हमें इस्लामी होटल ले जाकर सलमान अपने दिल्ली के दोस्त की बेहतर खातिरदारी करना चाहते थे. कश्मीरी वाज़वां के बारे में मैंने बहुत सुना था. बिस्मिल्लाह करने का यह मौका पहला था. रिस्ता (लाल ग्रेवी में लैंब मीट बॉल), रोगनजोश (कश्मीरी मसालों में पकाया हुआ नरम लैंब मीट), तबकमाज़ (फ्राइड लैंब पीस), आब गोश्त (दही की ग्रेवी में लैंब पीस), गोश्तबा (दही और मख्खन की ग्रेवी में मीट बॉल), कबाब और भात. टेबल पर रखे इतने सारे व्यंजनों को देखकर लगा, ठीक ही वाज़वां को मजमा कहते हैं. इस बीच हम कश्मीरी व्यंजनों, कश्मीर और दिल्ली के खाने के फर्क़ पर बात करते रहे. राबिया शुरुआत में थोड़ी देर शांत रहीं, फिर उज्मा के मार्फ़त राबिया ने मुझसे पूछा कहा, “आप दिल्ली से ही हैं क्या?” राबिया ने जिस तरीके से ‘दिल्ली से होने’ पर जोर दिया था, मैं समझ गया था यह सवाल उनके मन में मेरी ठेठ हिंदी बोलने से आया होगा. “नहीं, मैं बिहार से हूं. रोजगार की तलाश दिल्ली तक ले आई,” मैंने राबिया से कहा. “तब तो आपको रिस्ता की ग्रेवी के साथ लिट्टी की याद आ रही होगी?,” राबिया के सवाल ने मुझे लाजवाब कर दिया और मैं हंसने लगा. मैंने उन्हें बताया कि ये स्टीरियोटाइप बात है, हर बिहारी या पूर्वांचली लिट्टी पसंद नहीं करता.
आधे घंटे चले इस कार्यक्रम में हमलोग इतने मशगूल रहे कि हिंसाग्रस्त कश्मीर में महिलाओं की भूमिका पर कोई बात न हो सकी. एक तरह से यह ठीक भी हुआ क्योंकि राबिया इस्लामी होटल तक बहुत ही उखड़े मिज़ाज से पहुंची थी. राबिया और उज्मा खाने के थोड़े देर बाद विदा हो गईं. उज़्मा ने दोबारा कश्मीर आने का न्यौता दिया. राबिया की एक बात जो शायद लंबे अर्से तक मेरे साथ रह जाने वाली थी, “घाटी का सच लिखना वरना कुछ मत लिखना. सरकारी कहानियां तो हम भोग ही रहे हैं.”
सलमान के तयशुदा प्लान के मुताबिक शाम सात बजे तक हमें श्रीनगर पहुंच जाना था. आदिल की गाड़ी में वापस मैं और सलमान शोपियां के लिए निकले. रास्ते में आदिल ने उज्मा के बारे में बताया कि अपनी राजनीतिक सक्रियता की वजह से उज्मा को पूर्व में वरिष्ठ अधिकारियों की फटकार लग चुकी है. “वर्ष 2017 में शोपियां में दो मिलिटेंट्स के फंसे होने की खबर फैली. दोनों लोकल लड़के थे. मिलिटेंट्स और सुरक्षाबलों के बीच फायरिंग शुरू हो चुकी थी. उज़्मा भी सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वाले स्थानीय लोगों में शामिल रहीं. इसकी वजह से उन्हें कारण बताओ नोटिस भी जारी किया गया था”, आदिल ने बताया.
