भाऊ कहिन-4
बार – बार यही आदेश मिलता था – ह्यूमन एंगिल चाहिए । यानी मानवीय संस्पर्श की स्टोरीज । जिसका छुपा आशय था कि हमें कारसेवकों का शौर्य लिखना चाहिए ।
ठीक है कि बरातियों में शामिल कुछ मनबढों की हर ऊल – जुलूल फरमाइश का सुर तत्काल बजा देने की महारत मुझमें आ चुकी थी । मैं साहब की फरमाइश तुरन्त बजा देने का अभ्यस्त भी हो चुका था । इसीलिए अखबार में जरूरी भी था । लेकिन , यहां हालात दूसरे थे । मैं जो चाह रहा था , उसे न लिख पाने की अप्रतिहत बैचैनी महसूस कर रहा था ।
आज बाबरी ध्वंस जब फिर से लिख रहा हूं तो गाली देने वाले अपने भाइयों से कहना चाहता हूं कि यह एक कन्फेशन ( गुनाह कुबूलना ) और खुद को करेक्ट करना भी है ।
ऐसे हादसे फिर न हों मुल्क में इसीलिए राख कुरेदी है । किसी त्रासदी से मुक्ति का एक ही रास्ता है । उसकी भयावहता में रचनात्मकता , मानवीयता और लोकतांत्रिक – सेक्यूलर निष्ठा के साथ फिर उतरता महसूसा जाये और उसे समझने की कोशिश हो । इसलिए लिख रहा हूं और उस भयावहता में उसी दुःस्वप्न की सीढ़ी से उतर रहा हूं । यह सबक के लिए जरूरी है । इतिहास न भूलने और उससे सबक लेने के लिए ही तो होता है ।
भीड़ में दम घुट रहा था । उन्माद के और ऊपर उन्माद की कई लहरें दीवार की तरह दौड़ती चली आ थीं । जो हिन्दू मुसलमान दोनों ही की खुद चुकी जड़ों से बनी फांक में थी । इस खूंखार माहौल से हल्की भी असहमति जान पर बन सकती थी । हालांकि अनिल को यह समझाना भी मुश्किल था ।
6 दिसम्बर से पहले 5 दिसम्बर तक किसी को कुछ नहीं पता था । आज भले कोई दावा करे कि उसने भांप लिया था । 5 दिसम्बर की रात तकरीबन डेढ़ बजे हम दोनों रामजन्म भूमि या बाबरी मस्जिद के ठीक सामने , जहां कारसेवा होने वाली थी , उससे कुछ दूर एक ढूह पर खड़े थे । मुझे ख्याल नहीं था कि मैंने विश्वनाथ प्रताप सिंह की स्टाइल वाली फर की टोपी पहन रखी थी । दाढ़ी तो थी ही । कुछ आंखों ने घूरा तब मैंने गले में पड़ी रुद्राक्ष की माला अपनी कमीज के बाहर कर दी । आज भी देह में डर रेंग जाता है , यह सोचकर कि टोपी लगाकर मैंने कितनी भारी गलती की थी । तब एक बड़ा खतरा बस सट कर निकल गया । यहीं अनिल ने कहा था – कल यह मस्जिद नहीं बचेगी । उन्होंने कुछ सूंघ लिया था लेकिन उस समय अपनी यह शंका लखनऊ भेज पाने में हम असमर्थ थे । और यह बता देने का मतलब भी क्या था ?
