पीएम को राष्ट्र के नाम संदेश, आनंद विहार रेलवे स्टेशन पर खड़े होकर देना चाहिए था!

फ़ाइलें दबी रहती हैं
न्याय टाला जाता है
भूखों तक रोटी नहीं पहुँच पाती
नहीं मरीज़ों तक दवा
जिसने कोई ज़ुर्म नहीं किया
उसे फाँसी दे दी जाती है
इस बीच
कुर्सी ही है
जो घूस और प्रजातन्त्र का
हिसाब रखती है।

(गोरख पांडेय-हिंदी कवि)

कोविड 19 की अप्रत्याशित रूप से भयावह स्थिति के बीच, अचानक बंगाल से चुनाव प्रचार पूरा कर के देश लौटे, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मंगलवार की रात को पौने नौ बजे दिए गए, राष्ट्र के नाम संदेश को अगर ध्यान से न भी देखा-सुना जाए – तो भी ये किसी जनहित में जारी सरकारी उपदेशात्मक विज्ञापन सा लगता है। जिसमें दरअसल आपको ये बताया जाता है कि आपको क्या करना है, आप अच्छे नागरिक कैसे बन सकते हैं, आपके कर्तव्य क्या हैं और आप कैसे देश को महान बनाएंगे। लेकिन इन विज्ञापनों में कभी ये नहीं बताया जाता है कि सरकार – जिसे आप चुनते हैं, सांसद-विधायक-पीएम-मंत्री – जो आपके टैक्स से सैलरी पाते हैं, जिनकी सुरक्षा करने वाली पुलिस और फोर्स भी आपके टैक्स से सैलरी पाती है, जिनकी गाड़ियों और हवाई जहाज़ों में पड़ने वाला ईधन-आपके टैक्स के पैसों से आता है…लोकतंत्र, जो कि जनता यानी कि नागरिक से चलता है – वो सरकार, नागरिक के लिए क्या कर रही है।

ऐसे विज्ञापनों का मक़सद अमूमन ये बताना होता है कि सरकार की ज़िम्मेदारी से ज़्यादा नागरिकों की ज़िम्मेदारी है और दरअसल सरकार सिर्फ इस बात का ख़्याल रखने के लिए है कि नागरिक पथभ्रष्ट न हो जाएं। ऐसा नहीं है कि ऐसे विज्ञापन पहले नहीं बनते थे, लेकिन पहले के विज्ञापनों में और पीएम मोदी के 20 अप्रैल, 2021 को दिए गए देश के नाम संदेश में कुछ बेहद मूल अंतर हैं –

  1. ऐसे विज्ञापनों में अब तक अमूमन किरदार-अभिनेता और मॉडल इस्तेमाल किए जाते थे, लेकिन अब उनकी ज़रूरत नहीं है। पीएम स्वयं ही वॉयस ओवर आर्टिस्ट, एक्टर, मॉडल और संचालक सब हैं।
  2. 2014 तक ऐसे विज्ञापन केवल जागरुकता के लिए होते थे, लेकिन साथ ही सरकार की योजनाएं क्या हैं, सरकार नागरिकों के वेलफेयर के लिए क्या कर रही है और सरकार की किन योजनाओं का लाभ-जनता को कैसे मिलेगा, अधिकतर विज्ञापन इस बारे में होते थे। लेकिन 2014 के बाद से, अब केवल इसी तरह के विज्ञापन सार्थक हैं, दूसरी तरह के विज्ञापन – अब आते भी हैं, तो ज़मीन पर उनका सच कहीं नहीं दिखाई देता है। 
  3. पहले ऐसे विज्ञापनों से नागरिकों को सचेत किया जाता था, उनको जागरुक किया जाता था और उनके अंत में लिख कर आता था – जनहित में जारी। लेकिन पीएम के इन संदेशों के दरअसल विज्ञापन जैसे होने के बाद भी, अंत में या साथ में ऐसा कोई संदेश लिख कर नहीं आता है। 
  4. इन संदेशों की अवधि अमूमन आधे घंटे से 2 घंटे तक कुछ भी हो सकती है लेकिन इनका भावार्थ एक पंक्ति में समेटा जा सकता है – जो कुछ करना है, जनता को करना है…सरकार का काम केवल ये बताना है कि सब जनता को ही करना है। ऐसा लगने लगा कि पीएम समेत पूरा कैबिनेट केवल एक अध्यापक की सैलरी पा रहा है और देश स्कूल है। 

प्रधानमंत्री के अब तक के राष्ट्र के नाम संदेशों के मुक़ाबले कोविड-19 की सेकेंड वेव से फैले कहर के बाद, ये संदेश अपेक्षाकृत छोटा था…जी हां, 20 मिनट से भी कम समय का संदेश दिया, पीएम मोदी ने। शायद ये पश्चिम बंगाल चुनावों के प्रचार में उनकी व्यस्तता के चलते हुआ होगा कि उनके पास इस ग़ैर ज़रूरी काम के लिए समय नहीं होगा। वैसे भी आप उनकी व्यस्तता इससे भी समझ सकते हैं कि वे कोविड से मरते देशवासियों को संदेश देने का समय, सप्ताह भर बाद ही मिल सका। लेकिन पीएम के ऐसे त्याग के बावजूद, हम उनके इस भाषण (संदेश) का विश्लेषण करने का दुस्साहस कर रहे हैं।

