सुप्रीत कौर इस सच की निशानी हैं कि काम में काम की मर्यादा से बड़ा और कुछ नहीं होता!

शशिभूषण

आज टाइम्स ऑफ़ इंडिया में जब छत्तीसगढ़ के न्यूज़ चैनल IBC 24 की एंकर सुप्रीत कौर के काम के बारे में पढ़ा तो अंग्रेज़ी कुछ खास न जानने के बावजूद मन भर आया।

सुप्रीत कौर चैनल में जिस वक्त ऑन एयर थी उसी वक्त एक रोड एक्सीडेंट की खबर ब्रेक हुई। सुप्रीत कौर ने समाचार देना शुरू किया तभी संवाददाता ने जो डिटेल्स दिये उन दृश्यों से पता चला कि सड़क दुर्घटना में सुप्रीत कौर के ही पति की मौत हो चुकी है। सुप्रीत ने विचलित हुए बिना अपनी ड्यूटी पूरी की।

यह पहाड़ टूटने जैसे घोर दुःख के बीच कर्तव्य पालन की बड़ी इंसानी मिसाल है। बड़े बड़े हिम्मतवर सुध बुध खो देते हैं, सदमें में चले जाते हैं। सुप्रीत कौर जैसी इंसानियत और शख्सियत का होना कितने भी बड़े दुख के बावजूद ईमानदार कर्तव्य पालन की एक जीती जागती घटना है। इसे कभी न भुलाया जा सकेगा!

मुझे बीते सालों की एक बात याद आती है-

2003 या 2004 का साल रहा होगा। मई जून की चिलचिलाती, लू भरी गर्मियों के दिन। आकाशवाणी रीवा में मेरी एनाउंसमेंट की नाइट ड्यूटी थी। मैं नया नया था। काम बड़ा और ज़िम्मेदारी भरा होता था। भीतर से डर और धुकधुकी जाते ही न थे। संयोग से उस दिन युववाणी और चौपाल दोनों के कम्पियर की ड्यूटी नहीं लगी थी। सब मुझे ही करना था। ड्यूटी बड़ी पैक्ड थी। मैं गांव से दोपहर में ही आ गया था। कोई दिली बात थी कि मैंने खाना नहीं खाया था और तबियत भी ख़राब थी।

ड्यूटी ठीक-ठाक शुरू हुई। सब ठीक ठाक जा रहा था। लेकिन कमजोरी से हिम्मत चुक रही थी। सीनियर एनाउंसर तनुजा मित्रा जिन्हें मैं तनुजा दीदी कहता हूँ और जिनके लिए मेरे दिल में अमिट लगाव और सम्मान है ड्यूटी ऑफिसर थीं। तनुजा दीदी कभी न हलके मूड में दिखती थीं न माफ़ करनेवाली। सदा एक सा अनुशासन और कड़ाई। वे थोड़ी नरम और मिलनसार केवल तब लगतीं थीं जब रात के 9 बजे के आस-पास खाने के लिए पूछतीं और खुद खाना खाने के बाद पान खाकर इत्मीनान से पांच दस मिनट के लिए बैठतीं। तब वे बड़ी खिलकर देखतीं थीं और कोई न कोई ताकत की बात बोलतीं थीं।

तनुजा दीदी बहुत कीन थीं। प्यारी आवाज़ की धनी एनाउंसर। बेटे बहु के साथ रहतीं थीं। पति बहुत पहले गुज़र गये थे। मैंने उनसे बहुत रेडियो सीखा। कोई फॉल्ट तनुजा दीदी से रिपोर्ट होने से नहीं बच पाती थीं। लेकिन वे डांटती नहीं थीं। कुछ खास दूसरों की तरह स्टूडियो आकर कुछ नहीं कहती थीं। ज़लील करना उनके स्वभाव में ही नहीं था। वे सबसे वाजिब दूरी रखतीं थीं लेकिन उसमें बड़ी आत्मीयता, सौजन्य और सम्मान भी रहते थे। लेकिन ख़ाली होने पर ड्यूटी रूम में दरयाफ्त ज़रूर करती थीं। क्या क्या गलती हुई? उनके पूछने में ही दम और सच निकल आते थे। भीतर भीतर कुछ चुभ भी जाता था।

उस दिन मुझसे विज्ञापन छूट गया था, फ़िलर नहीं बज पाया था और गोइंग ओवर एनाउंसमेंट में निजी उदासी चली गयी थी।

तनुजा दीदी ने मेरी ग़लती मुझसे ही सुनकर गलती हो गयी के जवाब में कहा- शशिभूषण, तुम ग़लती करने के लिए स्टूडियो में नहीं होते हो। स्टूडियो निजी सुख-दुख की जगह नहीं है। एक बार कंसोल के सामने बैठो तो घर परिवार भुला दो। एनाउंसमेंट भले तुम करते हो लेकिन वे तुम्हारी भावनाओं के लिए नहीं हैं। रेडियो सुनने वाले लाखों लोग तुम्हें नहीं प्रोग्राम सुनने के लिए रेडियो चालू करते हैं।

और भी कई बातें थीं। उस दिन ही ये सबक मिला कि कैसे लोग अपने हिस्से का काम करते हैं। काम में काम की मर्यादा से बड़ा कुछ नहीं। अपना काम करो और फालतू उलझो मत। मैं भावुक हो चला था। लेकिन तनुजा दीदी निस्पृह थीं। मुझे तनुजा दीदी से दूसरी सीख या कहिए सपोर्ट यह मिले कि बहस करना कभी नहीं छोड़ना। मैंने कहा था कि मैं हमेशा बहस में पड़ जाता हूँ और इससे बड़े दुख और नुकसान मिलते हैं। तनुजा दीदी ने शांत भाव से कहा- तुम बहस करना छोड दोगे तो अपना बड़ा नुकसान करोगे। तर्क तुम्हारे स्वभाव में है। नाराज़गी की परवाह मत करो। अपने स्वभाव के साथ ही आगे बढ़ना चाहिए।

तनुजा दीदी के जीवन के दुःख याद करता हूँ तो उनकी ड्यूटी, आवाज़ और सीखें और प्यारी हो उठती हैं। उनकी सीखें मंत्र सरीखी लगती हैं। सालों हो गये उनकी कोई खबर नहीं। लेकिन वे कभी भूल नहीं सकतीं।

आज यही खयाल आता है कोई चाहे जहाँ है लेकिन अपना काम सच्चाई से करता है तो दुनिया उसी से चलती है। संसार सच्चाई से ही चल रहा। इतनी चीज़ें ठीक ठाक है तो जाने अनजाने लोगों की ईमानदार, नि:स्वार्थ मेहनत से ही

अच्छे लोग अपने काम से एक दिन अवश्य जाने जाते हैं। ज़िन्दगी का कुछ ठीक नहीं आज है कल न रहे। लेकिन काम रहते हैं।

सुप्रीत के लिए सैल्यूट और संवेदनाएं…

(लेखक शिक्षक और आकाशवाणी में उद्घोषक हैं। टिप्‍पणी उनकी फेसबुक दीवार से साभार है)

 

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