न शाज़ी ज़माँ (अध्यक्ष बीईए) पहुँचे न एन.के.सिंह ( महासचिव, बीईए)। बीईए यानी ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन जिसने एनडीटीवी पर एक दिनी बैन के विरोध में बयान जारी किया था लेकिन उसके दोनों शीर्ष पदाधिकारी 7 नवंबर की शाम प्रेस क्लब में हुई बैन विरोधी सभा से नदारद थे। बीईए ही क्यों किसी भी हिंदी समाचार चैनल का कोई संपादक स्तर का व्यक्ति या जिसकी बतौर ऐंकर जनता के बीच कोई पहचान हो, प्रतिवाद के इस मोर्चे से नदारद था। अंग्रेज़ी चैनलों के गिने-चुने ही सही, कुछ चेहरे ज़रूर थे। प्रेस क्लब प्रांगण में हुई इस सभा में एनडीटीवी पर लगाये गये सरकारी बैन के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित किय गया। थोड़ी देर बाद ख़बर आ गई कि सरकार ने बैन के फैसले के स्थगित कर दिया है।
बहरहाल सभा हुई और ख़ूब हुई। बहुत दिनों बाद ऐसा जमावड़ा प्रेस क्लब में दिखा। एनडीटीवी के तो लगभग सभी चेहरे मौजूद थे। ऐसा लगा कि जो सभा अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर सरकारी रवैये के ख़िलाफ़ एक व्यापक समझ बनाने के लिए थी, वह एनडीटीवी पर सिमट गई। वरिष्ठ पत्रकार हरतोष सिंह बल ने सवाल उठाया भी कि जब बस्तर या कश्मीर में पत्रकारों के साथ होने वाली ज़्यादती का सवाल आता है तो एनडीटीवी के लोग नज़र नहीं आते। 20-25 लोग ही जुटते हैं। बहुत आसान है अपने संस्थान की सुरक्षित छतरी तले विरोध का झंडा बुलंद करना। बात तो तब है जब संस्थान के मालिको की राय की परवाह किये बिना बतौर पत्रकार अपनी बात रखी जाए।
इससे पहले राजदीप सरदेसाई ने शुरुआत करते हुए ही याद दिलाया था कि एनडीटीवी ने कुछ दिन पहले ही राष्ट्रहित में पी.चिदंबरम का इंटरव्यू दिखाने से इनकार कर
बहरहाल, एडिटर्स गिल्ड की सदस्य सीमा मुस्तफ़ा ने राजदीप की इस बात से नाइत्तेफ़ाक़ी जताई कि इमरजेंसी की याद दिलाना मसले को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना है । उन्होंने कहा कि इमरजेंसी के बाद पहली बार इस तरह से सीधे पत्रकारों और मीडिया संस्थानों पर सरकार के हमले हो रहे हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ का उदाहरण दिया जहाँ एडिटर्स गिल्ड की रिपोर्ट के मुताबित सरकार के दबाव की वजह से तमाम पत्रकार सूबा छोड़ने को मजबूर हुए हैं।
तमाम सवालों का जवाब एनडीटीवी की ओर से सोनिया सिंह ने दिया। उन्होंने चिदंबरम के इंटरव्यू न दिखाने के फैसले पर ‘असहमत होने पर सहमति’ का तर्क दिया लेकिन बाकी मुद्दों पर चुप्पी का यह कहकर बचाव किया कि उनका चैनल देश भर में हो रहे अत्याचारों से जुड़ी ख़बरें दिखाता है। उन्होंने पत्रकारों की एकजुटता और समर्थन के लिए धन्यवाद दिया।
इस बीच द टेलीग्राफ़ से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार जयंतो घोषाल ने एक दिलचस्प किस्सा सुनाया कि 1962 के चीन युद्ध के बाद हिंदुस्तान स्टैंडर्ड (टेलीग्राफ का पूर्वज) की किसी स्टोरी को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से नेहरू सरकार ने आपत्तिजनक माना था। दिल्ली से पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री प्रफुल्ल सेन को कार्रवाई के लिए लिखा गया, लेकिन अखबार के संपादक अशोक सरकार अपने रिपोर्टर के पक्ष में खड़े थे। मुख्यमंत्री ने लिखकर भेज दिया कि अख़बार का संपादक भारत के प्रधानमंत्री के साथ नहीं अपने रिपोर्टर के साथ खड़ा है।
बहरहाल, सरकार के ख़िलाफ़ निंदा प्रस्ताव के साथ सभा समाप्त हुई। तमाम वक़्ताओं ने मोदी सरकार के रवैये को लोकतंत्र के लिए ख़तरा बताया। सभा में जुटे तमाम युवा पत्रकार आगे की कार्रवाई के बारे में विचारविमर्श की ज़रूरत पर बात कर ही रहे थे कि ख़बर आ गई कि सरकार ने एनडीटीवी पर एक दिनी प्रतिबंध के फ़ैसले को स्थगित कर दिया है।
तो क्या पत्रकारों की एकजुटता से घबराकर सरकार ने क़दम पीछे खींच लिए ? क्या उन संपादकों की अनुपस्थिति की सरकार की नज़र में कोई अहमियत नहीं थी जिन्हें इस सभा में होना था…सरकार के ख़िलाफ़ बोलना था। उनकी चुप्पी से सरकार को राहत न मिली तो फिर उनकी हैसियत क्या रही ?