अरसा पहले जब मैं स्टार न्यूज़ के मुलाज़िम बतौर लखनऊ में तैनात था तो एक सहयोगी भी थे जिन्हें अपने ब्राह्मण होने पर काफ़ी ग़रूर था। साथ ही मुसलमानों के ख़िलाफ नफ़रत से भी सराबोर थे जो किसी न किसी बहाने फूट ही पड़ती थी। दफ़्तर का एक असिस्टेंज जो मुस्लिम था, अक़्सर उनकी ख़ुन्नस का शिकार हो जाता था। पाकिस्तान की टीम की हार-जीत से उसे जोड़कर ताना देना तो आम बात थी। लेकिन एक बार पंडित जी मेरे सामने उसे ‘कटुआ’ कहकर बुलाने लगे। मुझसे बरदाश्त नहीं हुआ और मैं उन पर बहुत तेज़ी से बिगड़ा। आख़िर में उन्होंने मुँह बनाते हुए कहा- अब कटुआ को कटुआ न कहें तो क्या कहें?
यानी यह उनके लिए एक स्वाभाविक बात थी ।
नफ़रत की ऐसी ही तमाम स्वाभाविक अभिव्यक्तियाँ आजकल आला दर्जा हासिल कर चुके पत्रकारों की भी पहचान बनती जा रही है। एनआईटी में पुलिसिया लाठीचार्ज पर मीडिया के बड़े हिस्से का रुख़ इसकी मिसाल है। हाल यह है कि जम्मू कश्मीर के पुलिस अफ़सरों को खुल कर कहना पड़ रहा है कि उन्हें अर्णव गोस्वामी से राष्ट्रवाद का पाठ नहीं पढ़ना है। ज़रा एसएसपी क्राइम ब्राँच मुबस्सिर लतीफ़ी और डिप्टी एस.पी. फ़ीरोज़ यहिया की फेसबुक पोस्ट देखिये–
Posted by Mubassir Latifi on Wednesday, April 6, 2016
Many of my colleagues have been asking and many more must be thinking “whose war are we fighting?”…… All I can tell…
Posted by Firoz Yehya on Wednesday, April 6, 2016
उनका गुस्सा सिर्फ एक गोस्वामी के ख़िलाफ़ नहीं, उस पूरी एंकर बिरादरी के ख़िलाफ़ है जिन्होंने एनआईटी छात्रों पर हुए लाठीचार्ज को लेकर कुछ इस तरह चीख़-पुकार मचायी, गोया कश्मीर की पुलिस किसी दूसरे देश की हो और वह भारत के संविधान और नियम-क़ानून से बिलकु अनजान हो। संविधान की शपथ, वर्दी पर अशोक चिन्ह और गाड़ियों पर तिरंगा लगाने के बावजूद पुलिस की निष्ठा संदिग्ध है ( ख़ासतौर पर अगर वे कश्मीर के मुसलमान हैं।)
(हाँलाकि कुछ अपवाद भी हैं और पुलिस अफ़सरों को शायद यह नहीं पता कि सारे एँकर अर्णव जैसे भाग्यशाली नहीं होते। उन्हें क्या और किस लाइन पर बोलना है यह प्रोड्यूसर से लेकर एडिटर तक का एक संगठित सिलसिला तय करता है।)
बहरहाल, इतना तो साफ़ है कि न्यूज़ चैनलों की चीख़ पुकार ने जम्मू-कश्मीर की पुलिस को बुरी तरह आहत किया। बात साफ़-साफ़ तो नहीं कही गई लेकिन इशारा यही है कि मुसलमान होने की वजह से जम्मू-कश्मीर के पुलिस अफ़सरों की राष्ट्रनिष्ठा पर सवाल उठाया गया।
इसमें शक नहीं कि यह ‘स्टीरियोटाइप’ कश्मीरियों में अलगाव की भावना बढ़ायेगा । ज़्यादातर पत्रकार कश्मीर को ‘चीर देंगे-खीर देंगे’ टाइप नारों से समझते हुए पले-बढ़े हैं। उनके लिए यह समझ पाना वाक़ई मुश्किल है कि भारत की बात करने वाले छात्रों पर लाठीचार्ज कैसे हो सकता है जबकि सरकार में बीजेपी जैसी ‘राष्ट्रवादी’ पार्टी भी शामिल है।
