महामारी के दौर में क्या विरोध का अधिकार खत्म हो जाता है?

कोरोना के बहाने दिल्ली पुलिस ने शाहीन बाग़ के धरने को जबरन हटा दिया जबकि इस बीच ख़बर यह आ रही थी कि पिछले एक-दो दिन से वहां धरना सांकेतिक रूप से ही चल रहा था। लोग कम आ रहे थे। लोगों की मौजूदगी से ज़्यादा उस जगह की वहाँ मौजूदगी धरने को बरकरार रखे हुए थी। अगर सरकार को यह भी नाकाफ़ी लग रहा था तो धरने में शामिल लोगों से बातचीत करके कोई रास्ता निकाला जा सकता था।कहीं तो कोई रास्ता, कोई गुंजाइश बन सकती थी, हालाँकि जिस निज़ाम का मक़सद ही हर तरह की गुंजाइश को ख़त्म कर देना है उससे क्या उम्मीद की जाए?

अगर मान लें कि धरना सांकेतिक रूप से नहीं चल रहा था बल्कि वहां लोग इकट्ठा हो रहे थे, तो क्या पुलिस व सरकार की यह ज़िम्मेदारी नहीं बनती है कि लोगों को सांकेतिक रूप से धरना चलाने के लिए राजी करे। लेकिन याद रहे कि लोग पुलिस या सरकार की बात तभी मानेंगे जब उनको यह यक़ीन होगा कि इस दौरान पुलिस धरना स्थल को हटाने की कार्यवाही नहीं करेगी। अगर सरकार ऐसा करती तो यह लोकतान्त्रिक नज़रिये और कामकाज की मिसाल बन जाता। आख़िर सही मायने में लोकतन्त्र तो वहीं हो सकता है जहाँ विरोध की आवाज़ों का सम्मान होता हो और बुरी से बुरी परिस्थिति में भी लोगों का विरोध का अधिकार सुरक्षित रहता हो।

दिल्ली का शाहीन बाग खाली, इलाहाबाद में रौशन बाग के एक्टिविस्टों की गिरफ्तारी

यह एक बुनियादी सवाल है कि क्या लोकतांत्रिक समाज में बड़ी से बड़ी आपदा या महामारी के समय भी लोगों के बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार बरकरार नहीं रहने चाहिए?

सरकार की नीतियों, विचारधारा या कामकाज को लेकर विरोध प्रदर्शन करना व्यक्ति का बुनियादी अधिकार है। यही अधिकार यह सुनिश्चित करेगा कि सरकारी तंत्र महामारी से निपटने की प्रक्रिया में किसी तरह की ज़्यादती या भेदभाव नहीं करे; कि हर सूरत में न्याय के तक़ाज़ों का ख़याल रखा जाएगा; जो सबसे वंचित और कमज़ोर हैं उनकी प्राथमिकताओं को सबसे आगे रखा जाएगा।

विरोध का अधिकार ही यह सुनिश्चित करेगा कि महामारी के समय, जबकि देश को 21 दिन के लॉकडाउन में रखा जाएगा, देश के हर व्यक्ति को बिना यह सवाल उठाये कि वह क़ानूनी है या ग़ैरक़ानूनी, नागरिक है या गैर-नागरिक, पर्याप्त खाना, ज़रूरी सामान, देख-रेख मिलेगी। हर बीमार को दवा और डाक्टरी ईलाज मिलेगा। जनता से थाली पिटवाने से आगे बढ़ कर सार्वजनिक अस्पतालों में ज़रूरी साधन मुहैया कराने की पहल ली जाएगी।

विरोध का अधिकार ही यह सुनिश्चित करेगा कि कठिन परिस्थिति, आपदा या महामारी से निपटने के नाम पर सरकार अनावश्यक ताक़त अख़्तियार नही करेगी, लोगों की निजता में ग़ैर-ज़रूरी दखल नहीं करेगी। ग़ौरतलब है कि अमरीका में ट्रम्प सरकार ने कोरोना से निपटने के बहाने किसी को भी अनिश्चितकाल तक गिरफ्तार करने की ताक़त लेने की कोशिश की है जिसका विरोध हो रहा है। असल में सबसे बुनियादी इंसानी मूल्यों को बचाए रखने के लिए ज़रूरी है कि विरोध का अधिकार बना रहे।

