क्या पत्रकारिता की किसी किताब में किसी भी परिस्थिति में देश को युद्धोन्माद में झोंकना पत्रकारों का कर्तव्य बताया गया है। संपन्न देशों के बीच युद्ध की कामना करने वाले पागलों के सिवा कुछ हो सकते हैं ?
लेकिन नंबर 1 ‘आज तक’ तक कहता है-
युद्ध करो !
1962 का चीन से बदला लो।
और वह पागल नहीं है। वह सिर्फ दर्शकों को युद्धोन्माद के नशे में डुबो कर अपनी अंटी गरम करना चाहता है। इस नशे में डूबे हुए भकुआवे दर्शक इसी तरह उसे नंबर एक की कुर्सी पर बैठाए रहेंगे। सुप्रिय प्रसाद की कुर्सी बनी रहेगी। अरुण पुरी का बैंक बैलेंस उछाल मारता रहेगा।
वे जानते है कि उनके चाहने से युद्ध नहीं होगा। मोदी सरकार कितना भी डायलॉग बोले, युद्ध कोई विकल्प नहीं है। अगर उन्हें अपनी बात पर ज़रा भी यक़ीन होता तो वे कल्पना करते कि युद्ध के बाद का क्या दृश्य होगा। वे ज़रूर सोचते कि अगर गलती से भी कोई बम दिल्ली या एनसीआर में गिरा तो फिर उनका क्या होगा…हिरोशिमा के गलते शरीर की तस्वीरों में टीवी पर चमकते सितारों के चेहरों को सुपरइम्पोज़ करने पर कैसा लगेगा…!
ऐसा सोचना भी किसी को पागल कर सकता है। राजनेता भी इस ख़तरे से वाक़िफ़ हैं। इसीलिए एक सैनिक के बदले दस सिर लाने की माँग करने वाली सुषमा स्वराज विदेशमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद युद्ध नहीं संवाद पर ज़ोर दे रही हैं। उन्हें पता है कि उनकी डायलॉगबाज़ी का मक़सद सत्ता थी जो हासिल हो गई है। अब ख़ुद को संपादक की कुर्सी के योग्य साबित करना है।
दुनिया भर के पत्रकारों ने युद्ध की निर्थकता और इसके पीछे छिपी कारोबारी हवस का बार-बार खुलासा किया है। उन्होंने बताया है कि कैसे हथियार निर्माता कंपनियों और संसाधनों की वैश्विक लूट में जुटे पूँजीपतियों के इरादे इन युद्धों से पूरे होते हैं। इसे पूरा करने के लिए एम्बेडेड यानी नत्थी पत्रकारों का गिरोह कभी रासायनिक हथियारों का झूठ फैलाता है तो कभी जनता के अधिकारों का।
लेकिन भारत में पत्रकारिता का हाल उलटा है। ख़ासतौर पर हिंदी पत्रकारिता का। चैनलों के चंद्रगुप्तों का सारा ज्ञान और विवेक सिंहासन पर बैठते ही स्वाहा हो जाता है। उन्माद क़ामयाबी का अकेला मंत्र माना जाता है। गोबरपट्टी में फैले अंधविश्वास और पिछड़ेपन को नष्ट की जगह पुष्ट करने के इस कारोबार के दम पर वे अपनी छुट्टियाँ परिवार समेत ख़ूबसूरत विदेशी समुद्रतटों पर बिताते हैं और फ़ेसबुक पर तस्वीरें चेप कर लाइक लूटते हैं।
संसद में सुषमा स्वराज ने कहा है कि युद्ध नहीं संवाद से ही रास्ता निकलेगा। अगर सुषमा स्वराज ठीक हैं तो फिर ‘आज तक’ जैसे चैनल अपराधी हैं। ना.. ये बात मुहावरे में नहीं कही जा रही है। यह क़ानूनी मामला है। जिस आईआईएमसी से निकले सुप्रिय प्रसाद आज तक को इस हाल में पहुँचाकर प्रसन्न हैं, उसी संस्थान से निकले दिलीप ख़ान फे़सबुक पर यह लिख रहे हैं–
इस धारा में कहा गया है कि जब तक आतंकवादियों के ख़िलाफ़ अभियान पूरी तरह ख़त्म नहीं हो जाता, तब तक लाइव कवरेज नहीं हो सकती। हालांकि उस दौरान आजतक ने भी NDTV की तरह ही कवरेज किया था, लेकिन सरकार ने उसे नोटिस नहीं दिया था। हिंदुस्तान टाइम्स को भी नहीं।
इसी क़ानून में एक धारा है 6(1)(बी). धारा कहती है कि कोई भी चैनल ‘फ्रेंडली कंट्री’ की आलोचना नहीं कर सकता। अगर वो ऐसा करता है तो सरकार कार्रवाई करेगी। आजतक चीन को ‘कसाई’ कह रहा है। चीन भारत का ऑफिशियली मित्र देश है। आजतक विदेश नीति की लाइन से हटकर युद्धोन्माद फैला रहा है। कुछ दिन पहले ही विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने डायलॉग को रास्ता बताया था।
अब तक विदेश नीति के मामले में जेनेरली मीडिया वाले सरकार के साथ रहते थे। आलोचना होती थी, लेकिन युद्धोन्माद में पगलाए नहीं होते थे। ‘1962 का बदला’ आजतक स्टूडियो से ही ले लेना चाहता है। अंजना ओम कश्यप को कोई बॉर्डर पर क्यों नहीं भेज देता? ”
वहीं मीडिया शिक्षक और शोधार्थी विनीत कुमार आज तक की भाषा को लेकर गंभीर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं-
“यह है आपके देश के नंबर वन चैनल की भाषाः गर्व कीजिए.
“निर्ममता” के लिए देश के नंबर वन चैनल के पास दूसरा कोई शब्द नहीं है. होंगे भी नहीं क्योंकि वो तो भाषा समाज से चुनता है और समाज इसके लिए कसाई ही तो इस्तेमाल करता आया है. लेकिन
दिमाग पर जोर देकर पूछिए कि कसाई पेशेवर नाम है या फिर निर्ममता का पर्याय ? अब जब चैनल सरेआम एक पेशे के शब्द को लेकर निर्मम होने की छवि तैयार कर देगा तो अलग से ये संभव है कि देश के जो करोड़ों लोग टीवी को ही ज्ञान का अंतिम सत्य मानकर इन पर निर्भर रहते हैं( कई बार मजबूरी भी होती हैं), इससे कुछ अलग सोच सकें ?
चैनल आपको-हमें इसी तरह आहिस्ते-आहिस्ते क्रूर बनाता चलता है.”
पाठकों, क्या आपको नहीं लगता कि हिंदी के नंबर एक न्यूज़ चैनल के इस हाल पर अफ़सोस से कुछ ज़्यादा करने की ज़रूरत है।
बर्बरीक