दो साल से ज्यादा वक़्त से जेल का मज़ा ले रहे सुब्रत राय सहारा इन दिनों पेरोल पर बाहर हैं। टीवी पर कंपनी के धुआँधार विज्ञापन चल रहे हैं और दसियों हज़ार को चूना लगाने का आरोप झेल रही कंपनी नया भ्रमजाल रचने में जुटी है। जेल में रहते हुए भी साहाराश्री के ऐशो-आराम की सही-ग़लत चर्चा हमेशा होती रही है, लेकिन एक बात जो पर्दे के पीछे ही रही, वह यह कि इस बीच सहारा के हज़ारों कर्मचारी भुखमरी के शिकार हो गये। उन्हें कई-कई महीने वेतन नहीं दिया गया, हाँलाकि सहारा के आला अधिकारियों और सहाराश्री के परिवार की चमक पर असर न पड़ा। सुब्रत राय, सहारा को कंपनी नहीं परिवार बताते रहे, लेकिन इससे उन्हे कोई फ़र्क नहीं पड़ा कि उनके परिजन भूख और बीमारी के शिकार हो रहे हैं या उनके बच्चों के नाम स्कूल से काटे जा रहे हैं।
बहरहाल, सहारा के कर्मचारी अब तमाम भ्रमों से निकलकर सड़क पर मुट्ठी बाँधकर खड़े हैं। उन्होंने आंदोलन तेज़ कर दिया है। जवाब में आज प्रबंधन ने 21 कर्मचारियों को बरख़ास्त कर दिया। अख़बार और टीवी के तमाम पत्रकारों को फिर से अहसास हुआ है कि मज़दूर चेतना से लैस हुए बिना उनकी मुक्ति नहीं है। गले में टाई बँधवाकर सहारा ने उनसे यह अहसास छीन लिया था।
”अपने 12 महीने के बकाया और नियमित वेतन की मांग को लेकर सहाराकर्मी एक बार फिर आंदोलित हैं लेकिन प्रबंधन ने आंदोलन को कुचलने के लिए 21 नेतृत्वकारी मीडियाकर्मियों को तत्काल प्रभाव से बर्खास्त करते हुए उनके कैंपस में घुसने पर रोक लगा दी है। इसके विरोध में सहाराकर्मियों ने गेट के बाहर ही धरना दिया और अब आगे की रणनीति बना रहे हैं।
सहारा में संकट की शुरुआत करीब सवा दो साल पहले मार्च 2014 में उस समय हुई जब सेबी की याचिका पर निवेशकों का पैसा न चुकाने के आरोप में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सहारा प्रमुख सुब्रत राय को गिरफ़्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया गया। हालांकि जेल में भी सुब्रत राय की सुविधाओं और विलासता में कोई कमी नहीं आई और उन्होंने वहां भी अपनी संपत्ति बेचने के लिए खरीदारों से डील करने के नाम पर वीआईपी गेस्ट हाउस किराये पर ले लिया। यानी तिहाड़ के कैंपस में गेस्ट हाउस ही सुब्रत राय की जेल बना दिया गया। लेकिन इधर एक रणनीति के तहत सुब्रत राय ने अपने मीडिया हाउस के कर्मचारियों के वेतन में देरी शुरू कर दी। इससे मीडियाकर्मियों व अन्य सहायक कर्मचारियों में असंतोष होना शुरू हो गया।
खुद के जेल में होने और फंड पर कोर्ट की रोक का हवाला देकर सुब्रत राय ने कर्मचारियों को बरगलाए रखा और इस तरह वेतन में देरी का समय धीरे-धीरे कर बढ़ता ही चला गया। पहले 10-15 दिन देरी से मिलने वाला वेतन पहले एक महीने और फिर दो महीने की देरी से मिलने लगा। इस तरह सहाराकर्मियों का बकाया बढ़ने लगा। साल भर यही चला। 2015 आते-आते कर्मचारियों का सब्र का बांध टूटने लगा। विरोध में आवाज़ें उठनी शुरू हुईं लेकिन हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर या दबाव बढ़ने पर आधे महीने की सैलरी जारी कर कर्मचारियों को शांत किया जाने लगा।
