिखने का वक्त आ गया है। यानी जो उम्मीद जताई गई थी, वो सही साबित नहीं होती दिख रही है। इस लेख के कुछ अंश का अनुवाद पेश कर रहा हूं।
2014 में जीडीपी में निवेश की हिस्सेदारी 31.2 प्रतिशत थी, तीन साल बाद 26.9 प्रतिशत है। निवेश में करीब चार फीसदी की गिरावट है। 2014 की तुलना में जीडीपी ग्रोथ भी आंशिक रूप से ही अधिक है। यानी मामूली वृद्धि हुई है। सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की बेकार कंपनियों के विनिवेश से ही सरकार बैंकों के एन पी ए यानी नान परफार्मिंग एसेट के बोझ को हल्का कर सकती है मगर मोदी राहुल गांधी के खौफ से ऐसा नहीं कर रहे हैं क्योंकि उन पर सूट बूट की सरकार का लेवल न चिपका दें। सुनील का यह अजीब तर्क है। सरकार जिस राहुल गांधी को सबसे हल्का चुनौती समझती है, उनकी वजह से इतना बड़ा फैसला टाल सकती है। यह भी हो सकता है कि सरकार के पास कोई आइडिया ही न हो।
इस लेख के मुताबिक बैंकों के पास अब कर्ज देने की क्षमता नहीं है। रिज़र्व बैंक ने भी नियम कड़े कर दिये हैं। जिसके कारण बैंकों में जमा राशि बढ़ने से बैंक कमज़ोर होते जा रहे हैं। आप जानते हैं कि बैंकों की असली कमाई कर्ज़ और ब्याज़ से होती है। जनवरी से लेकर दिसबंर 2016 के दौरान सार्वजनिक क्षेत्रों की लेंडिंग( कर्ज़ देने की क्षमता) में 8 प्रतिशत की ही वृद्धी हुई, लेकिन डिपोज़िट में 70 प्रतिशत की वृद्धि हो गई।
सुनील जैन की आलोचना है कि जेटली जीएसटी की दरों को और भी कम करने का प्रयास कर सकते थे। प्रधानमंत्री मोदी अपने राजनीतिक वज़न का इस्तमाल कर राज्यों को कम दरों के लिए तैयार कर सकते थे जिससे मांग में वृद्धि होती। यूपीए के दौर में नीतियों में ठहराव या आलस्य को लेकर कुछ ज़्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया। इसे अंग्रेज़ी में पॉलिसी परालिसिस कहते हैं। जब जीडीपी का डेटा रिवाइज़ हुआ तब पता चला कि 2014 के वित्त वर्ष में इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन 3.4 फीसदी बढ़ा था। जबकि डेटा रिवाइज़ होने से पहले यह निगेटिव दिखाया जा रहा था। कहा जाता था कि यूपीए के समय प्रोजेक्ट लटके पड़े हैं। अटके प्रोजेक्ट की संख्या मोदी सरकार के वक्त भी बहुत ज़्यादा है। निवेश अपने निम्नतम स्तर पर है, नौकरियों का सृजन नहीं है इसलिए विदेशी निवेशों के आंकड़ों को पेश किया जा रहा है ताकि लगे कि निवेश का बेहतर माहौल है।
इस दौर में राजनीतिक ख़बरों से ज़्यादा बिजनेस की ख़बरों को ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि सरकार का किसी सेक्टर में प्रदर्शन बेहतर नहीं है। यह सोचना बिल्कुल ग़लत होगा। लेकिन निवेश और रोज़गार सृजन के मामले में अभी वो कुछ भी दावे के साथ बताने की स्थिति में नहीं दिख रही है।
बिजनेस स्टैंडर्ड में शाइनी जेकब और श्रेया राय ने ऊर्जा सेक्टर की समीक्षा की है। इसमें बताया गया है कि मोदी सरकार की ऊर्जा नीतियां सही ट्रैक पर हैं, मगर इन्हें अभी विजेता घोषित नहीं किया जा सकता है। उज्ज्वला योजना के तहत 2 करोड़ 20 लाख गैस सिलिंडर के कनेक्शन दिये गए हैं। जो एक रिकार्ड कामयाबी है। इसके लिए सरकार प्रति परिवार 1800 रुपये की सब्सिडी भी दे रही है। सरकार ने उज्जवला और दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना को बजट की कमी नहीं होने दी है।
सरकार ने दावा किया था कि जब ढाई करोड़ कनेक्शन दिये जायेंगे तो एक लाख रोज़गार पैदा होगा। कैसा रोज़गार और कितने के पगार वाला रोज़गार पैदा होगा यह कोई नहीं बताता। इसके लिए सब जॉब शब्द का ही इस्तमाल करते हैं। तो कम से कम सरकार इस मामले में विश्वसनीय आंकड़े तो पेश कर ही सकती थी कि एक लाख रोज़गार कहां पैदा हुआ और वो रोज़गार सृजन के घटते आंकड़ों में क्यों नहीं जुड़ पा रहा है।
आप जानते हैं कि सरकार ने लोगों से गैस की सब्सिडी छोड़ने की अपील की थी। इसे बड़ी कामयाबी के रूप में पेश किया गया और दावा किया गया कि 21,000 करोड़ की सब्सिडी बची है। सीएजी की रिपोर्ट में इस पर सवाल उठाया गया है। कहा गया है कि मात्र 1,764 करोड़ की सब्सिडी बची है। शेष 21,552 करोड़ की बचत गैस की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में गिरावट के कारण हुई है। सीएजी की रिपोर्ट के बाद भी मंत्री दावा कर रहे हैं कि 21,000 करोड़ की सब्सिडी बची है। कीमत और सब्सिडी में फर्क है कि नहीं।
अंग्रेज़ी के इन तीन लेखों का अनुवाद हिन्दी में किया है। पहले भी कस्बा पर कई लेख लिखे हैं। हिन्दी के पाठकों और हम जैसे पत्रकारों के लिए ज़रूरी है कि आर्थिक नीतियों की बाज़ीगरी को समझें। हिन्दी के अख़बार वाकई कूड़ा हैं। इनमें चापलूसी के अलावा कुछ नहीं होता है। मैंने हिन्दी के कई अख़बारों को बंद कर दिया है। आर्थिक सवालों को पकड़ना सीखिये वर्ना भावुक सवालों में भटकते रह जाएंगे और वक्त निकल जाएगा। कब तक न्यूज़ चैनलों का कॉलर पकड़ कर भावुक मुद्दों की तरफ़ मोड़ा जाता रहेगा या चैनलों के कान्क्लेव में हल्के फुल्के सवाल पूछे जायेंगे। आप ग़ौर से देखिये ऐसे आयोजनों को। बनावटी सवालों के दम पर पत्रकार खुद को शेर घोषित कर रहे हैं कि ये पूछ लिया, वहां घेर लिया। मंत्री आराम से हंसते हुए निकल आते हैं। एक तो जवाब नहीं देते दूसरा जवाब के नाम पर भाषण बहुत देते हैं।
कथावाचन से बचिये। आप सरकार से कथा नहीं सुन रहे हैं। उसके लिए एक से एक बाबा लोग हैं। वहां जाइये सुनने।
(लेखक मशहूर टी.वी पत्रकार हैं। यह लेख उनके ब्लॉग नई सड़क से साभार प्रकाशित)