यह ख़बर, प्रभात ख़बर में छपी है। राँची के वरिष्ठ (?) सेवाददाता ने लिखी है। यह ख़बर बताती है कि हिंदी पत्रकारिता किस तरह हिंदी भाषियों का दुर्भाग्य बनी हुई है। इस ख़बर को पढ़कर लखनऊ निवासी, पूर्व बैंक अफ़सर और स्वतंत्र टिप्पणीकार बिभाष कुमार श्रीवास्तव कुछ खरी-खरी सुना रहे हैं – संपादक
बिभाष कुमार श्रीवास्तव
मौसम पर शुरुआती पाठों में, जो हमें मिडिल क्लास की किसी कक्षा में पढ़ाया जाता है, बताया जाता है कि जाड़े में थार के रेगिस्तान के ऊपर जब हवा का दबाव बढ़ता है तो पछुआ हवाएँ चलती हैं। यह हवाएँ उत्तर भारत में दिसम्बर के अंत से चलना शुरू होती हैं। ये हवाएँ सूखी होती हैं और पूरब की ओर बढ़ते हुए ज़मीन की नमी को उठाते-उड़ाते हुए समुद्र की ओर बढ़ती हैं। यह हवाएँ तब तक बहती हैं जब तक कि सूर्य कर्क रेखा के ऊपर नहीं आ जाता। कर्क रेखा तक सूर्य के आते आते ज़मीन पर तपन अपने चरम पर होती है। थार का रेगिस्तान लावा की तरह जलने लगता है। दो लाख वर्ग किमी के क्षेत्रफल पर फैले हुए थार के रेगिस्तान का पचासी प्रतिशत हिंदुस्तान में और पन्द्रह प्रतिशत पाकिस्तान में पड़ता है। तपते हुए इस रेगिस्तान पर हवा का कम दबाव बनता है जो समुद्र के ऊपर से पूरब से हवाओं को अपनी ओर खींचता है। ये हवाएँ अपने साथ समुद्र की नमी को साथ लाती हैं जो बादल बन कर लम्बे चौड़े भूभाग पर बरसती हैं। इसे ही मानसून कहते हैं। भूगोल और मौसम वैज्ञानिक बताएँगे कि अगर थार का रेगिस्तान न तपे तो बारिश होगी ही नहीं। अगर तपन ज्यादा है तो आशा बनती है कि बारिश ज्यादा होगी। तो यह थार रेगिस्तान जो कि ज़्यादातर हिंदुस्तान में है तप रहा है तो आशा बनती है। बंगाल में पाँच साल पहले थार को हरा-भरा बनाने के अभियान के विरोध में एक जागरुकता कार्यक्रम भी चलाया गया था।
तो हिंदी पट्टी वालो सावधान हो जाइए, यह आपको बेवक़ूफ़ बनाने का अभियान है। जिस अख़बार ने यह समाचार दिया है उसने यह नहीं लिखा कि इस बार विक्रम संवत कैलेंडर के अनुसार जेष्ठ माह का अधिमास भी चल रहा है। अगर अतिरिक्त ज्येष्ठ माह है तो गर्मी तो पड़ेगी ही पड़ेगी। इतनी साधारण बात को हिंदुस्तान-पाकिस्तान बनाने के षडयंत्र से बचें। अच्छा हो कि इस प्रकार के अख़बारों को पढ़ना बंद कर दें हिंदी पट्टी के लोग।