इस मुल्क का मसीहा न तो मीडिया था, न है और न होने लायक़ है!
विनीत कुमार
आप सिनेमाघरों में अनुभव सिन्हा निर्देशित फिल्म “मुल्क” देखने जाएंगे तो फिल्म शुरू होने से पहले एकदम शुरू में आपको दो न्यूज/मीडिया नेटवर्क के लोगो (logo) दिखाई देंगे. इनकी साइज आपके हथौडे साइज की उन चाइनिज मोबाईल से थोड़ी बड़ी ही होगी जिनके जरिए आप न्यूज चैनलों की कतरन/ क्लिप्स व्हॉट्स अप के जरिए शेयर करने और फेसबुक टाइमलाइन पर हिट्स-लाइक्स की पैदावार बढ़ाने के काम लाते हैं. ये नेटवर्क है जी म्यूजिक और न्यूज 18 इंडिया. आप देखते ही समझ जाएंगे कि इस फिल्म में संगीत जी म्यूजिक का है और जहां-जहां न्यूज चैनल बतौर चरित्र दिखाए जाएंगे, न्यूज 18 की गर्दन सबसे उंची होगी.
फिल्म की प्रोमो से नत्थी करके इनदोनों नेटवर्क पर गौर करें बल्कि खबरों और डीएनए के लिहाज से विचार करें तो आपको समझने में मुश्किल नहीं होगी कि खासकर पिछले चार सालों से जो ये राष्ट्रहित के नाम पर प्रसारित करते आए हैं वो फिल्म की मिजाज के विरुद्ध है. फिल्म में घुसने के थोड़ी ही देर बाद आपको समझ आ जाएगा कि ये फिल्म एक तरह से ऐसे ही नेटवर्क और न्यूज चैनलों को बेदख़ल और हमारी-आपकी जिंदगी में घुसपैठिए बनकर नायक की गद्दी पर बैठने की कोशिशों को अपदस्थ करती है. इस अर्थ में मुल्क की जो मूल कहानी है, उसके समानान्तर एक कहानी आखिर तक चलती है, जिसका मद्धिम( एकाध बार तो उंचा भी ) स्वर है कि ये चैनल आपकी जिंदगी के न तो नायक हैं और न होने लायक हैं.
फिल्म निर्देशक अनुभव सिन्हा को इस लिहाज से बधाई देना जरूरी हो जाता है कि उन्होंने साल 2018 में एक ऐसी फिल्म पेश की है जिसमें एक ऐसे न्यूज नेटवर्क को बतौर मीडिया पार्टनर शामिल किया है जिन्हें गलतफहमी हो गयी है कि नागरिक के सवाल को”हम तो पूछेंगे” जैसे पैकेज में तब्दील करके उनके हक में “आर-पार” की लड़ाई लड़ रहे हैं. ऐसा करते हुए उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं है कि वो दर्शक में तब्दील हो चुके अपने नागरिकों को इसी जनतंत्र के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं. दूसरी तरफ जी म्यूजिक जो पूरी फिल्म में अमन का राग छेड़ता नजर आता है, इसी नेटवर्क के न्यूज चैनल को पता नहीं कि दिक्कत इस देश की डीएनए में नहीं,उनमें है.
अनुभव ने इन दोनों को व्यावसायिक तौर पर पार्टनर बनाते हुए भी पूरी फिल्म में बहुत ही मजबूती से असहमति दर्ज करने में कायम रहे हैं कि पार्टनर तुम्हारे साथ बिजनेस तो ठीक है लेकिन तुम्हारी पॉलिटिक्स ? पूरी फिल्म उन तमाम न्यूज चैनलों के खिलाफ एक रचनात्मक प्रतिरोध है जो इस प्रोपेगेंडा में शामिल हैं कि इस देश को “हम” और “वो” में बांटकर ही बेहतर कल संभव है. ये फिल्म खित्तेबाजी के बरक्स न्यूज चैनल की डिक्शनरी से वो शब्द काटकर हम पर आकर टिकी रहती है.