इस बात से अचानक मेरा ध्यान कश्मीर में मिलिटेंट्स के जनाजों की भीड़ की ओर गया. सलमान की इंस्टाग्राम तस्वीरों का ध्यान आने लगा, कैसे इन जनाजों में महिलाएं भारी संख्या में दिखती हैं. उज़्मा जा चुकी थीं वरना इस विषय पर तो वही बेहतर इनसाइट दे पातीं. मुझे लगा कि मैंने एक महत्वपूर्ण अवसर गंवा दिया. मैंने आदिल से पूछा, “क्या हमारी मुलाकात उज़्मा के अलावा कुछ और महिलाओं से हो सकती हैं जो राजनीतिक रूप से सक्रिय हों?” आदिल खामोश रहे. सलमान ने भी कुछ नहीं कहा. एक वक्त के लिए मुझे ही लगने लगा कि मैं बतौर रिपोर्टर स्टोरी के लिए स्वार्थी हो रहा हूं. लगभग पांच-सात मिनट बाद सलमान ने खामोशी तोड़ी, “आदिल भाई, शोपियां में वो जो ‘ओजी’ शहीद हुआ था, उसके रिश्तेदार मिल सकेंगे क्या?” आदिल ने फिर से कुछ नहीं कहा लेकिन उन्होंने जिस सख्ती से ड्राइविंग सीट के रियर व्यू मिरर से पीछे सीट पर बैठे सलमान की ओर देखा, मैं समझ गया था कि आदिल ऐसी किसी मांग के लिए तैयार नहीं हैं.
यहां से लगभग तीन किलोमीटर आगे बढ़ने के बाद आदिल ने गाड़ी थोड़ी धीमी की और एक संकरी सी सड़क की ओर घुमा दी. सड़क की बाईं ओर, चौथे घर के पास गाड़ी रुकी. “ओनली थर्टी मिन्ट्स,” आदिल ने कहा. आदिल ने लोहे के छोटे गेट की कुंडी खोली और अकेले अंदर दाखिल हुए. मुझे और सलमान को बाहर रुकने के लिए कहा. आदिल दस मिनट में बाहर आए और अपने साथ हमें अंदर ले गए. शायद आदिल इस परिवार से परिचित थे. कमरे में दो महिला और एक पुरुष बैठे थे. कश्मीरी में आदिल ने हमारा परिचय घर के सदस्यों से करवाया. आदिल ने कश्मीरी में ही पहला सवाल भी किया, “इन्हें बताएं कि आप महिलाएं जनाज़ों में क्यों जाती हैं? अमूमन महिलाएं तो जनाजे़ में नहीं जाती हैं?” मैं थोड़ा हैरान था कि आदिल ने सीधे सवाल पूछ लिया. लेकिन नसरीन (बदला हुआ नाम) ज़रा भी विचलित नहीं हुईं. उन्होंने कहा, “जब से त्राल में हादसा हुआ, तभी से हमलोग जनाज़ों में जा रहे हैं. पहले नहीं जाया करते थे.”
‘त्राल का हादसा’ यानी बुरहान वानी का कथित एनकाउंटर। स्थानीय पत्रकारों के मुताबिक, बुरहान की मौत के पहले जनाज़ों में लोगों की भी संख्या बहुत कम होती थी. लोग डरते थे. अब वह डर पुरुषों और महिलाओं दोनों में खत्म हो गया है.
मैंने नसरीन की बात पर पूछने के अंदाज़ में कहा, “बुरहान?” बुरहान का नाम लेते ही नसरीन के साथ बैठी वृद्ध महिला ने परवरदिगार को याद किया. “वह आतंकी नहीं था. वह हमारे लिए लड़ रहा था. उसे धोखे से मारा गया,” नसरीन ने फिर से कुछ ऐसा बोला कि मैं मूल सवाल से भटककर बुरहान पर आ जाऊं. “धोखे से मारा गया?,” मैंने जोर देकर पूछा.
“उस दिन कोई एनकाउंटर नहीं हुआ था. निहत्था था बुरहान. उसे पहले जहर दिया गया और फिर गोली मारी गयी ताकि एनकाउंटर लगे.”
नसरीन जिस बात को आत्मविश्वास के साथ कह रही थी, स्थानीय पत्रकारों ने ऐसी कहानियां आपसी बातचीत में कही थीं लेकिन किसी भी भारतीय पत्रकार की स्टोरी में मैंने इसका जिक्र नहीं पढ़ा था. ‘कथित’ लिखकर भी किसी भारतीय पत्रकार ने बुरहान की मौत पर लोकल नैरेटिव का जिक्र नहीं किया है. कम से कम मैंने अब तक नहीं पढ़ा.
