पंकज श्रीवास्तव
हमने उनके इरादे के हक़ीक़त में बदलने पर सवालिया निशान लगाया था। प्रचंड का जवाब था कि उन्होंने एकीकृत माओवादी पार्टी बनाने के लिए अपने ‘मशाल’ ग्रपु का लोप कर दिया था, अगर ज़रूरत पड़ी तो कम्युनिस्ट पार्टी बनाने के लिए अपनी माओवादी पार्टी भी ख़त्म कर देंगे।
संशय की वजह थी। भारत ही नहीं दुनिया का इतिहास इस मामले में उलट है। कम्युनिस्ट, एकता के लिए नहीं विभाजन के लिए जाने जाते हैं। कभी क्रांति की लाइन के सवाल पर तो कभी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों की समझ के नाम पर, तो कभी किसी और नाम पर। विभाजन के बाद पूर्व कॉमरेडों में शत्रुता का भाव ज़्यादा रहा है। यहाँ तक कि कई बार पार्टी लाइन से अलग जाने वालों को वर्गशत्रु से भी बड़ा शत्रु माना गया। उन्हें ग़लत साबित करने में ही पूरी ऊर्जा लगा दी गई।
लेकिन हिमालय की तलहटी में बसे इस छोटे से देश के कम्यनिस्टों ने पहाड़ पर जमी रहने वाली बर्फ़ को अपनी गर्मजोशी से पिघलाकर उम्मीदों की नदी बहा दी। कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशन (21 फ़रवरी 1848) की 170वीं वर्षगाँठ के ठीक दो दिन पहले 19 फ़रवरी 2018 को नेपाल की दोनों प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियाँ एक हो गईं। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (संयुक्त मार्क्सवादी-लेनिनवादी) और नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने विलय के मसौद पर हस्ताक्षर कर दिए। नयी पार्टी का नाम नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी होगा।
इसी के साथ दोनों पार्टियों और उनके जनसंगठनों को भंग करके एक नई शुरुआत की जा रही है। माना जा रहा है कि पार्टी की कांग्रेस के पहले दोनों पार्टियों के वर्तमान अध्यक्ष के.पी शर्मा ओली और प्रचंड एक साथ नयी पार्टी का नेतृत्व करेंगे और बारी-बारी से सरकार के प्रमुख बनेंगे।
पिछले दिनों नए संविधान के तहत हुए हुए नेपाल के संसदीय चुनाव में वामपंथी गठबंधन को बड़ी जीत मिली थी। सीपीएन-यूएमएल के अध्यक्ष के.पी.शर्मा ओली दूसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने। ओली की पार्टी सीपीएन-यूएमएल को 275 सदस्यों वाली संसद में 121 सीटें और सीपीएन-माओवादी को 53 सीटें मिली थीं।
और फिर प्रचंड ने वह कर दिखाया जो जुलाई 2015 में हमसे कहा था – एक कम्युनिस्ट पार्टी बनाने के लिए अपनी पार्टी का लोप। ऐसा नहीं कि इस प्रक्रिया में ओली या अन्य कम्युनिस्ट नेताओं का योगदान नहीं है, लेकिन किसी ‘माओवादी कमांडर’ का इस क़दर लचीला होना आम बात नहीं है।
नेपाल की यह घटना अपने आप में अनोखी और ख़ासतौर पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए सबक है। यह संयोग नहीं कि नेपाल में कम्यनिस्ट जैसे-जैसे मुख्यधारा बनते गए, भारत के कम्युनिस्ट हाशिये पर सिमटते गए। नेपाल के कम्युनिस्टों ने नई परिस्थितियों के हिसाब से व्यक्तित्वों और पार्टी नाम का मोह छोड़कर नए रास्ते चुने, जबकि भारत में सहयोग से ज़्यादा अलगाव के बिंदुओं पर ज़ोर दिया जाता रहा। संयोग नहीं कि सिर्फ़ दस साल पहले जहाँ भारत की केंद्र सरकार कम्यनिस्टों के समर्थन पर निर्भर थी, वहीं आज वे बंगाल जैसा क़िला खो चुके हैं और त्रिपुरा तथा बंगाल छोड़ शेष भारत में (चुनावी लिहाज से) हाशिये पर चले गए हैं। गैरसंसदीय रास्ते से क्रांति का उद्घोष करने वाले घने जंगलों के मोहताज हैं और सड़क और पुल उड़ाने जैसा ‘क्रांतिकारी धमाका’ करते रहते हैं।
संसदीय रास्ते पर चलने वाली भारत की मुख्य कम्युनिस्ट पार्टियों- सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई (एम.एल) की कांग्रेस अगले दो महीनों में होगी। लेकिन मिलजुल कर एकताबद्ध वाम विकल्प देश को देने की तड़प कहीं नज़र नहीं आ रही है। सभी को अपना रास्ता सही लगता है और सभी हाशिये पर हैं। इन पार्टियों के नेता बहुत मेहनत से अपनी भाषा और नारे गढ़ते हैं, लेकिन जनता को समझ नहीं आते।
ऐसे में कई वाम समर्थकों का मानना है कि कभी नेपाल के कम्युनिस्ट नेता, भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन से सीखते थे, लेकिन अब इस प्रक्रिया को उलटने का वक्त आ गया है।
(वरिष्ठ पत्रकार पंकज श्रीवास्तव मीडिया विजिल के संस्थापक संपादक हैं।)
प्रचंड के साथ पंकज श्रीवास्तव की बातचीत गवर्नेंस नाऊ के अगस्त 2015 के अंक में छपी थी। अाप नीचे लिंक पर खटका लगाकर पढ़ सकते हैं–
India’s Maoists will join the peace process one day: Prachanda