प्रिय डॉ.प्रणय रॉय,
नमस्कार।
मैं एक मामूली पत्रकार हूँ और आपके घर पड़े सीबीआई छापे के ख़िलाफ़ 9 जून को प्रेस क्लब में आयोजित विरोध सभा में शामिल था। वहाँ मंच से तमाम वरिष्ठ पत्रकारों और फली नरीमन जैसे न्यायविद् के भाषण सुनने के बाद मुझे शक़ नहीं रहा कि आप मोदी सरकार के सामने घुटना ना टेकने की वजह से अत्याचार के शिकार हो रहे हैं। आपके ख़िलाफ़ हो रही कार्रवाई दरअसल पत्रकारों को डराने की कोशिश है। इसके पीछे कोई सीबीआई या ईडी नहीं, ख़ुद सरकार है। जैसा आपने ख़ुद कहा- ‘वे बताना चाहते हैं दोषी होना ज़रूरी नहीं, निर्दोष होने पर भी भुगतना पड़ेगा।’
मैं पत्र यह सोचकर लिख रहा हूँ कि आप इन दिनों आंदोलनकारी मुद्रा में हैं और शायद यह जानने में आपकी दिलचस्पी हो कि आपके साथ खड़े तमाम पत्रकार आपकी लड़ाई के बारे में क्या सोचते हैं।
प्रेस क्लब में जब आपने मुट्ठी तानकर संघर्ष का ऐलान किया था, तो मैं वाक़ई रोमांचित हो उठा था। मुझे आपकी शर्ट कत्थई नहीं लाल लग रही थी और मन ही मन मैं आपके दाढ़ी वाले चेहरे की तुलना चेग्वारा से करने लगा था। यक़ीन मानिए मैं व्यंग्य नहीं कर रहा हूँ। ना मुझे वहाँ भाषण देने वाले तमाम लोगों की अतीत या नीयत को लेकर कोई सवाल उठाना है। मैं तो बस उस क्षण को इतिहास में दर्ज होते देखना चाहता हूँ जब आपने प्रेस क्लब में प्रेस की आज़ादी के लिए संघर्ष का ऐलान किया ।
लेकिन आज चार दिन बाद मेरे सामने एक सवाल खड़ा हो गया है। सवाल यह कि तमाम छोटे-बड़े पत्रकार तो डॉ.प्रणय रॉय की लड़ाई में उनके साथ हैं, पर क्या डॉ.राय भी पत्रकारों की लड़ाई में उनका साथ देंगे ? दरअसल, मुझे अचानक ख़्याल आ गया कि आप एनडीटीवी के मालिक हैं जबकि प्रेस क्लब में मौजूद, या देश भर में आपकी लड़ाई में साथ देना अपना धर्म मानने वाले पत्रकार महज़ मज़दूर हैं। क्या मालिक और मज़दूर की लड़ाई एक हो सकती है ?
हाँ, मैं जानता हूँ कि आप कोई क्रूर टाइप के मालिक नहीं हैं। आपकी उदारता का मैं गवाह हूँ। मुझे याद है कि कैसे आज से करीब 11 साल पहले जब मैं स्टार न्यूज़ का संवाददाता था, एनडीटीवी के एक पत्रकार ने अपनी तनख़्वाह अचानक सवा लाख रुपये हो जाने की थरथराती हुई ख़ुशी मुझसे बाँटी थी। यह भी याद है कि उसी समय आपने तमाम पत्रकारों को तोहफ़े में कार भी दी थी। दो-चार दिन की छुट्टी माँगते समय अपराधबोध से गड़ जाने वाले हम पत्रकारों के लिए यह यक़ीन करना मुश्किल था कि आपकी कंपनी में छुट्टी लेने के लिए बाक़ायदा प्रेरित किया जाता है। एच.आर.डिपार्टमेंट से इस बाबत मेल आते थे।
यह आपकी उदारता से ही संभव हुआ कि हिंदी को रवीश कुमार जैसा एक ‘सेलिब्रिटी’ और ‘साहसी’ पत्रकार मिला। मैं रवीश की क़ाबिलियत को कम करके नहीं आँक रहा हूँ, लेकिन यह जानता हूँ कि ढाई-तीन टीआरपी के बावजूद अगर रवीश बेधड़क अपना काम कर रहे हैं तो वजह आप ही हैं। आपकी उदारता की इंतेहा तो यह है कि भ्रष्ट उच्चारण और मसाला दाँतों में लटपटाती ज़बान के साथ भी कोई एनडीटीवी में ऐंकर हो सकता है। यहाँ तक कि अपनी ग़लत रिपोर्टिंग की वजह से निर्दोष को आतंकी बताकर जेल पहँचाने वाला रिपोर्टर भी किसी संकट में नहीं पड़ता। मुझे शक़ है कि आप अंग्रेज़ी चैनल में ऐसा होने देते।
लेकिन क्या यह सच नहीं कि आपको यह हक़ हासिल है कि आप एनडीटीवी से किसी भी पत्रकार को कभी भी चलता कर सकें ? क्या हमारे दौर की सबसे ख़ौफ़नाक हक़ीक़त नहीं है कि आज हिंदुस्तानी पत्रकार अपनी नौकरी जाने को लेकर बेहद डरा हुआ है ? उसे सिर झुकाकर वही लिखना होता है जो उससे कहा जाता है। कभी अख़बारों में पत्रकारों को क़ानून से सेवा सुरक्षा हासिल थी लेकिन उनके कॉरपोरेट होते जाने के क्रम में यह सिर्फ़ धोखे की टट्टी साबित हो रहा है।
