माफ कीजिये, ये ज़िंदा बम नहीं हैं! ये जिजीविषा लिए अपने देस को जाते लोग हैं…

इक्कीस दिनों की कर्फ़्यूनुमा देशबंदी का फैसला देश के सामने कोरोना की विभीषिका की बढ़ती गति को थामने का एक अनिवार्य उपाय बतलाया गया है। पूरे देश ने इसकी ज़रूरत को महसूस किया है और केंद्र के फैसले का स्वागत किया है। जिन्हें घर से बाहर निकलने की वाकई ज़रूरत नहीं है वो इसे लंबे अवकाश के रूप में देख रहे हैं। परिवार के साथ गुणात्मक समय व्यतीत कर रहे हैं। अपने शौक और रुचियों के साथ मज़े से रह रहे हैं। जिनकी ज़िंदगी घर से निकले बिना नहीं चल सकती वो किसी भी तरह घर से निकलना चाहते हैं, निकल भी रहे हैं लेकिन काम पूरा करके जल्द से जल्द घर लौट आ रहे हैं। जो आवश्यक सेवाओं में हैं उनके लिए घर से निकलना उनकी सेवा शर्तों का अनिवार्य हिस्सा है और उन्हें चाहे अनचाहे घरों से निकलना पड़ रहा है। कुछ ज़रूर ऐसे होंगे जो शौक तफ़रीह के लिए भी निकल रहे होंगे।

इस वक़्त देश में या अपने-अपने शहरों में सड़कों पर जो भी रहा है उसे अपनी सगी आँखों से देखना मुमकिन और मुनासिब नहीं है इसलिए देश का मीडिया जो दिखा रहा है उसे ही अंतिम सत्य मानने के लिए घरों में बैठे लोग अभिशप्त हैं।

दो मुख्य खबरें बीते तीन दिनों से सतह पर हैं। पहली, देश में कोरोना से संक्रमित और उससे होने वाली मौतों के आंकड़े और दूसरी महानगरों से अपने अपने गाँव लौटते हुए मजदूर। ज़ाहिर है कोरोना से संक्रमित होने वालों के आंकड़े अपने-अपने गांवों की ओर लौटते हुए मजदूरों के आंकड़ों से बहुत कम हैं।

इन मजदूरों को अपने-अपने घरों में आराम फरमा रहे लोग ‘जिंदा बमों’ की तरह देख रहे हैं। वैज्ञानिक रूप से भी समुदाय में संक्रमण फैलने की जो आशंकाएं थीं और बनी हुई हैं वो इन मजदूरों के एक साथ सड़क पर निकलने से सही साबित हो सकती हैं।

इसलिए ये ‘जिंदा बम’ तो हैं। इन्हें देश की थम चुकी गति के साथ जहां थे वहीं स्थिर हो जाना था, तब जाकर इस देशबंदी का सकारात्मक असर दिखलाई पड़ता, हालांकि अभी यह कहना सही नहीं है कि ये मजदूर इस वायरस के वाहक बन चुके हैं। यह तो तब तय होगा जब इनका स्वास्थ्य परीक्षण करने की व्यवस्था होगी।

क्या ये ‘जिंदा बम’ वाकई संक्रमण फैलाने का अभियान लेकर देश में निकले हैं? या इनके सामने कोरोना या भूख के बीच किसी एक कारण से मृत्यु वरण करने की अनिवार्यता है? कहते हैं इंसान के जन्म लेने पर उसका अख़्तियार नहीं है लेकिन सीमित ही सही, मृत्यु का वरण करने का अधिकार है। क्या यह स्वेच्छा से मृत्यु चुन रहे हैं? जो मजदूर शहरों और महानगरों का निर्माता है, जिसने उन लोगों के लिए घर बना दिये जो उन घरों में रह सकने की कीमत अदा कर सकते हैं वो इतने कमजोर या ना समझ हैं कि वो अपनी मृत्यु चुन रहे हैं? फिर तो उनके लिए मुफीद था कि इन्हीं महानगरों में रहते और भूख या कोरोना जैसी दो वजहों में से किसी एक से मरने की प्रतीक्षा करते और जीवन के समर में खेत हो जाते?

