मीडिया विजिल ने कल ही आपको बताया था कि कैसे असम की किशोरी गायिका नाहिद आफ़रीन के गाने पर फ़तवा जारी होने की बात झूठी है। असम में एक कार्यक्रम के बहिष्कार की एक अपील जारी हुई थी जिसमें 40 से ज़्यादा मौलानाओं के दस्तख़त थे। 15 मार्च को दिन भर यह ख़बर छाई रही लेकिन हक़ीक़त सामने आने पर एनडीटीवी ने शाम सात बजे इस ग़लती के लिए माफ़ी माँगी। हालाँकि सबसे तेज़ चैनल आज तक ने रात 11 बजे फ़तवे को सही बताते हुए एक कार्यक्रम दिखाया था। इस पूरे प्रकरण पर मीडिया विजिल ने छापा था – एनडीटीवी ने फ़तवे पर माफ़ी माँगी, आज तक ने प्रोग्राम बना दिया ।
बहरहाल, उम्मीद थी कि 16 मार्च के अख़बारों में इस ग़फ़लत के बारे में लिखा जाएगा। लेकिन हुआ उलटा। सारे ही अख़बारों ने अपने पहले पन्ने पर फ़तवे जारी होने और नाहिद की ‘बहादुरी’ की बात लिखी है। ‘अमर उजाला’ में तो यह बैनर ही है जिसकी पहली लाइन बताती है कि नाहिद ‘फ़तवे का सामना कर रही है..’
‘दैनिक जागरण’ देश का नंबर एक अख़बार है, वहाँ भी ख़बर का यही अंदाज़ है। उसने तो यहाँ तक लिख दिया है कि नाहिद के ख़िलाफ़ 46 फ़तवे जारी हुए हैं..
अब ज़रा ख़ुद को ‘राष्ट्रीय’ अख़बार कहने वाले हिंदुस्तान और नवभारत टाइम्स का हाल देख लीजिए। पहले पन्ने पर बिना किसी सवाल के फ़तवे के ख़िलाफ़ खडी नाहिद की ख़बर है..
क्या हिंदी के चार बड़े अख़बारों में फ़तवे को लेकर ऐसा उत्साह सामान्य है। ऐसा क्यों है कि किसी ने यह नहीं बताया कि नाहिद के ख़िलाफ़ कोई फ़तवा जारी नहीं हुआ। वहाँ एक अपील जारी हुई, वह भी एक कार्यक्रम के ख़िलाफ़, नाहिद के ख़िलाफ़ नहीं। हैरानी यह भी है कि जिस ग़लत ख़बर के लिए एनडीटीवी के संपादक ने शाम सात बजे के कार्यक्रम में ही माफ़ी माँग ली (स्क्राल पर सच्चाई 5 बजे से ही लिखी जा रही थी) वही ख़बर सुबह सारे अख़बारों में बिना किसी किंतु-परंतु के छप गई ! क्या ख़बर की सत्यता जानने के लिए इतना समय कम था..? क्या सारे संपादक भाँग खा कर पड़े हैं या मुस्लिमों या इस्लाम की ख़ास छवि गढ़ने के ‘सांप्रदायिक प्रोजेक्ट’ में मुब्तला हैं।
यह सही है कि देश में ऐसे मौलानाओं की कमी नहीं हैं जो गाने-बजाने को इस्लाम के लिहाज़ से हराम समझते हैं। वे सैकड़ों सालों से हैं। लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप के ज़्यादातर मुसलमानों ने ऐसे मौलानाओं की बात पर कभी कान नहीं दिया। सारी दरगाहें संगीत से सराबोर रहीं। संगीत के सारे घराने इस्लाम के मानने वालों से गुलज़ार हैं। फ़िल्मी दुनिया का भी यही हाल है। मो.रफ़ी और नौशाद ने इन मौलानाओं के बावजूद दुनिया का दिल जीता।
ऐसा इसलिए भी हो सका कि फ़तवा का अर्थ ‘राय’ होती है ना कि ‘हुक्म।’ यानी वह किसी पर बाध्यकारी नहीं है। लेकिन सारे अख़बार फ़तवे को ‘हुक्मनामा’ का पर्याय जैसा बताते हुए दरअसल यह बताने में जुटे हैं कि मुसलमान अभी भी मध्ययुग में जी रहे हैं।
ये हिंदी का कैसा दुर्भाग्य है कि इसके अख़बार पढ़कर आप यह भी नहीं जान सकते कि ‘फ़तवा’ का सही मतलब क्या है। और यह संयोग नहीं है।
.बर्बरीक