इस सबके चलते कर्मचारियों की आर्थिक हालत बहुत ख़राब होने लगी। पहले ही यहां कुछ ऊपर के अधिकारियों के अलावा आम कर्मचारियों की तनख्वाह कम थी, उसके भी समय पर न मिलने से कर्मचारियों के सामने संकट आ गया। फीस न भर पाने के कारण उनके बच्चों का स्कूल से नाम कटने लगा। गाड़ी और मकान की किस्त न भर पाने के कारण वे डिफाल्टर घोषित होने लगे। हद तो यहां तक पहुंच गई कि बच्चों के दूध और राशन का भी संकट होने लगा। इसके चलते बहुत से कर्मचारियों ने अपने बीवी-बच्चों को गांव भेज दिया और किसी तरह यहां गुजर-बसर करने लगे। लेकिन बिन पैसे इन महानगरों में क्या हो सकता है। इस सबके चलते कई साथियों ने सदमें, बीमारी और भुखमरी तक में अपनी जान गंवाई। कई गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हो गए।
जब स्थिति बद से बदतर हो गई तो जुलाई 2015 में अचानक आंदोलन शुरू हो गया और प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक के साथियों ने हड़ताल शुरू कर दी। इसमें सबसे ज़्यादा डटकर खड़े हुए मशीन के साथी। आपको जानकर हैरत होगी कि सहारा में 20-25 साल से काम करने वाले मशीनमैन की तनख्वाह भी मात्र दस-बारह हज़ार रुपये है। लखनऊ से लेकर नोएडा और मुंबई तक सहारा मीडिया के कई विभागों में कर्मचारियों का ऐसा ही हाल है। इस आंदोलन के दौरान मीडिया के अन्य साथियों खासकर पत्रकारों को भी अन्य साथियों के दुख-दर्द और मुश्किलों का एहसास हुआ। हालांकि टीवी और अखबार में भी कुछ अच्छा वेतन नहीं मिलता। 20-24 साल अखबार में काम करने वाले बहुत से लोगों की तनख्वाह 22-24 हज़ार है। टीवी में भी 10 साल से ज़्यादा काम कर रहे लोगों की औसत तनख़्वाह 30 से 35 हज़ार है।
लेकिन जुलाई में आंदोलन जिस तरह अचानक शुरू हुआ था उसी तरह नेतृत्व की कमी के चलते अचानक ख़त्म भी हो गया। इस आंदोलन का नेतृत्व एक व्यक्ति के हाथ में था और प्रबंधन ने अपने दांव-पेच से उसे आंदोलन खत्म करने पर राजी कर लिया। हालांकि अब आंदोलन की नींव पड़ चुकी थी। इसके बाद दूसरा बड़ा आंदोलन अक्टूबर-2015 में शुरू हुआ। इस बार आंदोलन पहले से ज़्यादा सुव्यवस्थित था। आंदोलनकारियों ने एक कमेटी का गठन किया जिसमें प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक और अन्य सहायक विभागों के कर्मचारी शामिल किए गए।
यह आंदोलन चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़ा। कामकाज एकदम बंद करने की बजाय काम को कम किया गया। टीवी में बुलेटिन और अखबार में पेज घटा दिए गए। इसके साथ ही लेबर कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक जाने की कोशिशें की गईं। प्रधानमंत्री कार्यालय और मुख्यमंत्री कार्यालय को ऑनलाइन चिट्ठियां लिखी गईं। डिप्टी लेबर कमिश्नर के यहां केस दायर किया गया। जुलाई के आंदोलन में भारी संख्या में पुलिस बल कैंपस में बुलाकर भी कर्मचारियों पर दबाव बनाया गया था लेकिन इस बार पुलिस अधिकारियों को भी प्रतिनिधिमंडल भेजकर सही स्थिति से अवगत कराया गया। भविष्य निधि कार्यालय में भी शिकायत की गई क्योंकि सहारा अपने कर्मचारियों का पीएफ सरकार के पास जमा नहीं करता, बल्कि एक ट्रस्ट बनाकर अपने पास ही रखता है। कर्मचारियों को खबर लगी कि कई महीने से उनके खाते में पीएफ भी जमा नहीं किया गया है।
