भारतीय सेना ने चिकित्साकर्मियों के सम्मान में बैंड से सलामी धुन बजाई, भारतीय वायुसेना ने अस्पतालों पर फूलों की पंखुड़ियां बरसाई और भारतीय सेनाओं के शौर्य, निष्ठा, देशप्रेम पर कोई नागरिक ज़रा सी भी शंका नहीं कर सकता। लेकिन क्या भारतीय सेनाओं के हेलीकॉप्टर्स से गिर रही फूलों की पंखुड़ियों का इस्तेमाल – सरकार सवालों को ढंकने के लिए कर रही है? क्योंकि दरअसल देश के चिकित्साकर्मियों की ओर से कोविड 19 संक्रमण की शुरुआत से ही जो मांगें की जा रही थी, वे शिकायतों में बदलकर, अब उनकी त्रासदी तक आने लगी हैं। तो क्या दुनिया के दूसरे देशों में हो रही इस तरह की आभार गतिविधियों की नकल भर कर के, सबकुछ ठीक किया जा सकता है?
हर सवाल का जवाब एक ईवेंट है!
दरअसल पिछले साढ़े 5 सालों से अधिक के समय में, हमने हर जन समस्या और हर सवालों की झड़ी के बाद – जो देखा है, वो है एक मेगा ईवेंट। केंद्र की एनडीए सरकार ने अब हर मुश्किल परिस्थिति में सवालों का जवाब देने या अपनी ज़िम्मेदारी को निभाने की जगह एक ऐसा ईवेंट खड़ा कर देने में महारथ हासिल कर ली है, जिसकी चमक में सारे सवाल छिप जाएं। ये ठीक उस दीवार की तरह है, जिसे डोनाल्ड ट्रंप के भारत आगमन के समय गुजरात में खड़ा कर दिया था। कोरोना वायरस जैसी महामारी से लड़ने में स्वास्थ्य कर्मी, पुलिस और सफ़ाई कर्मी फ्रंटलाइन पर बड़ी भूमिका में हैं। दिन रात कोरोना जैसी महामारी में भी देश के लिए लगातार अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। इन्हीं स्वास्थ्य कर्मियों के प्रति आभार जताते हुए भारतीय वायुसेना ने देश के कई राज्यों के अस्पतालों में आसमान से फूल बरसाए। इसके ठीक पहले अमरीकी राष्टपति ट्रम्प ने भी कहा था कि देश के स्वास्थ्य कर्मियों के प्रति सम्मान ज़ाहिर करने के लिए यूएस नेवी और अमरीकी एयरफ़ोर्स के जहाजों से हवाई शोज किये जाएंगे। इस बार हमने अमेरिका में ये होने का इंतज़ार नहीं किया, ये ईवेंट रच डाला और डॉक्टर्स व चिकित्सा स्टाफ के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली।
डॉक्टर्स के प्रति सम्मान तो उनको सुविधा क्यों नहीं?
जबकि सच क्या है? सच ये है कि देश भर के अस्पतालों से डॉक्टर्स के पास संसाधन, पीपीई किट्स तो छोड़ दीजिए, ढंग के मास्क तक न होने की ख़बरें रोज़ सामने आ रही हैं। कहीं डॉक्टर्स सांकेतिक विरोध कर रहे हैं, कहीं सरकार को चिट्ठी लिख रहे हैं, तो कहीं इस्तीफ़ा दे रहे हैं। दिल्ली के एक अस्पताल में नर्स और जूनियर डॉक्टर्स ने अपने इस्तीफे सौंप दिए तो उन पर दबाव डालकर, उनको काम पर वापस आने पर मजबूर किया गया। बाद में इसी अस्पताल में एक नर्स कोरोना पॉजिटिव पाई गई और अस्पताल को सेनिटाइज़ करने के लिए सील करना पड़ा। दिल्ली के ही एक और नामी सरकारी अस्पताल में 44 स्टाफ मेंबर्स कोरोना पॉजिटिव पाए गए और अस्पताल बंद करना पड़ा। कई राज्यों में स्थिति यही है और मेडिकल स्टाफ, बिना पर्याप्त सुरक्षा उपकरणों के इस भयावह महामारी के संक्रमण से जूझ रहा है। उत्तर प्रदेश में एक दिन पहले ही एक पत्रकार से सिर्फ इसलिए एसटीएफ ने घंटों पूछताछ की, क्योंकि उसने पीपीई किट्स की गुणवत्ता पर सवाल उठाए थे।
इसके पहले हमने ताली और थाली बजाने का कार्यक्रम भी स्पेन और इटली में ऐसा होते देखकर किया था। लेकिन सच ये था कि स्पेन और इटली में जनता से ऐसा करने के लिए सरकार ने नहीं कहा था। वहां पर जनता ने स्वतःस्फूर्त तरीके से, मेडिकलकर्मियों के प्रति आभार जताने के लिए ये किया था। जिस अमेरिका की तर्ज पर हम सेनाओं के ज़रिए मेडिकोज़ का सम्मान कर रहे हैं, उसी अमेरिका में 25 बिलियन डॉलर की रकम सिर्फ़ कोरोना वायरस की टेस्टिंग के लिए मंजूर की गयी है। हमें पीएम केयर्स फंड में लोगों से आर्थिक मदद मांगनी पड़ रही है, जिसके हिसाब के लिए हम आरटीआई भी शायद ही लगा सकें।
इसी सब कवायद के बीच हमने टेस्टिंग के लिए जो किट खरीदीं वो भी महंगे दामों पर खरीदीं। ये गोरखधंधा सामने आया तो पता चला कि जिन भारतीय कंपनियों को ये टेंडर दिए गए, उनकी भी कोई खास विश्वसनीयता नहीं है। बाद में ये किट्स भी ठीक नहीं निकली और इनको वापस कर दिया गया। अब नया टेंडर जारी होने, किट्स आने में कितना समय लगेगा, इस बारे में कोई भी जानकारी सार्वजनिक नहीं है। लेकिन ये सब भूल कर, हम में से कई बरसते फूलों को देख आह्लादित हैं।
दूसरे देशों से सिर्फ ईवेंट की नकल क्यों?
