भारत में 22 करोड़ बेरोज़गार, लेकिन श्रम विभाग आंकड़े जारी नहीं करता- रवीश कुमार

अमरीका का श्रम विभाग है। वह बताता है कि इस हफ्ते कितने लोगों को नौकरी मिली है। कितने लोग बेरोज़गार हुए हैं। 10 हफ्तों में अमरीका में 4 करोड़ लोग बेरोज़गार हो चुके हैं। इस हफ्ते के अंत में 21 लाख लोग बेरोज़गारों की संख्या में जुड़े हैं।

भारत में भी श्रम विभाग है। खुद से यह नहीं बताता है कि कितने लोग बेरोज़गार हुए हैं। भारत का युवा को फर्क भी नहीं पड़ता है कि बेरोज़गारी का डेटा क्यों नहीं आता है।

सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकानमी (CMIE) के ताज़ा सर्वे के अनुसार अप्रैल के महीने में 12 करोड़ 20 लाख लोग बेरोज़गार हुए हैं। उनकी नौकरी गई है। उनका काम छिन गया है। 24 मई तक 10 करोड़ 20 लाख लोग बेरोज़गार हुए हैं। तालाबंदी में ढील मिलने से 2 करोड़ लोगों को काम वापस मिला है।

ग्राफिक CMIE की वेबसाइट से साभार

जिस मुल्क में 22 करोड़ से अधिक लोग बेरोज़गार हुए हों वहां मीडिया क्या करता है, यह सवाल भी नहीं रहा। इन घरों में कितनी मायूसी होगी। घर परिवार पर कितना बुरा मानसिक दबाव पड़ रहा होगा। समस्या यह है कि लंबे समय तक दूसरे क्षेत्रों में भी काम मिलने की संभावना कम है। ऐसा नहीं है कि यहां नौकरी गई तो वहां मिल जाएगी।

मीडिया में भी बड़ी संख्या में नौकरियां जा रही हैं। जो अखबार साधन संपन्न हैं, जिनसे पास अकूत संपत्ति हैं वे सबसे पहले नौकरियां कम करने लगें। सैंकड़ों की संख्या में पत्रकार निकाल दिए गए हैं। न जाने कितनों की सैलरी कम कर दी गई। इतनी कि वे सैलरी के हिसाब से पांच से दस साल पीछे चले गए हैं। प्रिंट के अपने काबिल साथियों की नौकरी जाने की खबरें उदास कर रही हैं। कंपनियां निकालती हैं तो नहीं देखती हैं कि कौन सरकार की सेवा करता था कौन पत्रकारिता करता था। सबकी नौकरी जाती है। इनमें से बहुत से लोग अब वापस काम पर नहीं रखे जा सकेंगे। पता नहीं उनकी ज़िंदगी कहां लेकर जाएगी। युवा पत्रकारों को लेकर भी चिन्ता हो रही है। पत्रकारिता की महंगी पढ़ाई के बाद नौकरी नहीं मिलेगी। इंटर्नशिप के नाम पर मुफ्त में खटाए जाएंगे।

न्यूज रूम की फाइल फोटो

यह वक्त मज़ाक का नहीं है। मौज नेताओं की रहेगी। वे मुद्दों का चारा फेकेंगे और जनता गुस्से में कभी इधर तो कभी उधर होती रहेगी। क्रोध और बेचैनी में कभी स्वस्थ्य जनमत का निर्माण नहीं होता है। इस वक्त भी देख लीजिए स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर कहां बहस हो रही है। सरकारों पर कहां दबाव बन रहा है। प्राइवेट अस्पताल तो किसी काम नहीं आ रहे। जब उम्मीद सरकारी अस्पतालों से है, वहीं के डाक्टर इससे लड़ रहे हैं तो क्यों न उनकी सैलरी बढ़ाई जाए, उनके काम करने की स्थिति बेहतर हो। बहुत सारे नर्सिंग स्टाफ पढ़ाई के बाद नौकरी का इंतज़ार कर रहे हैं। फार्मेसी के छात्र बेरोज़गार घूम रहे हैं। इन सबके लिए रोज़गार का सृजन करना होगा।


 

रवीश कुमार जाने-माने टीवी पत्रकार हैं। संप्रति एनडीटीवी इंडिया के मैनेजिंग एडिटर हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है।

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