नोटबंदी से लुटे, नसबंदी में फंसे: गोरखपुर के मजदूरों की दर्दनाक कहानी, पूर्वापोस्‍ट की जुबानी!

नसबंदी भारत में एक त्रासद इतिहास का नाम है। चालीस साल बाद यह इतिहास नोटबंदी के रास्‍ते उत्‍तर प्रदेश के गोरखपुर में खुद को दुहरा रहा है। सवा अरब का देश तमाशा देख रहा है।



पूर्वांचल की खबरों पर केंद्रित वीडियो वेबसाइट पूर्वा पोस्‍ट ने 28 नवंबर की शाम जो वीडियो प्रकाशित किया है, वह भयावह भविष्‍य का एक दर्दनाक संकेत है। वेबसाइट  पर छपी रिपोर्टर पंकज श्रीवास्‍तव की खबर और वीडियो के मुताबिक पूर्वी उत्‍तर प्रदेश के गोरखपुर में 8 नवंबर को घोषित नोटबंदी के बाद बेरोज़गार हुए दिहाड़ी मज़दूर पेट भरने के लिए तेजी से नसबंदी करवा रहे हैं।

ख़बर में एक निजी क्‍लीनिक के हवाले से कहा गया है कि जिन मजदूरों को पहले राष्‍ट्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मिशन के तहत नसबंदी करवाने के लिए राज़ी करने में काफी मशक्‍कत करनी पड़ती थी वे 8 नवंबर के बाद से खुद ही इसके लिए निजी क्‍लीनिकों में चलकर आ रहे हैं। सरकारी योजना के तहत यूपी में सरकारी सुविधाओं में नसबंदी करवाने के बदले व्‍यक्ति को 2000 और निजी प्रतिष्‍ठान में 1000 रुपये दिए जाने का प्रावधान है।

नोटबंदी के बाद रोजी-रोटी से महरूम मज़दूरों को नसबंदी करवाने का रास्‍ता आसान दिख रहा है क्‍योंकि उससे उन्‍हें 1000 रुपये की कमाई हो जा रही है। ख़बर के मुताबिक गोरखपुर में 8 नवंबर के बाद 38 दिहाड़ी मजदूरों ने नसबंदी करवाई है। प्रकाश क्‍लीनिक के टीम लीडर के हवाले से बताया गया है कि नोटबंदी के फैसले के बाद नसबंदी की प्रक्रिया में तेज़ी आई है क्‍योंकि मजदूर खाली बैठे हैं और उनके पास कमाई का कोई स्रोत नहीं है।

आश्‍चर्य की बात है कि खुद को राष्‍ट्रीय चैनल और राष्‍ट्रीय अख़बार कहने वाले समाचार प्रतिष्‍ठानों की निगाह इस ख़बर की ओर नहीं गई है। अगर 20 दिनों के भीतर करीब 40 मजदूरों ने एक क्‍लीनिक में नसबंदी कराई है तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कुल सरकारी चिकित्‍सा केंद्रों और निजी क्‍लीनिकों को मिलाकर यह संख्‍या कितनी बड़ी हो सकती है।

इस संख्‍या का एक अंदाज़ा लगाने के लिए मीडियाविजिल ने केंद्रीय स्‍वास्‍थ्‍य एवं परिवार कल्‍याण मंत्रालय की सालाना रिपोर्ट को खंगाला। रिपोर्ट के एनेक्‍सचर-2 में परिवार नियोजन के 2014-15 के पूरे देश के आंकड़े दिए हुए हैं। इसमें उत्‍तर प्रदेश में एक साल में 9798 पुरुषों की नसबंदी का आंकड़ा दिया हुआ है। स्थिति की भयावहता को सामान्‍य गणित से समझा जा सकता है। अगर इसे राज्‍य के 75 जिलों में बांट दिया जाए तो इससे यह निकलता है कि राज्‍य के एक जिले में औसतन 131 नसबंदी के ऑपरेशन साल भर में किए गए। एक दिन का आंकड़ा निकालने के लिए इस संख्‍या को 365 से भाग दे दिया जाए तो यह समझ में आता है कि एक जिले में 2015-16 के दौरान तीन दिनों में एक नसबंदी का ऑपरेशन हुआ (एक दिन में करीब 0.35)।


8 नवंबर को लागू नोटबंदी के बाद बीते 20 दिनों में एक जिले से नसबंदी का अगर 38 मामला आ रहा है यानी एक दिन में दो केस, तो 2014-15 के राज्‍यवार नसबंदी के सरकारी अनुपात से यह छह गुना ज्‍यादा है। विडंबना यह है कि नोटबंदी के तमाशे में न तो मजदूर ख़बर बन सके हैं, न उनकी नसबंदी। इंदिरा गांधी के दौर में जो नसबंदी राष्‍ट्रीय त्रासदी के रूप में सामने आई थी, वह नरेंद्र मोदी के दौर में अदृश्‍य निजी त्रासदी के रूप में घट रही है जिसे पूर्वा पोस्‍ट नाम की एक छोटी सी वेबसाइट ने बमुश्किल दर्ज कर लिया है।

नीचे देखें पूरा वीडियो:

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