तथाकथित पर्यावरणवादी संगठनों की याचिका पर 13 फरवरी 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फ़ैसले में यह कहा कि जिन आदिवासियों और अन्य पारम्परिक वनवासियों के दावे ख़ारिज हो गए हैं उन्हें वन विभाग विस्थापित कर सकता है। इस आदेश के बाद देश भर में ज़बरदस्त विरोध के बाद और केंद्र व राज्य सरकार एवं आंदोलनों के हस्तक्षेप ने सर्वोच्च न्यायालय को इस बात के लिए मजबूर कर दिया वह अपने निर्णय को 10 जुलाई 2019 तक स्थगित कर दे। उसके बाद से इस मामले में सुनवाई अभी तक चल रही है। सुनवाई की अगली तारीख यानि कि 26 नवम्बर 2019 तक सर्वोच्च न्यायलय का आदेश है कि लम्बित मामलों में कहीं भी कोई भी बेदख़ली की कार्रवाई वन विभाग नहीं कर सकती। फिर भी वन विभाग वनवासियों के घरों और खेतों को तबाह कर उन्हें जंगल छोड़ने पर मजबूर कर रहा है।
इस प्रक्रिया में कई जगह हिंसक घटनाओं की भी खबर आई है। बुरहानपुर (मध्य प्रदेश) और सोनभद्र (उत्तर प्रदेश) इसके दो उदाहरण हैं। 13 फरवरी 2019 से अब तक ऐसी तमाम घटनाएं प्रकाश में आई हैं।
उल्लेखनीय है कि नवंबर 2001 में ऐसे ही एक बेदखली के आदेश के बाद देश में आदिवासी व वन-आश्रित समुदायों के हकों के लिए सक्रियजन संगठनों, आंदोलनों, राजनीतिक दलों, पर्यावरणविदों, पत्रकारों और आकादमिक जगत से जुड़े सक्रिय नागरिक समुदायों के लंबे संघर्ष के बाद ही यह कानून अस्तित्व में आ पाया था। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय उस संघर्ष का अपमान है और उसे कुचलने का प्रयास है।
वनाधिकार कानून को लागू हुये लगभग 12 वर्ष पूरे हो गये हैं, लेकिन अभी तक इस ऐतिहासिक कानून का ज़मीनी तौर पर प्रभावी क्रियान्वयन नहीं हो सका है। क्रियान्वयन के शुरूआती दौर से ही वनविभाग, सामन्ती तबके, वन माफिया, निहित स्वार्थ वाले वर्ग तथा कुछ पर्यावरण संस्थाएँ लगातार नित-नयी रूकावटें पैदा करते चले जा रहे हैं। प्रशासन और राजनैतिक शक्तियां भी इस ऐतिहासिक कानून के प्रभावी क्रियान्वयन के लिये कोई राजनैतिक इच्छा-शक्ति नहीं दिखा रही हैं, बल्कि इस कानून के प्रति संवेदनहीन बनी हुई हैं। जिसके कारण ऐतिहासिक अन्याय बदस्तूर ज़ारी हैं और अब सरकारें भी कम्पनियों से सांठ-गांठ कर इस ऐतिहासिक कानून को निष्प्रभावी करने पर तुली हुयी हैं। सरकार द्वारा इस कानून को धरातल परलागू न करने के पीछे की उसकी मंशा स्पष्ट है। सरकार को यह जंगल, जिनपर आदिवासी तथा वनवासी काबिज हैं, कॉर्पोरेट के लिए खाली करवाने हैं। 12 साल से यह कानून होने के बावजूद कंपनियां सरकारों के साथ सांठ-गांठ कर कहीं खनन तो कहीं निर्माण के लिए आए दिन आदिवासियों से जमीनें छीनती ही रहती हैं। और जब भी आदिवासी तथा वनाश्रित आबादी इसका विरोध करती है तो उन्हें भीषण दमन का शिकार होना पड़ता है। इसका ताज़ा उदाहरण छत्तीसगढ़ में हसदेव अभयारण्य में बिना वनाधिकार क़ानून लागू किए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू करना ।
पिछले सात महीनों से देश के 10 करोड़ से भी ज़्यादा आदिवासी-जंगलवासी, ना केवल विस्थापन बल्कि जीवन जीने की मूलभूत ज़रूरतों को लेकर चिंता और अनिश्चितता की स्थिति मेहैं। केंद्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में 2017 से चल रहे इस केस की पैरवी के लिए कोई वकील तक नहीं खड़ा करना, साफ तौर पर उनके आदिवासी विरोधी तेवर दिखाता है । वर्तमान सरकार का कॉर्पोरेट लॉबी के साथ तालमेल और सरकारी विकास का मौजूदा औद्योगिक स्वरूप देश के किसान-मज़दूर तबके के प्रति जितना उदासीन है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार को ना तो जंगलों की फ़िक्र है और ना ही वहाँ रहने वाले आदिवासी और जंगलवासी समुदायों की। सरकार ने जंगलों की परिभाषा बदली है, जंगलों से गुजरने वाले बड़े बड़े राजमार्ग आदि को वन विभाग से मंज़ूरी की शर्त हटा दी है और अन्य कई कदम उठाए हैं जिससे जंगल और जंगलवासी दोनों ख़त्म हो जाएँगे।
देश के जंगल-ज़मीन और संसाधनों पर कॉर्पोरेट कब्ज़े को पुख्ता करने की दिशा में केंद्र सरकार ने एक और बड़ा कदम उठाते हुए, भारतीय वन कानून में संशोधन का प्रस्ताव राज्य सरकारों को भेजा है। अगर यह प्रस्ताव पारित हो जाता है तो वन विभाग को, जंगलों की रक्षा के नाम पर गोली चलाने का अधिकार मिल जाएगा। साथ ही वन विभाग किसी भी आदिवासी या जंगलवासी की संपत्ति ज़ब्त कर सकेंगे, उन्हें बिना वारंट गिरफ्तार कर सकेंगे। यूएपीए (UAPA) कानून की तर्ज़ पर लोगों को वन विभाग द्वारा लगाए गए आरोपों से खुद को बेकसूर साबित किए जाने तक उन्हे अपराधी ही माना जाएगा। एक के बाद एक सरकार के यह जन-विरोधी निर्णय, करोड़ों आदिवासियों के अधिकारों और अमूल्य जंगलों की कीमत पर मुनाफ़ा कमाने की योजना प्रतीत होते हैं।