माफ कीजिये, ये ‘जिंदा बम’ नहीं हैं। अपने अस्थायी ठिकानों, अस्थायी रोजगारों और असुरक्षित ज़िंदगी को यूं ही मौत के हवाले करने से इंकार करते हुए ये सब जीवन की चाह में अपने-अपने गाँव लौट रहे हैं। ये लोग आपके महानगरों को छोड़कर अपने अपने गांवों की तरफ जा रहे हैं जहां से ये आपके शहरों और नगरों को सँवारने आए थे।

ये सिटी मेकर्स हैं, हमारे शहरों के निर्माता हैं, जो संकट की घड़ी में अपने ही बनाये शहरों से नाउम्मीद होकर गांवों में उम्मीद खोजते हुए जा रहे हैं। ये अपने देश जा रहे हैं। यह निर्वासन है, पलायन है या बलात् निष्कासन, इस पर जरूर इनके खून पसीने से खड़े किये गये विश्वविद्यालयों में शोध पत्र पढ़े जाएँगे पर फिलहाल इनकी जिजीविषा इन्हें अपने गांवों की तरफ बुला रही है और ये नंगे पाँव, बच्चों को काँधों पर बिठाये, जीवन की जमा–पूंजी छोटी-बड़ी गठरियों में बांधे पैदल ही सैकड़ों मीलों की दूरी तय करने का माद्दा लिए निकल पड़े हैं।

क्या हम आपने गौर किया ये खुद को अपराधी की तरह ही देख रहे हैं जैसे हम उन्हें देखना चाह रहे हैं? जब पुलिस इन्हें रोककर लाठी चला रही है तो ये उसका प्रतिकार नहीं कर रहे? मुर्गा बनने कहती पुलिस के प्रति अपनी नाराजगी, आक्रोश या क्रोध व्यक्त नहीं करते? कोई खाना दे दे रहा है तो पहला निवाला चबाते हुए बरबस कृतज्ञता के आँसू इनकी आँखों में आ जा रहे हैं और सिसकियाँ ही इनकी आवाज़ बन जा रही है?

ये अपनी बेबसी से संचालित हैं और किसी भी तरह अपने घर, अपने गाँव, अपने देश पहुँच जाना चाहते हैं। इस बात पर भी गौर कीजिये कि ये हंसी ठिठोली करते हुए नहीं जा रहे हैं। किसी भी संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हुए भी नहीं जा रहे हैं। ये अपने लिए किसी के सहयोग की उम्मीद लेकर भी नहीं जा रहे हैं। ये जा रहे हैं क्योंकि इनके पास कोई और वजह जिंदा रहने की बची नहीं है।

देश के नीति नियंताओं से तो खैर आनुवांशिक रूप से इन्होंने उम्मीदें छोड़ रखी हैं। इनकी ज़िंदगी में सरकार के तौर पर पुलिस है, ठेकेदार है, मिल मालिक है और बाकी इन्हें अपने श्रम के बल पर जीवित रहने देने की सरकार प्रदत्त सहूलियत है। पीढ़ी दर पीढ़ी ये इसी तरह जीते आये हैं। इनमें से एकाध कोई कल मजदूर से छोटा-मोटा ठेकेदार बन जाएगा तब तक ऐसी ही एक नयी पीढ़ी इनके बाड़े में जुड़ जाएगी। ये बाड़े से आये थे, यहाँ आकार बाड़े में रहे और अब बलात् निष्कासन के बाद फिर से बाड़े की तरफ लौट रहे हैं जिसे ये अपना देस कहते हैं।

अपने-अपने घरों में आरामयाफ़्ता ‘नागरी समाज’ सरकार से रामायण और महाभारत के पुन: प्रसारण की मांग करते हुए इन्हें समाज का दुश्मन घोषित कर चुका है। पुलिस जब इन्हें पीट रही होती है तब इन्हें वो दृश्य विचलित नहीं करते बल्कि उस पर हंसी आती है।

जीजीविषा की पोटली उठाये अपने गांवों की तरफ लौटते  हुए ये भी सोचते ही होंगे कि शुक्र है हमने केवल मकान बनाये, उनमें रहने वाले नहीं बनाये। अगर इनके अख़्तियार में रहने वाले बनाना भी होता तो उन मकानों की तरह वह भी किसी के लिए सुरक्षा के आलंबन बनते। ख़ैर…