हालांकि सुबह ही 5 दिसंबर को अशोक सिंघल ने अपनी प्रेस वार्ता में बताया था कि कारसेवा प्रतीकात्मक होगी । अंजुरी भर बालू और अंजुरी भर सरयू जल से कारसेवा शुरू होनी थी ।
हिंसक भीड़ कुछ मामलों में रहस्यमयी भी थी । अंध श्रद्धालुओं को बांध देने के लिए यहां काला जादू , आध्यात्मिक शक्तियां और प्रेत आत्माएं तक थीं । कहा जा रहा था – जो होने जा रहा है , सर्व शक्तिमान ईश्वर यही चाह रहा है । लोगों को कारसेवकों में क्रुद्ध हनुमान दिख रहे थे । और एक खास जमात के खिलाफ लगाये जा रहे नारों में प्रभु हनुमान का इस्तेमाल , मुझे लगता है किसी सनातन धर्मी के लिए भी असह्य होता ।
अखबारों में छपी वह तस्वीर भी याद आ रही है जिसमें बाबरी ढहा दिए जाने के बाद उल्लास से चहकती एक नेता , मुरली मनोहर जोशी के कन्धों पर लदी थीं । 6 दिसम्बर को इन नेताओं का भाषण चल रहा था । लगातार । साध्वी ऋतम्भरा चीख रहीं थीं – हिन्दू वीरों यह बाबरी मस्जिद नहीं बाबर की हड्डियां हैं । इन्हें तोड़ डालो ।
6 दिसंबर की सुबह हम दोनों अयोध्या के कोतवाल , ( कोई पण्डित जी , नाम नहीं याद आ रहा ) के घर मेथी का पराठा खा कर , जहां कार सेवा होनी थी , चले आये । बजरंग दल के कार्यकर्ता सुबह 7 बजे से ही विवादित ढांचे के सामने जुटने लगे । बताया गया कि 8 बजे से कारसेवा शुरू होगी । संघ के स्वयंसेवकों ने उस जमीन के चारो ओर हाथ में हाथ की जंजीर बना दी । और जो अवांछित लगा , उसे बाहर करने लगे । 11.30 बजे तक विश्व हिन्दू परिषद के लोगों ने हम जैसे बाहरियों को घसीट – घसीट कर बाहर कर दिया । 11. 45 बजे मस्जिद के पीछे वाले गेट से अशोक सिंघल परिसर में घुसे और कहीं गुम हो गए । अनिल ने उन्हें देखा । 11. 50 बजे इसी ओर से कारसेवकों का एक जत्था लोहे का गेट ढाह कर , मस्जिद की ओर दौड़ा ।
जिंदगी की जीत और लोकतंत्र के लिए मन में बचा कोई कोना भी आज ध्वस्त हो रहा था । केवल मस्जिद नहीं सारे मानवीय व्यवहार – आस्थाएं ध्वस्त हो रहीं थीं । अमानवीयता , क्रूरता और असहिष्णुता का नया राष्ट्रीय चरित्र अट्टहास कर रहा था । किसे बताते ? जो पहले कभी नहीं रहा ।
11.50 बजे कारसेवकों का जो जत्था , लोहे की गेट ढाह कर विवादित ढांचे की ओर दौड़ा , उसमें से कुछ उसकी दीवाल पर चढ़ गए । सीआरपीएफ के जवानों ने बहुत हल्का सा और तकरीबन दिखावटी प्रतिरोध किया । जो ढांचे की दीवाल के भीतर उसकी सुरक्षा के लिए थे । रही होगी उनकी 8 – 10 की तादाद । तब तक कारसेवकों की ओर से ईंट , पत्थर और बड़े -बड़े गुम्मों की बरसात कर दी गई । मस्जिद की सुरक्षा के लिए तैनात जवानों ने कुछ देर इसे अपनी बेंत वाली ढाल पर रोका और फिर जाने कहां बिला गए । विवादित ढांचे की ओर एक और जबरदस्त रेला बढ़ा । कुछ कारसेवकों ने पीएससी के जवानों द्वारा मुहैया कराये रस्से के जरिये लोहे का एक बड़ा सा कांटा , मस्जिद के गुम्बद पर फेंका और एक – एक कर उसपर चढ़ने लगे । मेरे ठीक बगल में खड़े अयोध्या के कोतवाल , जय श्रीराम … जय श्रीराम जप रहे थे । आंख मूदे । उन्हें पता तक नहीं चला कि कब उनके बगल में फैजाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक आ कर खड़े हो गए । नारा लग रहा था – जय श्रीराम , हो गया काम ।
.राघवेंद्र दुबे
(वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे उर्फ़ भाऊ अपने फ़क्कड़ अंदाज़ और निराली भाषा के लिए ख़ासतौर पर जाने जाते हैं। इन दिनों वे अपने पत्रकारीय जीवन की तमाम यादों के दस्तावेज़ तैयार कर रहे हैं। भाऊ 6 दिसंबर 1992 को साथी पत्रकार अनिल कुमार यादव के साथ अयोध्या में दैनिक जागरण रिपोर्टर बतौर मौजूद थे, जब बाबरी मस्जिद तोड़ी जा रही थी। भाऊ अपने संस्मरण में जिन राजशेखर को क़िस्सा सुना रहे हैं वे वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं जिन्होंने बड़े प्यार से भाऊ को यादों की वादियों में धकेल दिया है। )
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