हमारे सामने ऐसी हिन्दी फिल्मों की लंबी फेहरिस्त है जिनमे मीडिया पार्टनरशिप के दरवाजे से घुस आए न्यूज चैनल कहानी में इस अंदाज में घुस आते हैं
पूरी फिल्म में आपको न्यूज 18 इंडिया की माइक और टीवी स्क्रीन पर लोगो दिखाई देंगे. उनका स्वर बाकी चैनलों से थोड़ा ऊंचा है जो कि व्यावसायिक संधि के तहत स्वाभाविक भी है लेकिन इतना ऊंचा भी नहीं कि वो नायक की भूमिका में आ जाएं. वो आपकी रोजमर्रा की जिंदगी का एक ऐसा जरिया है जिसके जरिए आपको सूचनाएं मिलती हैं और वो भी इस अंदाज में कि यदि आप इसे टीवी पर न भी देंखे तो अगली सुबह मोहल्ले में कोई अखबार में बांचता हुआ दिख जाएगा और आपका कोई नुकसान नहीं होगा.
पूरी फिल्म में न तो वो स्टार एंकर हैं जिन्हें इस बात की गलतफहमी रहती है कि ये देश संसद और नागरिकों से न चलकर उनके आधे-एक घंटे के शो और शो की कतरनें तैयार करनेवाले स्वयंसेवकों( volunteer) से चलता है. न ही कोई ऐसा पैनल डिस्कशन है जिसके जरिए रंग दे बसंती की तरह पकंज पचौरी ( तत्कालीन एंकर) ही तुर्रमखां के तौर पर नजर आएं. आप फिल्म की कहानी से गुजरते हुए सिर्फ इस बात की कल्पना करने लग जाएं कि देश की खातिर यदि सुमित अवस्थी या अमिश देवगन जैसे एंकर दस सेकण्ड की ही परिचर्चा में शामिल होते तो…क्या मुल्क की पूरी कहानी वो असर छोड़ पाती जो आप सिनेमाहॉल से निकलने के बाद महसूस करके निकलते हैं और ये एहसास भीतर कहीं एक कोने में जाकर इत्मिनान बनकर स्थिर हो जाता है कि ऐसी परिचर्चा न हो तो देश में काफी कुछ छितराने से बच जाएगा.
दूसरी तरफ अनुभव सिन्हा किसी व्यावसायिक दबाव में इन्हें शामिल करके मुल्क की कहानी के अनुरूप परिचर्चा करा भी देते तो ये दस-बीस सेकेण्ड के विजुअल्स पूरी फिल्म पर ऐसी डेंट मार जाते कि फिल्म इस बात से कभी नहीं उबर पाती कि ये कोई फिल्म न होकर दरअसल बड़े पर्दे पर न्यूज चैनल की पीआर प्रैक्टिस है. आप अपनी सीट से उठते हुए मेरी तरह शायद पहला वाक्य बोलें- थैंक गॉड अनुभव ने इस फिल्म को ऐसे पैनल डिस्कशन से बचा लिया.
इस लिहाज से देखें तो फिल्म की सबसे बड़ी खूबसूरती रोजमर्रा के एक सामान्य चरित्र की तरह न्यूज 18 इंडिया की मौजूदगी किन्तु कहानी के सिरे से उसे पूरी तरह अनुपस्थित रखना है. पूरी फिल्म में एक पंक्ति या घटना नहीं है जिसमे कि चैनल की इस रूप में चर्चा आती हो कि इनके होने से एक नागरिक की जिंदगी पहले से ज्यादा बेहतर हो पाती है. इतना ही नहीं जो खबरें सरकारी महकमे से चलकर न्यूजरूम तक आती है, वही बतौर ब्रेकिंग न्यूज के तौर पर पेश कर दी जाती है. आप समझदार ऑडिएंस को समझते देर न लगेगी के चैनल चाहे अपनी कितनी भी गाड़ियां दौड़ाते नजर आएं, ग्राउंड जीरो रिपोर्टिंग और न्यूज गैदरिंग के स्तर पर वो पूरी तरह लचर हैं.
