एक घटना के बहाने The Hindu ने किया समूची जाति को बदनाम, पढ़ें बावरिया समुदाय का संपादक के नाम पत्र

 

अंग्रेज़ी दैनिक दि हिंदू ने 4 अगस्‍त 2016 को अपनी एक रिपोर्ट के माध्‍यम से एक समूचे समुदाय को कलंकित करने का काम किया है। रिपोर्टर श्‍वेता गोस्‍वामी ने एक अपराध संबंधी मामले की रिपोर्टिंग करते हुए आरोपी के समुदाय को न केवल आपराधिक ठहराया, बल्कि ख़बर का जो शीर्षक लगाया उसका तर्जुमा बनता है, ”बावरिया लोग जवान लड़कियों को नहीं बख्‍शते”। इस ख़बर से बावरिया समुदाय काफी आक्रोश में है और पूर्व की तीन विमुक्‍त जनजातियों के प्रतिनिधियों ने अखबार के संपादक के नाम एक निंदा पत्र भेजा है और अख़बार से बेशर्त माफीनामे की मांग की है। नीचे हम पूरा पत्र इंडिया रेजिस्‍ट्स से साभार छाप रहे हैं।

सेवा में,

संपादक,

दि हिंदू

 

हम दि हिंदू के आज के संस्‍करण (04-08-16) में ”बावरियाज़ नेवर स्‍पेयर यंग विमेन” शीर्षक से प्रकाशित श्‍वेता गोस्‍वामी की संवेदनहीन और पक्षपातपूर्ण रिपोर्ट से आतंकित हैं और सदमे में हैं। यह रिपोर्ट हिंसा के एक मामले के आधार पर समूचे समुदाय के आपराधीकरण का एक नमूना है। हम इस रिपोर्ट में प्रयोग की गई भाषा की कड़ी निंदा करते हैं जो अपने पाठकों में पूर्वाग्रह को भड़काती है और संभावित हिंसा के लिए उन्‍हें उकसाती है।

आरोपी हालांकि समुदाय का ही सदस्‍य है, लेकिन केवल इससे पुलिस या अखबार को कोई अधिकार नहीं मिल जाता कि वे किसी एक व्‍यक्ति के अपराधिक कृत्‍य के लिए समूचे समुदाय को जिम्‍मेदार ठहरा दें। सदियों से सभी समुदायों के पुरुषों की ओर से महिलाओं पर यौन हिंसा की जाती रही है, लेकिन इस मामले में जानबूझ कर उस औपनिवेशिक आख्‍यान को थोपने की कोशिश की गई है जिसके तहत देश की विमुक्‍त जनजातियों को परिभाषित किया गया था।

किसी पुलिस अधिकारी के कहे शब्‍दों के आधार पर एक आरोपी के समुदाय के सदस्‍यों को ”अपराधियों की आबादी” या एक ऐसी जनजाति करार देना जो ”चोरी, छिनैती और डकैती को अपना परंपरागत पेशा” मानते हुए ”सदियों से ये अपराध करती आ रही है”, जिसका ”जवान महिलाओं को न बख्‍शने का एक रिकॉर्ड रहा है”- पत्रकारीय नैतिकता के बुनियादी तत्‍वों का उल्‍लंघन है तथा एक औपनिवेशिक मानसिकता की बू इससे आती है। एक पुलिस अफसर की कही निजी बातों को आरोपी की पहचान का वैध स्रोत नहीं माना जा सकता। उसके पास यह दावा करने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है और कोई भी प्रतिष्ठित अख़बार एक पुलिस अफसर के कहे शब्‍दों को अंतिम नहीं मानेगा। इस आलोक में समूचे बावरिया समुदाय को प्रस्‍तुत करना हिंसा को भड़का सकता है और दूसरे लोग व पुलिस उन्‍हें निशाना बना सकती है।

यह रिपोर्टर एक ऐसे दस्‍तावेज़ का हवाला देती है जो दो सदी पुराना है, 1881 की जनगणना रिपोर्ट, जिसके आधार पर वह अपने इस दावे को पुष्‍ट करती है कि बावरिया समुदाय ”को अपराधों की लत है; वे बड़ी स्‍वाभाविकता से चोरी करते हैं और जंगली पशुओं का घात लगाने के लिए उनका कौशल कुख्‍यात है”। इस स्‍टोरी को लिखते वक्‍त उनकी वर्तमान परिस्थितियों की कोई समझदारी या उनकी मौजूदा कानूनी स्थिति का परिचय दिया गया है। भारत सरकार ने 1871 के ज़रायमपेशा जनजातियों के अधिनियम को 1952 में भले ही खत्‍म कर दिया था, लेकिन ये जनजातियां साठ साल से भी ज्‍यादा वक्‍त से अपने बुनियादी संवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं। रिपोर्टर ने समुदाय के नज़रिये को समझने की कोई कोशिश नहीं की है और ऐसा लगता है कि उनका पक्ष जानने के लिए उसने उनसे संपर्क करने का भी कोई प्रयास नहीं किया।

यह बात स्‍वीकार करने योग्‍य नहीं है कि भारत में 15 लाख पाठकों वाला और देश में दूसरी सबसे बड़ी प्रसार संख्‍या वाला अखबार (स्रोत: ऑडिट ब्‍यूरो ऑफ सर्कुलेशन, जुलाई-दिसंबर 2015) दि हिंदू ऐसी संवेदनहीन और पूर्वाग्रहग्रस्‍त रिपोर्ट छाप सकता है।

हम मांग करते हैं कि दि हिंदू बेशर्त माफीनामा प्रकाशित करे जिसमें यह साफ़ किया जाए कि उसने इस रिपोर्ट को छापने में पत्रकारीय नैतिकता के लिहाज से ग़लती की है। हम मांग करते हैं कि इस दैनिक के संपादक और रिपोर्टर दोनों ही जल्‍द से जल्‍द ऐसा करें ताकि बावरिया समुदाय को निशाना न बनना पड़े, जिसकी जवाबदेही दि हिंदू की ही होगी।

हम यह भी मांग करते हैं कि दि हिंदू इस पत्र को प्रकाशित करे ताकि उसने अपने पाठकों में जो पूर्वाग्रहग्रस्‍त प्रस्‍थापनाएं विकसित की हैं, उन्‍हें दुरुस्‍त किया जा सके।

 

भवदीय

जसपाल सिंह बावरिया

दक्षिण चारा

भारत वितकर

मयंक

 

(जसपाल पंजाब के बावरिया समुदाय से हैं, दक्षिण गुजरात के चारा समुदाय से हैं, भारत महाराष्‍ट्र के वडार समुदाय से हैं और तीनों जातियां डीएनटी में आती हैं (पूर्व ज़रायमपेशा जनजातियां))

पता- मकान नंबर 85, ब्‍लॉक डी, साकेत, नई दिल्‍ली-17

(Courtesy: Indiaresists.com)

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