इस तरह चारों तरफ से प्रबंधन की घेराबंदी की गई। दबाव में आकर प्रबंधन ने तिहाड़ जेल में सुब्रत राय से नेतृत्वकारी कर्मचारियों की कई बार बैठक भी कराई। लेकिन कोई हल नहीं निकला। सुब्रत राय ने पैसा न होने का हवाला देकर बकाया और नियमित वेतन देने से इंकार कर दिया। जब उन्हें बताया गया कि कई साथियों की भुखमरी के चलते मौत तक हो गई है, तब सहारा को अपना परिवार और खुद को परिवार का मुखिया कहने वाले सुब्रत राय ने दो टूक जवाब दिया कि “भूख से कोई नहीं मरता, लोग ज़्यादा खाने से मरते हैं”।
इतने संवेदनहीन रवैये के बाद सबको समझ आ गया कि अब आर-पार की लड़ाई लड़नी होगी, लेकिन जैसा कि आमतौर पर हर आंदोलन में होता है और बुद्धिजीवी पत्रकारों के आंदोलन में तो और भी ज़्यादा कि प्रबंधन ने फिर कई आंदोलकारियों को तोड़ लिया। चाटुकारों, अवसरवादियों की एक बड़ी जमात तो पहले ही प्रबंधन के साथ थी। कुछ डरे-सहमे थे। कुछ भाई-बिरादरी के चक्कर में आ गए और कुछ को प्रलोभन देकर प्रबंधन ने अपने साथ मिला लिया। इनमें कुछ नेतृत्वकारी कर्मचारी भी शामिल थे। लेकिन कमेटी होने की वजह से प्रबंधन को एकदम से सफलता नहीं मिली।
दो नेतृत्वकारी मीडियाकर्मी न्यूज़ प्रोड्यूसर मुकुल राजवंशी और उत्पल देव कौशिक कर्मचारियों को एकजुट रखने की कोशिश करते हुए आंदोलन पर डटे रहे। इन दोनों पत्रकारों को प्रबंधन ने अपने लिए चुनौती माना और साजिश करते हुए इन दोनों को इसी तरह तुरंत बर्खास्त करते हुए उनके कैंपस में आने पर रोक लगा दी, जैसे अब 21 कर्मचारियों के साथ किया गया है। लेकिन उस समय कुछ नेता टूट चुके थे, कुछ लालच में आ गए थे और अन्य कर्मचारी थोड़ा डर गए थे इसलिए इस अन्यायकारी कार्रवाई के खिलाफ कोई बड़ी आवाज़ नहीं उठ सकी। प्रबंधन अपनी साजिश में सफल हो रहा था और आंदोलन एक बार फिर खत्म हो गया। लेकिन इस आंदोलन की सफलता यह रही कि बर्खास्त कर्मचारी और कुछ अन्य साथी डिप्टी लेबर कमिश्नर से ये आदेश जारी करवाने में सफल रहे कि एक समयबद्ध तरीके से सभी कर्मचारियों का बकाया भुगतान किया जाए और आगे नियमित वेतन दिया जाए। इसके अलावा जो कर्मचारी सहारा से जाना चाहते हैं उनके पूरे बकाया और ग्रेच्युटी-पीएफ का भुगतान नियमानुसार एक समय सीमा के भीतर किया जाए। प्रबंधन ने यह मांग मांगते हुए सेफ सेल्फ एग्जिट प्लान डीएलसी के सामने रखा। लेकिन हक़ीक़त में कर्मचारियों के लिए यह सेल्फ एग्जिट प्लान नहीं बल्कि मजबूरी का सौदा था। डीएलसी ने भी इस बात को माना, लेकिन डीएलसी भी एग्जिट लेने वालों को कुछ मुआवज़ा भी दिया जाए, कर्मचारियों की इस मांग को पूरा नहीं करा सके।