कुल मिलाकर स्वतंत्र भारत में आज़ाद पत्रकारिता के संकल्प को समाचार समूह के मालिकों ने कूड़े के ढेर में फेंक दिया है। जबकि आज़ादी के बाद श्रमजीवी पत्रकार ऐक्ट बना ही इसलिए था कि पत्रकार खुलकर, बेख़ौफ़ ढंग से लिख-बोल सकें। प्रेस की आज़ादी का मतलब मालिकों नहीं, बल्कि ‘पत्रकारो की आज़ादी’ से था।
यह हाल तब है जब अभी कथित ‘श्रम सुधार’ लागू नहीं हुए हैं और अख़बारों को ‘श्रमजीवी पत्रकार ऐक्ट’ का सम्मान करने का दिखावा करना पड़ता है। ऐसे में टीवी पत्रकारों का हाल सहज ही समझा जा सकता है जहाँ ऐसा कोई ऐक्ट लागू नहीं है। भविष्य को लेकर डर इतना है कि जिन्हें निकाला जाता है वे भी अदालत तक जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। 9 जून को भी दूसरे चैनलों के इक्का-दुक्का पत्रकार ही प्रेस क्लब जाने की हिम्मत कर सके। ज़्यादातर यह सोचकर दूर रहे कि कहीं उन्हें ‘विद्रोही ’ ना मान लिया जाए। कई तो पास के ‘मीडिया सेंटर’ में प्रेस क्लब की कार्यवाही एनडीटीवी पर देखते रहे, पर बाहर नहीं आए। वैसे, जिस जगह आप भाषण दे रहे थे, उसी जगह देश के विभिन्न इलाकों से लगभग हर महीने ही पीड़ित पत्रकार या उनकी टोली किसी मुद्दे पर न्याय माँगने आती है, तब वहाँ एनडीटीवी का कैमरा भी कहाँ होता है !
कहने का मतलब यह है कि पत्रकार अपने मालिक के साथ हुए अत्याचार की लड़ाई तो लड़ सकता है, लेकिन अपने साथ होने वाले अत्याचार पर कब और कैसे आवाज़ उठाए ? आप की लड़ाई ‘इनकम टैक्स’ की है और हमारी लड़ाई सिर्फ इतनी ‘इनकम’ की है कि परिवार सहित ज़िंदा रह सकें और बेख़ौफ़ लिख-पढ़ सकें !
प्रिय डॉ.राय, आपने प्रेस क्लब में जब कहा कि आपने अपने जीवन में कभी काले धन को हाथ नहीं लगाया और आपके सारे मकान (विदेश सहित) मेहनत की कमाई से ही ख़रीदे गए हैं तो यक़ीन ना करने का कोई कारण नहीं था। आपकी यह बात तो दिल में उतर गई कि आप तमाम अत्याचार के बावजूद बाक़ी ज़िंदगी हँसी-ख़ुशी ग़ुजारेंगे। आपका आत्मविश्वास देखने लायक़ था। लेकिन हम ऐसा नहीं कह सकते। हमारे पास बाक़ी ज़िंदगी हँसी-ख़ुशी गुज़ारने का कोई साधन नहीं है। हमें इसके लिए पल-पल लड़ना है। ‘सेवा सुरक्षा’ और ‘उचित वेतनमान’ की लड़ाई भारत में आज़ाद पत्रकारिता के भविष्य से जुड़ी लड़ाई है। यह संविधान और स्वतंत्रता संग्राम का संकल्प है, जिसके साथ सरकारों और पूँजीपतियों के गठजोड़ ने छल किया है। आपने ‘भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी’ के जिस उदाहरण से ‘चमचमाते चीनी घमंड’ को धूल में मिला देने का क़िस्सा प्रेस क्लब में सुनाया था, वह उसी संविधान की वजह से संभव हुआ है।
तो क्या आपसे अपील की जा सकती है कि श्रमजीवी पत्रकार ऐक्ट में टीवी और डिजिटल पत्रकारों को शामिल करने और मजीठिया वेतनमान लागू करने की लड़ाई को कम से कम एनडीटीवी मुद्दा बनाए ? इन सवालों को सभी राजनीतिक दलों के सामने रखकर उनका जवाब माँगे ? लोकतंत्र में संविधान और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना मीडिया का मुद्दा क्यों नहीं होना चाहिए ?
डॉ.साहब, हम आपकी लड़ाई में साथ हैं, पर क्या आप भी हमारी लड़ाई में साथ देंगे ? अगर आप सड़क पर उतरे ही हैं तो एक बार ख़ुद से यह सवाल ज़रूर पूछिएगा। हमारा क्या है, हम तो बर्बरीक के वंशज हैं…जिसको भी कमज़ोर देखेंगे, साथ खड़े हो जाएँगे। चाहे आप हों या कोई और !
शुभकामनाओं के साथ
(लेखक 20 साल से पत्रकारिता में हैं। दो साल पहले आईबीएन7 में एसोसिएट एडिटर थे जब उन्हें बरख़ास्त किया गया )