कुर्सी ख़तरे में है तो प्रजातन्त्र ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तो देश ख़तरे में है
कुर्सी ख़तरे में है तु दुनिया ख़तरे में है
कुर्सी न बचे
तो भाड़ में जायें प्रजातन्त्र
देश और दुनिया

एक दिन पहले तक, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को ललकार रहे प्रधानमंत्री को जब अचानक दिल्ली आकर कोविड से जूझते नागरिकों के लिए संदेश जारी करना पड़ा, तो उनके मन की दुविधा और उनके दिल के दर्द को ऊपर लिखी कविता के हिस्से से समझा जा सकता है। लेकिन हम साहित्य पर बात नहीं कर रहे, भले ही पीएम अपने राष्ट्र के नाम में साहित्य रचते रहें। सबसे पहले संक्षिप्त में ये समझ लेना ज़रूरी है कि पीएम ने अपने संदेश में क्या-क्या कहा;

हालांकि पीएम ने ये नहीं बताया कि इसी अहसास के साथ, वे पश्चिम बंगाल में रैली दर रैली करते रहे। वे कोविड से मरते लोगों की तक़लीफ़ के दर्द भरे अहसास के साथ ममता बनर्जी को दीदी-ओ-दीदी कह के पुकारते रहे। दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरयाणा में मरते लोगों को बचाने के लिए प. बंगाल में चुनाव जीतने की मजबूरी उनसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता था। 

ज़ाहिर है कि ये कहते समय पीएम मोदी के ज़ेहन में माइक्रो कंटेनमेंट ज़ोन थे क्योंकि दरअसल उनकी ही सरकार ने कोविड19 के ऐसे संक्रमण के समय में, महाकुंभ का आयोजन किया और कंटेनमेंट ज़ोन ख़ुद बनाई। पीएम को हर बार ये बात याद आती रही, जब वे प. बंगाल में रैलियों को संबोधित कर रहे थे – जब वे बता रहे थे कि उन्होंने इतनी बड़ी रैली कभी नहीं देखी। ये कहते समय, उनको सामने ही कंटेनमेंट ज़ोन बनता दिख रहा था और सामने देखी गई बात के ख़ुद के तैयार किए अनुभव को वे कैसे भूल सकते थे। उनको पता था कि लॉकडाउन विकल्प नहीं है, क्योंकि सरकारें गिरती रहनी चाहिए-चुनाव चलते रहने चाहिए…और कंटेनमेंट तो ख़ैर…

पीएम मोदी दरअसल इसके ज़रिए दो बातें कहना चाहते थे। पहली कि वे अपने परिवार यानी कि देशवासियों के पास समय पर नहीं आ सके। दूसरी, वो दरअसल असहाय हैं और जो कुछ करना है – देशवासियों को अपने संकल्प, हौसले और तैयारी के साथ ही करना है। सरकार और पीएम कुछ नहीं कर सकते हैं।

बस पीएम ये नहीं बता सके कि उनके 2020 के उस बयान को कैसे देखा जाए, जिसमें वो बता रहे थे कि देश ने मास्क से लेकर तमाम कोविड प्रतिरक्षा उपकरणों को बनाने में आत्मनिर्भरता हासिल कर ली गई है। वो नहीं बता सके कि आख़िर देश में पिछले एक साल में जितना खर्च चुनावी अभियानों से लेकर सरकार के कामों के प्रचार में हुआ, उसका कितना हिस्सा चाहिए था – अस्पतालों में बेड बढ़ाने, वेंटिलेटर और आईसीयू खड़े करने में और ऑक्सीजन संयंत्र लगाने में? प्रधानमंत्री सही हैं, आख़िर ऑक्सीजन मरीज़ों के पास 10 दिन बाद भी पहुंचे तो क्या फ़र्क पड़ता है?

प्रधानमंत्री ने बिल्कुल सही कहा, 1 मई के बाद 18 वर्ष के ऊपर के सभी लोगों को वैक्सीन दी जा सकेगी। ये अलग बात है कि वैक्सीन लगवाने के बाद वायरस के प्रति प्रतिरोधक क्षमता आने में समय लगेगा। उस बीच अगर लाखों लोग, अस्पतालों के बाहर बेड, ऑक्सीजन और वेंटिलेटर के लिए गिड़गिड़ाते हुए मर जाएं – तो इतनी क़ुर्बानी तो देश दे ही सकता है। वैक्सीन की आधी डोज़ निर्यात करनी बेहद ज़रूरी है, भले ही देश में लोगों तक वैक्सीन पहुंचने में साल भर और लग जाए।

आनंद विहार रेलवे स्टेशन (19 अप्रैल, 2021)

मेरा प्रधानमंत्री से आग्रह है कि वे ये भाषण, दिल्ली के आनंद विहार रेलवे स्टेशन के सामने फ्लाईओवर पर खड़े होकर दें। 

अविचल रहती है कुर्सी
माँगों और शिकायतों के संसार में
आहों और आँसुओं के
संसार में अविचल रहती है कुर्सी
पायों में आग
लगने
तक।

 

मयंक सक्सेना, मीडिया विजिल के एक्सीक्यूटिव एडिटर हैं। 

 

First Published on:
Exit mobile version