इसके बाद सहारा से एग्जिट प्लान लेने वालों का तांता शुरू हुआ। दो कर्मचारी बर्खास्त हो चुके थे और बड़ी संख्या में अन्य ने एग्जिट प्लान ले लिया। इसके बाद एक बार और इसी तरह एग्जिट प्लान दिया गया। इस बार भी बड़ी संख्या में टीवी और प्रिंट और कुछ अन्य सहायक विभागों के कर्मचारियों ने एग्जिट ले लिया। हालांकि दूसरी बार में यह एग्जिट प्लान अपनाने वालों को एकमुश्त बकाया नहीं मिला बल्कि उन्हें किस्तों में भुगतान की शर्त रखी गई। मरता क्या न करता कर्मचारियों ने इसे भी मान ले लिया। इस तरह अब सहारा में खासतौर पर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक में आधे से भी कम कर्मचारी रह गए। इनमें कुछ चाटुकार, अन्य लाभ उठाने वाले या फिर अपने हालात से मजबूर कर्मचारी साथी थे।
बिना पैसे या बिना रोटी के कोई कब तक मालिक का हुक्म बजा सकता है इसलिए इस बार फिर 2 जून से आंदोलन शुरू हो गया। और कर्मचारियों ने तीन महीने का बकाया वेतन और बाकी बकाया वेतन के लिए पोस्ट डेटेड चेक देने की मांग की। कर्मचारियों में इसलिए भी रोष था क्योंकि जेल में बैठकर सहारा प्रमुख जीवन में सफलता के गुर बताने वाली किताबें लिखवा रहे थे। बाहर उनके चाटुकारों द्वारा बड़े-बड़े कार्यक्रम कर उनका विमोचन किया जा रहा था। इसके अलावा अपनी माताजी के निधन के नाम पर पैरोल पर रिहा होकर सुब्रत राय देशभर में दौरा कर अपना स्वागत करा रहे हैं पैराबैंकिंग और अन्य विभागों के कर्मचारियों को संबोधित कर रहे हैं लेकिन अपने भूखे-प्यासे सहारा मीडिया के कर्मचारियों से मुलाकात का उनके पास समय नहीं है। अख़बारों में बड़े-बड़े विज्ञापन दिए जा रहे हैं, टीवी चैनलों पर सहारा जीवन बीमा का विज्ञापन चल रहा है लेकिन कर्मचारियों का वेतन देने के लिए उनके पास पैसा नहीं है। इसलिए इस बार सहारा मीडिया के कर्मचारियों ने तीन जून को सुब्रत राय के दिल्ली में संबोधन के दौरान उनसे मिलने और अपनी मांगें रखने की योजना बनाई। नोएडा कैंपस से कर्मचारी तीन बसों में भरकर दिल्ली के तालकटोरा में सुब्रत राय से मिलने पहुंचे लेकिन सुब्रत राय इन कर्मचारियों से नहीं मिले और प्रबंधन ने इन्हें गेट से ही बाहर रोक दिया। जिसके बाद कर्मचारी जंतर-मंतर पहुंचे और वहां प्रदर्शन किया।
आंदोलन बढ़ रहा था और प्रबंधन एक बार फिर इसे तोड़ने की जुगत में लग गया। इसी के तहत 12 महीने के बकाया में से एक महीने की बकाया सैलरी जारी करते हुए कर्मचारियों को नरम करने का प्रयास किया गया लेकिन साथ ही नेतृत्व कर रहे प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक के 21 साथियों का वेतन रोक लिया गया। इस पर जब सब कर्मचारियों ने ऐतराज़ किया तो सात जून को चुपके से नोएडा के सहारा कैंपस में इन 21 कर्मचारियों की बर्खास्तगी और कैंपस में घुसने पर रोक का नोटिस चस्पा कर दिया गया। यानी एक बार फिर प्रबंधन ने अपनी गंदी चाल चली है। वैसे सहारा कर्मियों का कहना है कि इस बार पहले वाली गलती नहीं दोहराई जाएगी। इसबार सब कर्मचारी एकजुट हैं और अपना हक़ लेकर रहेंगे। इसके लिए सड़क से लेकर कोर्ट तक लड़ाई लड़ी जाएगी।”
(नीेचे तस्वीर में संस्थान के गेट पर डटे सहारा के आंदोलकारी)