आख़िर हम कैसे मान लें कि जिस समाज में दलितों, मुसलमानों, आदिवासियों, महिलाओं आदि कितने ही समूहों व पहचानों के साथ इतना भेदभाव बरता जाता है, वहां किसी महामारी में वही भेदभाव व अन्याय दोहराया नहीं जाएगा? हम यह कैसे मान लें कि सरकारी तन्त्र या बाज़ार परिस्थितियों का और लोगों की मजबूरियों का फ़ायदा उठा कर अपनी ताक़त या मुनाफ़े को बढ़ाने की कोशिश नहीं करेंगे? ऐसे में जो लोग व समूह इनसे सीधे प्रभावित हो रहे हैं उनके हक़ में विरोध करने, बोलने के लोकतान्त्रिक अधिकार को ख़त्म करके पहले से ही कमज़ोर लोगों की ताक़त को और कम किया जा रहा है। सभ्य और सुसंस्कृत होने का दावा करने वाले समाज यह कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?

बेशक कोरोना जैसी महामारी के समय विरोध प्रदर्शित करने के तरीक़े अलग होंगे। हम एक जगह भीड़ नहीं लगाएँगे। एक समय एक व्यक्ति ही धरने पर बैठेगा। बाक़ी लोगों की मौजूदगी सांकेतिक होगी। जैसे शाहीन बाग़ में शायद थी भी – चारपाइयों पर लोगों ने अपनी चप्पलें व जूते रखे थे। मुझे लगा था इस दृश्य को देख कर सरकार का दिल थोड़ा पसीजेगा। लेकिन नहीं। उनको इस दृश्य में एक मौक़ा नज़र आया। पुलिस कार्यवाही कर धरने को ध्वस्त करने का मौक़ा। जैसे रात के सन्नाटे में ख़ाली मकान देखकर किसी चोर को मौक़ा नज़र आता है। यह एक और वजह है कि कठिन हालात में भी विरोध का अधिकार सुरक्षित रहना चाहिए क्योंकि सत्ताएँ निरंकुश ताक़त के हर मौक़े की ताक में रहती हैं।

इसके बाद न सिर्फ़ धरना हटाया गया, बल्कि धरने के पास दीवारों पर बनाए गए चित्रों को मिटाया जा रहा है। ज़ाहिर है, सत्ता न सिर्फ़ अपने विरोध की आवाज़ को बल्कि उसकी हर निशानी को भी ख़त्म कर देने पर आमादा है। इस महामारी में भी सत्ता को यह याद है कि मुख़ालिफ़त की हर आवाज़ को पूरी तरह मिटाना ज़रूरी है! कहीं कोई सुराग न बचे कि यहां वह धरना चला है जिसके आगे सत्ता सच बोलने की हिम्मत नहीं जुटा सकी।

मोदी सरकार ने आख़िर कोरोना के चोर दरवाज़े से सेंध लगा कर शाहीन बाग़ का धरना ख़त्म कर दिया है। दीवारों पर बनाए चित्रों को मिटा दिया गया है। लेकिन विरोध ख़त्म नहीं होगा। और यहाँ एक और महत्त्वपूर्ण बात उभरती है – सत्ता का विरोध एक तरह का शाश्वत सच है। जब तक अन्याय रहेगा, विरोध भी रहेगा जो अन्याय को और उस पर टिकी हुकूमत को स्थाई रूप से टिकने नहीं देगा। यही वजह है कि सत्ताएँ अपने विरोध से इतनी ख़ौफ़ज़दा रहती हैं।

लेकिन शाहीन बाग़ अब हुक्मरान की राजधानी का कोई मुहल्ला नहीं अवाम की ताक़त की मिसाल बन गया है। इसकी इबारत इतिहास में लिखी जा चुकी है। शाहीन बाग़ अब एक जुनून और जज़्बा है जो हमेशा बरकरार रहेगा।

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