वृन्दावन में 14-15 अक्टूबर को हुए नास्तिक सम्मेलन पर धार्मिक मठाधीशों और राजनीतिक गुंडों के हमले की खबर ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान खींचा . लेकिन इस हमले में स्थानीय अखबारों की भूमिका अनदेखी रह गई है . सचाई यह है कि सक्रिय जनसमर्थन के न होने के बावजूद धर्मध्वजाधारी हमलावर केवल अखबारों के बलबूते अभिव्यक्ति की आज़ादी के विरुद्ध आतंक का वातावरण बना पाने में क़ामयाब रहे . यह कोशिश आज भी जारी है . इसमें दैनिक जागरण के मथुरा संस्करण की मुख्य भूमिका है . लोकतंत्र की इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि जिस मीडिया को उसका चौथा खम्भा बताया गया है , वही उसके विनाश का हथियार बन जाए . सेवंती निनान ने 2007 में आयी ‘हेडलाइंस इन हार्टलैंड’ नामक अपनी शोध-आधारित पुस्तक में हिंदी अखबारों के इस एतिहासिक भूमिका-परिवर्तन की रूपरेखा पेश की है . उन्होंने दिखाया है कि अयोध्या के नाम पर हिंदी क्षेत्र में सांप्रदायिक जहर बोने के जिस अभियान के सहारे भाजपा ने अपनी ताकत बधाई , उसी का इस्तेमाल जागरण जैसे अखबारों ने अपनी पाठक-संख्या बढाने के लिए किया . इस प्रकार भारत में फासीवादी राजनीति को सुदृढ़ करने के अभियान के सचेत और सक्रिय भागीदार बने . विभिन्न शहरों में झूठी अफवाहों के सहारे भीषण दंगे भडकाने तक के गम्भीर इल्जाम इन अखबारों पर आयद हुए , लेकिन इन्हें कभी शर्म नहीं आई .
गाँवों, कस्बों और शहरों में हिंदी अखबारों की दंगाई भूमिका हमारे लोकतंत्र का सबसे भयानक सच है . इसका कारण है इन अखबारों की लगातार बढती विराट पाठक संख्या . साक्षरता की स्थिति में उल्लेखनीय सुधार और वंचित तबकों तक शिक्षा के प्रसार के कारण हिंदी अखबार जमीनी स्थ पर जनमत के निर्माण के प्रमुख माध्यम बन गए हैं . केवल टेलीविज़न ही इन्हें चुनौती देने की स्थिति में है , लेकिन अखबार की मारक क्षमता कई गुने ज़्यादा है . एक तो मुद्रित अक्षर पर जनसाधारण का भरोसा अब तक पूरी तरह टूटा नहीं है . दूसरे अखबार अक्सर सुबह की चाय के साथ सुकून और इत्मीनान के साथ पढ़े जाते हैं . यह प्रक्रिया टेलीविज़न की लगातार चलती बमबारी की तुलना में अधिक असरदार साबित होती है .
ऊलजलूल सवालों के बावजूद ये पत्रकार प्रेस-कांफ्रेंस से कोई काम लायक विवादास्पद बयान न जुटा सके . ऐसा कुछ मिला नहीं , जिससे कोई उत्तेजक सुर्खी बनाई जा सके . ऐसे में एक जिम्मेदार अखबार को प्रेस कांफ्रेंस के आधार पर नास्तिक सम्मेलन के उद्देश्य के बारे में संतुलित खबर छापनी चाहिए थी. ऐसा न करके अखबारों ने चंद धर्म-व्यवसायियों के दुर्भावनाग्रस्त बयानों पर फोकस किया और इस तरह की सुर्खियाँ बनाई – ‘ नास्तिक सम्मेलन के पहले ही गरमाया वृन्दावन.'( दैनिक जागरण , मथुरा , 13 अक्टूबर ) . जैसे शहर में वैचारिक-बौद्धिक गतिविधि की जगह कोई सियासी और मजहबी जंग होने जा रही हो ! ऐसी सुर्खियाँ सनसनी तो फैलाती ही है, सम्मेलन के खिलाफ़ नकारात्मक माहौल बनाने के काम भी आती हैं.
सुर्खी की पीछे छुपी हुई नीयत आने वाले दिनों की सुर्ख़ियों से साफ़ हो जाती है . 14 तारीख के उपद्रव के बाद 15 तारीख़ को जागरण की सुर्खी यों बनी – ” तनाव के बाद भी सोता रहा प्रशासन / एक दिन पहले ही टकराव के थे हालात , फिर भी नहीं लगाईए रोक “. मजे की बात यह है कि इसी अखबार ने “नास्तिक सम्मेलन पर हंगामा , पथराव” शीर्षक से उपद्रव की खबर छापी है , जिसमें शांतिपूर्ण बौद्धिक सम्मेलन पर हिंसक तत्वों द्वारा किए गए हमले पथराव , आगजनी कोशिश , अतिथियों के साथ मारपीट का विवरण दिया गया है , तो भी अखबार प्रशासन से संवैधानिक आजादियों की धज्जियां उड़ाने वाले गुंडा तत्वों पर रोक लगाने की मांग करने की जगह आयोजन पर ही रोक लगाने की मांग कर रहा है ! स्पष्ट है कि अखबार ने पत्रकार के दायित्व और लोकतांत्रिक नैतिकता की बलि चढ़ा दी है और गुंडा तवों के साथ खड़ा हो गया है . इतना ही नहीं , तथ्यों के साथ छेड़ छाड़ करने से भी उसे गुरेज़ नहीं है .
