जरा कल्पना करें क्या होता होगा जब सरकार द्वारा आवंटित की गयी ज़मीन पर बने घर को गैर-कानूनी कहकर ढहा दिया जाये? आखिर कैसा महसूस होता होगा जब सिर से कच्ची मिट्टी और फूस की छत को भी अवैध कब्जा कहकर हटा दिया जाये?
राजस्थान के नागौर जिले में यही हुआ है। बंजारा घुमन्तू समाज के साथ हुआ है। और यह कोई पहली घटना नही है। पिछले दिनों पुष्कर में भोपा और भाट घुमन्तू समाज के साथ हुआ था। भीलवाड़ा में बंजारा समाज के साथ हुआ था। जयपुर में कालबेलिया और नट समाज के साथ हुआ था और यह सब घटनाएं राजस्थान में कांग्रेस सरकार बनने के बाद हुई हैं।
ये कदम कितना मानवोचित है? कितना कानूनी तौर पर जायज़ ठहराया जा सकता है? जब उस भूमि पर जमीन के पट्टे सरकार ने जारी किये हों और उस भूमि पर इंदिरा आवास योजना के तहत मकान भी सरकार ने बनवाये हों?
राजस्थान के नागौर जिले के ताऊसर गांव की गोचर भूमि पर बनी बंजारा बस्ती के घरों को अवैध कब्जा घोषित करके उच्च न्यायपालिका के आदेश पर उस बस्ती को ढहा दिया गया। हिंसा हुई और उस हिंसा में महेंद्र नाम का एक बंजारा भी मारा गया।
यह मुद्दा हालांकि इतना सरल नहीं है। इसमें कई प्रश्न छुपे हैं जिनका जवाब राजस्थान सरकार को देना पड़ेगा। जब ये ज़मीन गोचर भूमि थी तो फिर पिछली गहलोत सरकार ने जमीन के पट्टे जारी क्यों किये थे? जब यह ज़मीन गोचर भूमि थी तो फिर गहलोत सरकार ने इंदिरा आवास योजना के तहत इस पर मकान क्यों बनवाये?
गहलोत सरकार के बनने के बाद से अब तक जयपुर में झोटवाड़ा से घुमन्तू बस्ती को उजाड़ा गया। पुष्कर से भोपा और भाट के घर उजाड़े। पाली में कालबेलिया ओर मोग्या बस्ती को उजाड़ा। आखिर कितने लोगों को फिर से बसाया गया? आखिर कितने लोगों का पुनर्वास किया गया?
एक तरफ मुख्यमंत्री कहते हैं कि हम उच्च न्यायालय से अपील करके इनके पुनर्वास की व्यवस्था करेंगे, वहीं दूसरी और इनके वकील कोर्ट में इस बस्ती को अवैध बताते हैं। जब आपकी सरकार ही इनको अवैध ठहराती है तो फिर कोर्ट के समक्ष बचेगा क्या?
क्या सरकार ने कोर्ट को यह बात बतायी कि घुमन्तू समाज के जीवन का आधार यही गोचर और चरागाह भूमि होती है? यहीं इन समाजों के तांडे/गाढ़े पड़ते थे। यहीं पर इनकी भेड़, बकरी, ऊंट और गाय चरते थे। इसी भूमि पर खेल तमाशे होते थे। यही भूमि इन समाजों के साथ हमारी जुगलबन्दी का आधार हुआ करती थी।
यदि बात ज़मीन पर अवैध कब्जे की है तो पुष्कर में बने अधिकांश होटल और रिसोर्ट इसी वर्ग में आते हैं। जैसलमेर के सन में बने अधिकांश रिसॉर्ट किस भूमि पर बने हैं? रिहायशी घरों में चल रहे कोचिंग किस तरीके के हैं? सरकार और कोर्ट की नाक के नीचे अधिकारी धड़ल्ले से अखबार में नाम के साथ विज्ञापन देकर कोचिंग चला रहे हैं लेकिन क्या अब तक एक कोचिंग पर भी कार्रवाई हुई?
जहां तक बात भूमि पर अवैध निर्माण की है तो पिछले दस साल में राजस्थान में कितने लैंड अलॉटमेंट को बदला गया? कितनी चरागाह, गोचर और कृषि योग्य भूमि को बेचने योग्य बनाया गया? गांवों और शहरों की कृषि और चरागाह भूमि पर किनका कब्जा है?
जहां तक कोर्ट के फैसले का सवाल है, उच्चतम न्यायालय का एक निर्णय था जिसके तहत बिना पुनर्वास किये, वो भी बरसात के मौसम में किसी के आवास को ढहाया नहीं जाएगा जब तक कि उसके लिए रहने की कोई व्यवस्था न हुई हो। अब, जब उच्च न्यायालय ने यह निर्णय किया तो क्या उसने इस आदेश को देखा?