न्यूज चैनल को हावी न होने देने और किसी भी स्तर पर नायक क्या सहायक कलाकार भी न बनने देने की इस ट्रीटमेंट से फिल्म बाकी फिल्मों से बिल्कुल अलग कतार में जाकर खड़ी नज़र आती है. तब आप बहुत साफ-साफ देख पाते हैं कि एक मजबूत लोकतंत्र की संभावना उसके भीतर के नागरिक समाज की ताकत के उभरकर सामने आने से ही है. ये अकेली उसकी ताकत है जो दुनिया के इस दूसरे सबसे बड़े लोकतंत्र को जिंदा रखेगी. यही कारण है कि अपने कंधे पर नायकत्व का भार संभाले तमाम कलाकार बेहद खूबसूरती से इसे स्थापित तो करते ही है लेकिन वो तमाम ऐसे चेहरे जो पर्दे पर बिना किसी पहचान और ओहदे के ( न्यूज चैनल में जिन्हें बिना सुपर के लोग कहते हैं) नजर आते हैं, उनके चेहरे का भाव ऐसा है कि गुजरते हुए आप संविधान की उन्हीं पंक्तियों से गुजरने का एहसास कर पाते हैं- हम भारत के लोग…ये हम अपने अछूतेपन में भी इतनी स्पष्टता से मौजूद हैं कि कई बार आप नायकत्व की भूमिका में मीडिया शॉट में मौजूद या लांग शॉट मे लोकेशन के बीच से इन चेहरे की मौजूदगी के साथ खुद को खड़ा पा सकते हैं. इस अर्थ में ये फिल्म माध्यम की उस ताकत को आपके सामने पेश करती है जो नायकत्व के क्रम को बिल्कुल उल्टा करके देखने की सेंस पैदा करता है.
सिनेमाहॉल से बाहर निकलते हुए आप इस सिरे से भी सोचते हैं- काश जी म्यूजिक की तरह जी न्यूज के पास भी अमन का राग होगा तब हम दर्शक की दुनिया और कितनी खूबसूरत होती ! उतनी ही खूबसूरत जब कभी जी जिंदगी से हमारी सीरियल की दुनिया हुआ करती थी. और ये व्हॉट्स अप जिसके भीतर नागरिक पत्रकारिता की अकूत संभावनाएं भरी हुई है, नॉन सीरियसनेस और फसादों के माध्यम का कलंक लेकर हमारे बीच न होता. न्यूज चैनलों की ऐसी कतरनों और आइटी सेल की फेक कंटेंट से हमारी व्हॉटस अप दुनिया इस कदर भरी हुई है कि फिल्म से गुजरते हुए आप दुविधा में पड़ जाएंगे कि वकील, अधिकारी होने के लिए एलएलबी, सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास करना जरूरी है या फिर मोबाईल स्क्रीन पर बटन की तरह आंखें टांक देना ? तब आप लंबे समय तक इस असर के साथ इस फिल्म को महसूस करते रहेंगे कि मानवीय संवेदना के जिस आखिरी छोर को ये फिल्म छू पाती है, उस छोर को न्यूज चैनलों ने खबर, राष्ट्रभक्ति, विकास, विश्वगुरू के नाम पर न केवल बुरी तरह काट दिया है बल्कि उसके बरक्स एक ऐसी रस्सी थमा दी है जिसका इस्तेमाल हम नागरिक समाज के फंदे के तौर पर करने जा रहे हैं.
फुटनोटः यदि आपकी दिलचस्पी ट्विटर वर्ल्ड में है तो आप महसूस करेंगे कि मुल्क के बहाने ही सही ऋषि कपूर का विरेचन( catharsis ) हुआ है. वो बरास्ते फिल्म वही भाषा बोल रहे हैं जो एक दुस्साहसी और समझदार भारतीय नागरिक को बोलनी चाहिए.
(विनीत कुमार मीडिया समीक्षक और शिक्षक हैं। )