1997 में प्रकाशित मशहूर लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ ने हिंदी जगत को झकझोरा दिया था। दलित उत्पीड़न की इस महागाथा ने न सिर्फ़ हिंदी साहित्यजगत को नया विस्तार दिया था, बल्कि तमाम अन्य भाषाओं में इसके अनुवाद ने भारतीय समाज के जातिगत बुनावट और इसी आधार पर होने वाले उत्पीड़न को दुनिया के सामने प्रामाणिक ढंग से उधेड़ कर रख दिया था। 1950 में जन्मे और 1980 के दशक में सक्रिय हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि के कई कहानी और कविता संग्रह हैं जो समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों के दुख, आक्रोश और संघर्ष के दस्तावेज़ हैं। उनकी कविताओं में भी दिल को चीर देने वाली धार है।
दुर्भाग्य की बात यह है कि अमर उजाला कभी वीरेन डंगवाल जैसे हिंदी के विरल कवि के साथ जुड़ाव के लिए जाना जाता था। पेज वन ऐंकर (शायद ऑल एडिशन, क्योंकि शिमला संस्करण की ख़बर लखनऊ में भी छपी है) के रूप में इस ख़बर का छपना बताता है कि अमर उजाला के कुएँ में मनुवाद की भाँग घोटी जा रही है।
पढ़िए, मशहूर आलोचक वीरेंद्र यादव और नलिन रंजन सिंह ने इस पर क्या लिखा है-
तो अब ‘जूठन’ से सवर्ण आहत।
एबीवीपी द्वारा पाठ्यक्रम से हटाने की मांग।
गंगा सचमुच उल्टी बहने लगी हैं। हिमाचल प्रदेश के उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम में पढ़ाई जा रहीओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ को भाजपा के छात्र संगठन (एबीवीपी) ने इस आधार पर न पढ़ाए जाने की मांग की है क्योंकि इसको पढ़ाते हुए अध्यापकों की भावनाएं आहत होती हैं। मामला अंतरराष्ट्रीय हो गया है क्योंकि सवर्ण अध्यापकों ने धर्मगुरु दलाई लामा से अपनी शिकायत दर्ज कराई है। कौन कहता है कि यह मनुवाद की पुनर्स्थापना का दौर नहीं है!
आज ‘अमर उजाला’ ने संलग्न खबर छापते हुए यह ज्ञानवर्धन भी किया है कि ‘जूठन’ एक उपन्यास है जिसके लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि आजादी के पूर्व वर्ष 1913 में दिवंगत हो गए थे । यह खबर रिपोर्टर राकेश भारद्वाज की बाइलाइन के साथ प्रकाशित हुई है।
सचमुच अब कुएं में भांग नहीं जहर मिला हुआ है। किस दौर में आ गए हैं हम!
सुबह-सुबह ‘अमर उजाला’ ने ऐसा ज्ञान दिया कि हिन्दी साहित्य के जानकार हतप्रभ हो जायें। आप भी पढ़िये और सिर धुनिये..