न्यायपालिका को यह भी जानने की कोशिश करनी चाहिए थी कि आखिर किसके आदेश से इस भूमि पर पट्टे जारी हुए? आखिर किसके कहने पर इस भूमि पर इंदिरा आवास योजना के तहत भवन बने? साथ में यह जांच भी होनी चाहिए कि ऐसी कितनी भूमि पर अवैध कब्जे हैं और किन लोगों के हैं?
पिछले दो दिनों से नागौर के पशु मेला मैदान में बंजारा समाज के साथ धरने पर बैठे नागौर से सांसद हनुमान बेनिवाल का कहना है कि सरकार एक तरफ तो न्याय करने की बात करती है वहीं दूसरी ओर बंजारा समाज के निर्दोष लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज करवा दिये। ये सब अन्याय की पराकाष्ठा है। झूठे आश्वासनों से कुछ नहीं आता।
महेंद्र बंजारा, पुत्र प्रताप राम बंजारा जिसकी इस दौरान मौत हुई, घर वालों का आरोप है कि उसे पहले पीटा गया था जिसके कारण उसकी मौत हुई जबकि पुलिस का कहना है कि वह पहले से बीमार था।
महेंद्र बंजारा की मौत का जिम्मेदार कौन है? अवैध कब्ज़ा, आदेश या फिर उनकी गरीबी? एक पुरानी कहावत है कि गरीब आदमी का श्मशान नहीं उजाड़ना चाहिए, उसके पास ले देकर यही बचता है। इस कार्यवाही ने तो उससे यह भी छीन लिया।
बंजारे कौन हैं? ये लोग काम क्या करते थे? बंजारे अरब देशों से अरबी कपड़े, मुल्तान से मुल्तानी मिट्टी और गुजरात, राजस्थान से नमक अपने गधों और ऊंटों पर लाद कर लाते थे। ये केवल व्यापार ही नहीं करते थे बल्कि दो संस्कृतियों को भी जोड़ते थे। उनके विचार और परम्परा को भी साथ लाते थे।
यही लोग थे जिन्होंने राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उतर प्रदेश में बावड़ियां खोदीं, टांके बनाये, जोहड़ और तालाब बनाये। मकानों की नींव खोदी। बिंजारी की गोदना और कसीदाकारी तो पूरे भारत से लेकर अरब देशों में मशहूर है।
हनुमान बेनिवाल का कहना है कि इस पूरे घटनाक्रम से एक बात साफ है कि घुमन्तू जातियों के बारे में हमारी सरकारों, कानून और कोर्ट के विचार में ही गड़बड़ी है।
हम उसे महज खेल करतब दिखाने वाला, ऊंट-सारंगी वाला समझते हैं। हमारे नीति-निर्माताओं के वोटों के गणित से ये लोग बाहर हैं। सभी सरकारें उनके जीवन का ऐसे ही तमाशा बनाती हैं।
अकेले राजस्थान में 53 घुमन्तू समाज हैं जिनमेु नट, भाट, भोपा, कालबेलिया, बंजारा, गाड़िया लूहार, बावरिया, रैबारी, ओढ़, गवारिन, बागरी, साठिया, बहरूपिया, जोगी, जागा, सिंगीवाल, सिकलीगर, कुचबन्दा, सांसी, कंजर इत्यादि प्रमुख हैं।
इस समाज के दो लाख से ज्यादा बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। इनको न धान मिलता है न वृद्धावस्था पेंशन का कहीं अता-पता है। घुमन्तू बोर्ड कहां है कुछ अता-पता नहीं। इन समाजों की संख्या कितनी है यह भी नहीं पता जबकि यही समाज हमारी इस रंग-बिरंगी संस्कृति, मौखिक इतिहास की परम्परा, व्यापार, कला-संगीत, कृषि, पर्यावरण प्रबन्धन और समाज सुधार की अग्रिम पंक्ति में रहा है।
हमें यह बात समझनी होगी कि केवल राजस्व मंत्री के जाने से या पुनर्वास के आश्वासन देने से कुछ नहीं मिलेगा जब तक कि इन समाजों पर समग्रता में नहीं सोचेंगे।
घुमन्तू समाज की वजह से ही रेगिस्तान की मिट्टी में महक है। इनका ज्ञान उसकी जीवन प्रक्रिया का हिस्सा है। यदि ये समाज बचेंगे तो ही यह ज्ञान बचेगा और तभी यह रंग-बिरंगी संस्कृति भी बचेगी।
लेखक स्कॉलर और एक्टिविस्ट हैं। नयी दिशाएं के संयोजक भी हैं