समाचार चैनल इन मजदूरों की तादाद ठीक से तो नहीं बता पा रहे हैं पर मोटामोटी अनुमान है कि पूरे देश में इस समय बच्चे, वृद्ध और महिलाएं मिलाकर कम से कम पाँच करोड़ मजदूर राजमार्गों पर पैदल चल रहे हैं और औसतन एक हज़ार किलोमीटर की दूरी तय करके अपने अपने देश पहुँचने के लिए अभिशप्त हैं। यह आंकड़ा कम ज़्यादा हो सकता है क्योंकि इनकी कोई विशिष्ट पहचान नहीं है और इन्हें अंकों में ही देखे जाने का सरकारी चलन है। एक अनुमान के मुताबिक इन्हें अपने अपने गंतव्य पहुँचने में औसतन पाँच से आठ दिन लगेंगे। इस बीच कोरोना संक्रमण के बचाव के लिए इस्तेमाल में लाया गया एकमात्र उपाय सामाजिक दूरी यानी सोशल डिस्टेन्सिंग इन्हें अपने-अपने गांवों में भी अछूत बना चुका होगा।

ऐसे भी कई दृश्य सामने आ रहे हैं जिनमें गाँव के जागरूक युवाओं ने गाँव की सरहद पर बैनर टांग दिये हैं जिन पर लिखा है कि बाहर से आए लोगों का गाँव के अंदर प्रवेश वर्जित है। इस बैनर के साथ सरहद पर  हाथों में डंडे लिए ये जागरूक युवा पूरी मुस्तैदी से पहरा भी दे रहे हैं।

आज झारखंड मुक्ति वाहिनी के हमारे साथी अरविंद अंजुम ने सोशल डिस्टेन्सिंग शब्द को लेकर एक टिप्पणी की है कि ये तो समाज में सदियों पुरानी प्रथा रही है। कम से कम भारतीय सामाजिक संदर्भों में इसे ‘शारीरिक दूरी और सामाजिक सहयोग’ कहा जाना चाहिए। इतना तो हमारा नागर समाज भी जानता है कि वो आपसदारी में भले ही अङ्ग्रेज़ी शब्द के माध्यम से सतर्कता बरते पर सामाजिक दूरी का ख्याल और बर्ताव वह इस जमात से करते आया है।

गांवों में, जाति आधारित पदानुक्रम से सामाजिक दूरी ही तो बनायी गयी है। साथ खाना, साथ बैठना यहाँ हमेशा से वर्जित रहा है लेकिन सामाजिकता के बिना भी गाँव की तस्वीर पूरी नहीं होती। यानी पृथक रहना या निजता जैसी शब्दावली भी गांवों के लोक व्यवहार में नहीं रही है।

सुरक्षा उपाय के रूप में प्रयुक्त किए गए शब्द –युग्म और बीमारी की संक्रामक क्षमता के आधार पर बहुत मुमकिन है कि इसे अंतत: छूत की बीमारी के रूप में ही गांवों में देखा जाना है और जिसका संताप पीढ़ी दर पीढ़ी भुगतते रहना है। कुष्ठ रोग या क्षय रोग के बारे में भारत के गांवों का इतिहास किसी से छुपा नहीं है।

अगर आप यह सोच रहे हैं कि हम इक्कीसवीं सदी में हैं और जाति, छूआछूत या छूत की बीमारी जैसी बातें अवैज्ञानिक सोच और अंधविश्वास के कारण थे और अब ये चलन में नहीं रहे तब आपको याद दिलाने के लिए 22 मार्च की तारीख और शाम 5 बजे का समय काफी है जो यह भी याद दिलाता है कि अंधविश्वासों और अवैज्ञानिक सोच से तो अभी आप, आपका नागर समाज और आधुनिक राष्ट्र राज्य के तौर पर भारतीय गणतन्त्र की सर्वोच्च सरकार और उस सरकार का मुखिया भी अपनी मंत्रणा परिषद समेत मुक्त नहीं हो पाया है।


कवर फोटो वरिष्ठ पत्रकार गीताश्री की फेसबुक दीवार से 

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