ज़्यादातर अख़बारों और चैनलों में इस बात का उल्लेख भी नहीं मिलता कि टी-20 विश्वकप से पाकिस्तान के बाहर होने पर गैरकश्मीरी छात्रों ने कश्मीरी छात्रों को ताना मारा या भारत माता की जय न बोलने पर एक कूरियर वाले लड़के की जमकर पिटाई की गई। यहाँ तक कि पूरा वीडियो भी नहीं दिखाया जाता। यानी आप यह तो जान सकते हैं कि पुलिस ने छात्रों की पिटाई की, लेकिन यह नहीं जान पायेंगे कि छात्रों ने पुलिस पर पत्थर फेंके। यहिया लतीफ़ ने सोशल साइट पर तंज कसा है-—
“पूरा वीडियो दिखाना ‘ज़ीरो डिबेट और लो टीआरपी’ वाली बात होती। बेहतर है कि वीडियो का कोई एक टुकड़ा दिखाकर कमअक़्ल लोगों को भड़काया जाये। सब धंधा ही है”
तो क्या कश्मीर की पुलिस दूध की धुली है? बिलकुल नहीं। वैसे भावनी प्रसाद मिश्र कह गये हैं कि दूध कोई धोबी नहीं है, लेकिन हो तो भी कश्मीर पुलिस के दाग नहीं धुल सकते। वह उतनी ही बुरी है जितनी कि देश के किसी भी राज्य की पुलिस। सरकार के इशारे पर, गलत सही की परवाह किये बगैर डंडा चलाना और चलाते रहना कन्याकुमारी पुलिस की भी पहचान है और कश्मीर की भी। पत्थरबाज़ी करने के लिए अगर एनआईटी के छात्र एक बार पिटे हैं तो श्रीनगर की तमाम गलियों में पत्थरबाज़ी करने वाले मुस्लिम लड़कों की पिटाई करना कश्मीर पुलिस के लिए रोज़ की वर्ज़िश की तरह रहा है।
आपने कभी ग़ौर किया कि कश्मीर पर चैनलों पर चर्चा के दौरान कुछ चुने हुए चेहरे हमेशा मौजूद रहते हैं। उसमें एक चेहरा है फ़िल्मकार होने का दावा करने वाले अशोक पंडित का। उनका मानना है कि जम्मू-कश्मीर पुलिस दरअस्ल वर्दी में आतंकवादी हैं। ऐसी ज़ेहनियत वाले शख़्श का चैनलों पर सम्मानित अतिथि बतौर अवतरित होना, संपादकों की दिमाग़ी हालत का पता देता है। ज़रा पंडित जी के इस ट्वीट पर नज़र डालें
We always said #J&K police are #terrorists in the police uniform.Their heart has always been with #Pakistan.#NITCampusTension
— Ashoke Pandit (@ashokepandit) April 7, 2016
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अशोक पंडित को एक जवाब इम्तियाज़ हुसैन की ओर से मिला है जो ख़ासा ग़ौर करने लायक है। वे बताते हैं कि कैसे आतंकवादियों से संघर्ष में जान गँवाने वाले पुलिस के जवानों के शव तिरंगे में लिपटकर घर वापस आते हैं।
100s of our colleagues inJKP hv gone bck 2 deir homes in coffins wrapped in #Tiranga fighting to uphold it’s honour.Stand with #JKP #NIT
— Imtiyaz Hussain (@hussain_imtiyaz) April 8, 2016
बहरहाल,चैनल अशोक पंडित की ही सुनेंगे। क्योंकि यह शख़्स उनके मन की बात कह रहा है। मुझे चैनलों के एंकरों की बातें सुनकर मुसलमान को कटुआ कहकर बुलाने वाले सहयोगी की याद यूँ ही तो नहीं आती !
स्वभाव में घृणा को जगह देने वाले अब पूरी तरह घृणित स्वभाव वाले पत्रकार में बदल चुके हैं। और यह अफ़सोस से कुछ ज़्यादा करने की बात है !
(लेखक टीवी पत्रकार रहे हैं।)