नसरीन से बातचीत आगे बढ़ी तो उन्होंने सेना को लेकर भी कई गंभीर सवाल उठाए. मसलन, वे कश्मीर की तुलना अफगानिस्तान से कर रही थीं जहां एक तालिबान खड़ा किया जा रहा है. वे राजनीतिक दलों और अलगाववादी संगठनों को एक व्यापार का हिस्सेदार बता रही थीं. नसरीन के आरोप गंभीर थे लेकिन उन्हें खारिज करने की औकात मेरे जैसे एक मामूली रिपोर्टर की नहीं थी. नसरीन मेरे लिए एक सब्जेक्ट थीं. उनके एक-एक शब्द मेरे लिए कीमती इनपुट. यह नसरीन को भी मालूम था कि वे जो कह रही हैं, उनके पास शायद उसे साबित करने को कुछ न हो लेकिन वे कह रही थीं क्योंकि अब तक उन्हें अपनी बात खुलकर कहने का मौका ही नहीं मिला था. उन्हें सुनते हुए मैं सोच रहा था कि आखिर कौन सा संपादक और मीडिया हाउस नसरीन की बात को अनकट छापने का जोखिम उठाएगा? रिपोर्टर पर ही सेंसशनलिज्म के आरोप मढ़ दिए जाएंगे.
दिमाग में यही उलझन चल रही थी, कि आसिया (बदला हुआ नाम) ने अचानक मुझसे पूछा, “आप बताओ, जिसे भारत के लोग आतंकी कहते हैं, उसकी शहादत पर यहां हज़ारों की भीड़ क्यों जमा होती है?” मैं चुप रहा. आसिया ने खुद ही जवाब दिया, “वे हमारे बच्चे हैं. वे यहां के लोगों पर हो रहे जुल्मों के खिलाफ लड़ रहे हैं. हमारे फ्रीडम फाइटर्स हैं वे.” मैंने महसूस किया कि हमारी शब्दावलियों में बहुत फर्क था.
जनाज़ों में महिलाओं की भूमिका पर आसिया ने एक धार्मिक पक्ष भी बताया. इस्लामिक कानून के अनुसार जनाज़ों में महिलाओं का शामिल होना वर्जित है. महिलाएं कब्रगाह पर भी नहीं जा सकती हैं. उन्हें सार्वजनिक मातम मनाने की भी छूट नहीं है. “इसका मतलब है कि महिलाओं का जनाज़ों में शामिल होना एक किस्म का धार्मिक सुधार भी है?,” मैंने पूछा.
“एक तरह से कह सकते हैं कि है धार्मिक सुधार, लेकिन उससे ज्यादा यह हमारे लिए एक राजनीतिक संदेश है,” आसिया ने कहा, “जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती सईद की मृत्यु पर पैसे देकर महिलाओं को जनाज़े में ले जाया गया था. उनके जनाज़े और किसी मिलिटेंट के जनाज़े में भीड़ की बुनावट पर गौर करिएगा. मिलिटेंट्स के जनाज़े में कोई पैसे नहीं दिए जाते. हम सब एक आम धारणा से जुड़े हुए हैं- आज़ादी. कहते हैं राजनीति में मौत वोट दिलाती है, मुफ्ती सईद की मौत तो उनकी बेटी को सहानुभूति भी न दिला सकी”.
आसिया की बात सिर्फ़ मातमों की लैंगिक बुनावट तक सीमित नहीं थी. वह शक्ति संरचना का महत्वपूर्ण प्रतीक थी जहां सार्वजनिक दुख और मातमों के मर्दवादी स्पेस को महिलाएं रिक्लेम कर रही थीं.
