ढाका की सड़कों पर ”खून की नदी” वाली यह तस्वीर पिछले दो दिनों से सोशल मीडिया और अखबारों की वेबसाइटों समेत यूट्यूब वीडियो में दिखाई दे रही है। दुनिया के तमाम अखबारों ने ढाका ट्रिब्यून और बांग्लादेश के अन्य अखबारों के हवाले से लाल रंग के पानी वाली इन तस्वीरों को छापा है, लेकिन जिस तरीके से भारत में इसका इस्तेमाल चुनिंदा तरीके से नफ़रत फैलाने के लिए किया गया है वह काफी चिंताजनक है। कुछ वेबसाइटों ने लाल रंग को और लाल कर दिया तो इसके बरक्स लाल रंग को हरा और नीला बनाने की कोशिशें भी फोटोशॉप के माध्यम से हुई हैं। इस बारे में एक वरिष्ठ पत्रकार द्वारा भेजे गए मेल पर आधारित यह पोस्ट : (संपादक)
यह तस्वीर दो दिन पहले सोशल मीडिया पर वायरल हुई और इसके बहाने मुसलमानों के कुरबानी देने को अनैतिक करार देते हुए उनकी निंदा की जाने लगी। निजी टिप्पणियों तक तो फिर भी ठीक था, लेकिन देश की दो सबसे प्रमुख और खुद को सबसे भरोसेमंद कहा जाना पसंद करने वाली न्यूज वेबसाइटों ने इसे बिना हवाले के प्रकाशित भी कर दिया। इनमें एक है जनसत्ता डॉट कॉम और दूसरा है बीबीसी हिंदी डॉट कॉम.
सबसे पहले ढाका की कुछ मिश्रित तस्वीरें यहां देखें। साफ दिख रहा है कि पानी का रंग केवल लाल नहीं है बल्कि भूरा, गुलाबी और मटमैला भी है जबकि हमारे मीडिया ने केवल एक रंग लाल को चुनकर अपनी खबरों को तान दिया है।
http://www.thedailystar.net/city/rainwater-animal-blood-submerge-dhaka-streets-1284532
जनसत्ता पर अब भी यह ख़बर लगी हुई है जिसमें सड़क पर बहते लाल पानी को शीर्षक में ”खून की बाढ़” बताया गया है। हैरत की बात ये है कि इस खबर में तस्वीरों का कोई स्रोत नहीं बताया गया है और तस्वीर के नीचे दिए कैप्शन में भी ढाका के किसी अखबार का जि़क्र नहीं है। (http://www.jansatta.com/international/eid-al-adha-bangladesh-street-full-of-blood-alike-river-of-blood/143511/),
गुरुवार की रात बीबीसी का पेज नॉट फाउंड बता रहा था (http://www.bbc.com/hindi/india-37360766). बीबीसी का वो पेज नॉट फाउंड बता रहा है, जो गूगल सर्च में सामने आता है, लेकिन उसके विदेश पेज पर ये खबर लगी है. (http://www.bbc.com/hindi/international-37364840).
लगता है कि बीबीसी के पत्रकार ने तस्वीरें तो अपने स्रोत से ही लगाई हैं लेकिन हेडिंग सोशल मीडिया पर आई फोटोशॉप तस्वीरों को देख कर लगा दी है- बकरीद पर ढाका में ‘बही खून की नदी.’
एक दिन पहले एक अन्य तस्वीर सोशल मीडिया पर आई है, जिसमें उसी तस्वीर में लाल रंग की जगह बरसाती पानी का असल रंग है. ऐसी ही एक और तस्वीर वायरल हो रही है जिसमें लाल रंग की जगह नीला और हरा रंग दिखाई दे रहा है. अगर इन तस्वीरों को एक साथ सेव कर विंडोज़ फोटो व्यूअर में देखें तो आपको फोटोशॉप का कमाल दिखाई देगा. लाल रंग को बरसाती मटमैला रंग देने के चक्कर में लड़के की जींस और ऊपर लगे बोर्ड का रंग भी बदल गया है। सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इसे उपहास में ‘सेकुलर फोटोशॉप’ का नाम दिया है।
ज़ाहिर है, फोटोशॉप पर किसी का एकाधिकार नहीं है। जिस तरह पानी का लाल रंग गाढ़ा किया जा सकता है, वैसे ही उसे हरा और नीला भी बनाया जा सकता है। दैनिक भास्कर डॉट कॉम के एक पत्रकार कहते हैं, ”कभी-कभर हम लोग ख़बर में तड़का लगाने के लिए फोटो में कलाकारी कर देते हैं ताकि पाठकों की नज़र खींची जा सके, लेकिन जो लोग सांप्रदायिक एजेंडे के तहत ऐसा कर रहे हैं वह बिलकुल गलत है।”
कुरबानी के खून से पानी का लाल होना कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस बार जिस तरीके से ढाका की तस्वीरों का सांप्रदायिक इस्तेमाल हो रहा है, हलके लाल को गाढ़ा लाल बनाया जा रहा है जबकि उसके उलट लाल को हरा और नीला बना दिया जा रहा है, वह चिंताजनक है।
सवाल ये उठता है कि क्या मीडिया को अपनी साख की भी चिंता नहीं रह गयी है या नफरत फैलाने वालों के साथ उनका कोई साठ गांठ है? इन दोनों बातों का कोई आधार नहीं रह जाता जब जनसत्ता और बीबीसी डॉट कॉम जैसे दिग्गज नाम आते हैं.
जो अंतिम संभावना बचती है वो है तथ्यों को चेक न करने की काहिलियत से उपजी चूक.
क्या संपादकों ने इन्हें छापते वक्त इन तथ्यों को जानाने की जहमत उठाई?
1- तस्वीर का स्रोत क्या है?
2- ढाका के किसी प्रशासनिक अधिकारी का वर्जन क्यों नहीं है?
3- क्या खून इतनी देर तक लाल बना रह सकता है, जबकि चंद मिनटों में खरोंच का खून भी काला पड़ जाता है?
4- अगर पानी इतना लाल दिख रहा है तो क्या सीवर, सड़क, गंदे पानी के मिलने से उसकी इतनी ही लालिमा बनी रह सकती है?
5- और अंतिम, जेहन में ये बात क्यों नहीं आई कि ये तस्वीर फोटो शॉप भी हो सकती है?
सबसे दिलचस्प बात तो ये है कि ढाका के एक मीडिया हाउस डेलीस्टार ने इस खबर को छापा है और उसमें कहीं भी तस्वीरों की ललाई इतनी नहीं दिखती. उसमें लाल के दो शेड हैं और मटमैले रंग की तस्वीरें भी हैं।
ये गंभीर मसला है. नफरत फैलाने की एक नए तरह की कोशिश. जहां सच और झूठ में बस फोटोशॉप की दूरी बची है. घटना सच है लेकिन उसका पेस बढ़ा दिया गया, उसे अतिरंजित कर दिया गया।
इस खबर को अतिरंजित कर के चलाने वाले मीडिया हाउसों को अपने पाठकों से माफी मांगनी चाहिए।