“नास्तिक सम्मेलन पर हंगामा , पथराव” शीर्षक खबर में यह बात साफ़ छुपा दी गई कि गुंडों ने दिल्ली से आईं महिला पत्रकार को सड़क पर घसीटा , उनके साथ मारपीट की और उनका कैमरा तोड़ने की कोशिश की . पत्रकारिता का इससे अधिक पतन क्या होगा गुंडों द्वारा पत्रकारों पर हो रहे हमले की खबर को भी दबा दिया जाए . अन्य अखबारों ने इस खबर को प्रकाशित किया है . घटना की रिकार्डिंग भी मौजूद है . उक्त खबर में गुंडों के हवाले से आई यह झूठी खबर भी बिना किसी जांच पड़ताल के छाप दी गई कि आयोजक ने गुंडों से लिखित माफ़ी माँगी . अगले दिन आयोजक की ओर से इस खबर का लिखित खंडन भेजा गया , लेकिन उसे छापा नहीं गया . अगले कई दिनों तक अखबार धार्मिक-लबादा-धारी गुंडों की एकतरफा खबरें छपता रहा . इन हमलों की देश और दुनिया में हो रही निंदा की उसने कोई नोटिस नहीं ली .
इतना सब करने के बाद भी धर्मध्वजाधारी गिरोह जनता की भावनाएं भड़का पाने में नाकाम रहा . मुट्ठी भर भर निहित स्वार्थी तत्व अखबार के सहयोग से शहर में उपद्रव खड़ा करने के जो सपने देख रहे थे , वे पूरे नहीं हुए . हताश होकर उन्होंने निजी चरित्रहनन का ब्रह्मास्त्र चलाने का फैसला किया . नीचता की सारी हदें पार करते हुए उन्होंने बालेंदुजी की जर्मन पत्नी पर निशाना साधा . वर्षों से वृन्दावन में रह रहीं और हिंदी तथा भारतीय संस्कृति में आपादमस्तक रम चुकीं रमोना की जर्मन पृष्ठभूमि को उछालते हुए कहा गया कि सम्मेलन के पीछे ” विदेशी साजिश ” थी. प्रमाण कौन माँगता है ? पत्नी विदेशी तो विदेशी साजिश में क्या संदेह ! ये वही बाबालोग हैं , जो धार्मिक मठों में चलने वाले संगठित व्यभिचार पर ज़रा शर्मिंदा नहीं होते , लेकिन नास्तिक आश्रम में विदेशी स्त्री अतिथियों को देखते ही इसे अनैतिक व्यापार का अड्डा घोषित करते फूले नहीं समाते . इन छद्म बाबाओं से क्या अपेक्षा की जाए , लेकिन अखबार भी क्या कम हैं , जो कमीनगी से भरे ऐसे निराधार खबरों को भी बिना किसी पुष्टि या क्रासचेकिंग के छाप देते हैं .( देखिए , जागरण , मथुरा , 22 अक्टूबर “नास्तिक सम्मेलन के पीछे विदेशी साजिश .” बालेन्दु जी के भाई पूर्णेंदु पर सफाई कर्मचारी के विरुद्ध जातिसूचक शब्दों के प्रयोग की काल्पनिक खबर भी इससे तरह बिना किसी जांच के छाप दी गई . यह तब जबकि पूर्णेंदु शहर से बाहर गए हुए थे और आरोपित घटनास्थल पर लगे हुई सीसीटीवी कैमरे में ऐसी कोई घटना दर्ज़ भी नहीं है . यह सीधे सीधे गुंडों के दुष्प्रचार का अखबारी भोंपू बन जाना नहीं तो और क्या है !
हिंदी अखबारों के कस्बाई संस्करणों की षड्यंत्रकारी भूमिका और पत्रकारिता के पेशे के साथ की जा रही धोखाधड़ी की अनदेखी करना खतरनाक हो सकता है . उत्तर प्रदेश में चुनाव का माहौल है .इस चुनाव में कुछ राजनीतिक पार्टियों ने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को अपनी मुख्य रणनीति मान लिया है . ऐसे में जागरण जैसे अखबार बिक्री बढाने के लिए बहुसंख्यक सम्प्रदाय से जुडी साम्प्रदायिक भावनाएं भडकाने की अपनी सोची समझी और पहले सफलतापूर्वक आजमाई जा चुकी रणनीति को दुहरा सकते हैं. भारतीय लोकतंत्र के लिए इसके नतीजे कितने भयानक और दूरगामी होंगे , इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है .
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं।)