नीतीश कुमार का पलटी मार कर संघ-बीजेपी की गोद में बैठ जाना राजनीतिक परंपरा के लिहाज़ से अनोखा नहीं है, लेकिन इसने बिहार के जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला है। कोई इसे ‘जनादेश घोटाला’ कह रहा है तो कोई उन्हें पुराना अवसरवादी बता रहा है। आलम यह है कि ‘नीतीशबाज़ी’ शब्द लोकोक्ति की तरह प्रचलित हो रहा है। ऐसे में साहित्य भी कहाँ अछूता रहता। बिहार के कवि और संस्कृतिकर्मी संतोष सहर ने इस पूरे प्रकरण को एक ‘कजरी’ की शक्ल में पेश किया है। यूँ भी महीना सावन का है जब कजरी ख़ूब गाई-सुनी जाती है। बिहार की कई सांस्कृतिक टीमें इस कजरी को गा रही हैं और लोग मज़ा ले रहे हैं। नीतीश को राजनीतिक विरोधियों से ज़्यादा इस सांस्कृतिक विरोध की चिंता करनी चाहिए। काव्य उन्हें अमर बना रहा है, जैसे जयचंद और मीर जाफ़र बने को बनाया था !
पढ़िए, संतोष सहर की यह कजरी-
अबकी सावन के कजरी
तनी लीला देखीं नीतीश कुमार के,
वोट के गद्दार के ना।
खइलें मोदी मोदक गोला, ओढलें रामनामी चोला
चाकर बनि गईलें संघ परिवार के,
भाजपा सरकार के ना।
आईल पिछला जब चुनाव,चढलें सेकुलर नाव
कहलें रक्छा करब भाजपा से बिहार के,
आई दिन बहार के ना।
लोगवा रहलें निराश, तब्बो कइलें विसवास
इनका वोट मिलल गांवा-गाईं झार के,
कुर्सी बिहार के ना।
सभे कहे सांची बात, इनका अँतड़ी में दाँत
मनवा लागत नाहीं रहे बिना यार के,
मोदी हतेयार के ना।
जब भईल नोटबन्दी, तुरते कईलन जुगलबन्दी
संगे नाचे लगलें सारा तन उघार के
दिल्ली दरबार के ना।
देखी सावन के फुहार, गरमी चढ़ल कपार
रट धईलन भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार के,
देखीं एह लबार के ना।
मेधा, बियाडा, खजाना, बा ना लूट के ठेकाना
ब्यापमं-पनामा से भेंटे अँकवार के
सोझे संसार के ना।
जेपी-लोहिया हैरान, चेला निकलल शैतान
राह धइलस गोलवलकर-हेडगवार के,
संग ग़द्दार के ना।
जाग छात्र-नौजवान, उठ मजदूर-किसान
लेल लाल झंडा कान्हे प संभार के,
घेर ललकार के ना।
कजरी गावे सन्तोष, एह में कवनो ना दोष
कारिख पोत मुंह में रँगल सियार के,
‘कपूत’ बिहार के ना।
-सन्तोष सहर