अब लगे हाथ ये भी जान लें कि ईवेंट रचने में हम जिन देशों से प्रेरणा ले रहे हैं, उनके चिकित्सा सुविधाओं, टेस्ट और काम करने के मामले में हमने क्या और कितना सीखा है। आईसीएमआर की वेबसाइट के मुताबिक भारत में 3 मई 2020 तक 1046450 सैंपल की टेस्टिंग हुई है। जबकि जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के अनुसार अमेरिका में 2 मई 2020 तक 2 लाख 60 हज़ार टेस्टिंग प्रतिदिन के हिसाब से अब तक कुल 68 लाख से ज्यादा टेस्ट हो चुके हैं। 32 करोड़ की आबादी वाले अमेरिका में रोज़ाना 2 लाख 60 हज़ार टेस्टिंग हो रही है। भारत में आबादी सवा सौ करोड़ से ज्यादा है उसके बावजूद हमारा प्रतिदिन और प्रति मिलियन टेस्ट की दर का आंकड़ा क्या है? कोरोना वायरस से लड़ने के लिए टेस्टिंग को विश्व भर में सबसे इफेक्टिव तरीका माना जा रहा है। जितनी अधिक टेस्टिंग हो सकेगी उतना ही कोरोना वायरस से लड़ाई आसान होगी। इटली में कोरोना वायरस का विकराल रूप देखा जा रहा है। वहां की जनसंख्या 6 करोड़ से ऊपर है लेकिन वहां भी 29 अप्रैल 2020 तक 1.9 मिलियन की टेस्टिंग की जा चुकी है। जबकि फ्रांस में अब तक 1,100,228 कोरोना टेस्ट हुए हैं, जो 16,856 टेस्ट प्रति मिलियन की दर से किए गए हैं।
सेना को सम्मान और धन्यवाद के साथ..
ये मुश्किल वक़्त में आया विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस है। इस देश के लोकतंत्र पर अभी भी इतना यक़ीन किया जा सकता है कि कोई भी ईवेंट या मौका या फिर सत्ता – सवाल पूछे जाने से फिलहाल रोक नहीं सकते हैं। सेना के प्रति सम्मान और उसके इस कदम के लिए आभारी होते हुए भी, हम ये सवाल कर सकते हैं कि फूलों की जगह पीपीई किट्स क्यों नहीं? ये सवाल सेना की नीयत पर नहीं, हमारी सरकारों की नीयत पर है। ये वो सवाल है, जो आज़ादी के बाद से हर सरकार से पूछा गया है – पूछा जाना चाहिए। सिर्फ इतना ही नहीं, ये सवाल भी कि जिन देशों की हम ईवेंट में नकल करते हैं – दुनिया के इन देशों से टेस्टिंग किट खरीदने, उन पर लाभ कमाने, किसी तरह की गड़बड़ी से जुड़े कोई विवाद सामने नहीं आए हैं। किसी इटली, स्पेन या फ्रांस में लाखों लोगों को सड़क पर पैदल अपने गांव जाने के लिए नहीं निकलना पड़ा है, न ही लोग भूख से मर रहे हैं और न ही वहां पर गरीबी से तंग आकर कोई आत्महत्या कर रहा है। इनमें से किसी देश में इस मुश्किल के समय में भी, महामारी का इस्तेमाल सांप्रदायिक राजनीति के लिए नहीं किया गया। इन तमाम देशों में जनता सवाल भी करती है और प्रेस भी आज़ादी से सवाल करती है। किसी भी मुश्किल सवाल को देशद्रोह की संज्ञा नहीं दी जाती है। एक पुराना अमेरिकी मजदूर आंदोलन का गीत है, जो कहता है कि लोगों को रोटी भी चाहिए, लेकिन लोगों को गुलाब भी चाहिए…हमारे यहां न रोटी है, न पीपीई, न ही कोई सामाजिक सुरक्षा का ढांचा…लेकिन हां, हम गुलाब बरसा रहे हैं। कल को हैरान मत होइएगा, अगर सड़क पर 1500 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर, अपने गांव पहुंच कर, गांव के द्वार पर ही प्राण गंवा कर गिर पड़े, किसी गरीब के ऊपर भी पुष्प वर्षा कर दी जाए और हम कोई सवाल न करें..
(ये संपादकीय लेख, आदर्श तिवारी और मयंक सक्सेना ने मिल कर लिखा है। आंकड़े आईसीएमआर समेत तमाम देशों की सरकारी वेबसाइट्स से जुटाए गए हैं। )