महिलाओं के सार्वजनिक मातम को नारीवादी लेखिका इंशा मलिक एक सुधारवादी प्रक्रिया बताती हैं. वह कहती हैं, मातम के पारंपरिक तौर-तरीकों को महिलाओं ने बदल दिया, “पहला, उन्होंने राज्य के उस एकाधिकार को चुनौती दी जिसमें राज्य तय करता था कि महिलाएं किसकी मृत्यु पर मातम मना सकती हैं. मसलन, मुफ्ती सईद की मृत्यु पर महिलाओं को मातम मनाने के लिए राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा बुलाया जाना. दूसरा, इस्लामिक रीति रिवाज़ों में महिलाओं ने एक प्रगतिशील पहल की. उन्होंने सार्वजनिक दुखों की रवायत का बराबरी से बंटवारा किया.”
बताते हैं कि बुरहान की मौत के बाद घाटी में एक नारा जो महिलाओं ने जोर-शोर से लगाया, “तेरा भाई मेरा भाई, बुरहान भाई, बुरहान भाई.” बुरहान सोशल मीडिया आयकन बनकर लोगों के जेहन में उतर गया था. इस नारे की भावनात्मक अपील ने महिलाओं और युवाओं को जोड़ा और जनाज़े में हुजूम उमड़ता चला गया. त्राल में बुरहान के जनाज़े पर जब सुरक्षाबलों ने फायरिंग की और पेलेट चलाई, तो उसने समूचे दक्षिण और उत्तरी कश्मीर में बुरहान की मौत को ‘शाही शहादत’ में बदल दिया. जो बुरहान दूर-दूर तक रिश्तेदारी में नहीं था, उस लड़के को भाई का दर्जा दिया गया. मातम में घरों में चूल्हा नहीं जला. “बुरहान भाई सरजमीं के लिए शहीद हुए,” ये कश्मीरियों का नैरेटिव है.
तीस मिनट में सिमटने वाली बातचीत डेढ़ घंटे में तब्दील हो चुकी थी, हालांकि आदिल ने एक बार भी टोका नहीं. मैं नैतिक दबाव जरूर महसूस कर रहा था. आसिया और नसरीन की बात ओरल नैरेटिव थी जिसे रिकॉर्ड करना आवश्यक था. दूसरे तरफ दिमाग में यह भी था कि देर होने का मतलब जानलेवा मुसीबत भी हो सकती है.
मैंने एक बात छेड़ी, “जनाज़ों में शामिल होने की वजह से किसी तरह की कोई परेशानी?” आसिया ने नसरीन का चेहरा देखा. नसरीन ने मेरी ओर देखा और कहा, “हैवानियत की दास्तां सुनना चाहते हो?” मैं निश्शब्द था. आदिल ने मेरी तरफ देखा और फिर दूसरी ओर देखने लगे. मुझे लगा शायद मैंने अपना सवाल ठीक से फ्रेम नहीं किया. “मेरा मतलब है…,”मैंने सवाल रिफ्रेम करने की कोशिश की. “सवाल मुझे क्लियर है, आप चिंता न करें,” नसरीन ने मुझे तसल्ली देने की कोशिश की. यह कोशिश भर ही थी क्योंकि कश्मीर में तसल्ली सिर्फ़ पर्यटकों के नजरिये को मयस्सर है, पत्रकारों, कश्मीरियों, सुरक्षाबलों और मिलिटेंट्स को नहीं.
“हमारे गांव में कासो (कॉर्डन एंड सर्च ऑपरेशन) हुआ था तकरीबन तीन महीने पहले. एक भी मर्द घर में नहीं था. मर्द सुरक्षाबल हमारे घरों की तलाशी ले रहे थे. उन्होंने वक्षों पर चिकोटी काटी. हमारे अंडरवियर को बंदूक की नली में फंसाकर हमारी आंखों के सामने वे प्रदर्शित कर रहे थे,” आसिया ने नसरीन की बात को अनसुना करने के लिए कहा, “आप लोगों को देर नहीं हो रही होगी?” नसरीन की बात ने मुझे हिला दिया था. सलमान और आदिल की भी नज़रें नीचे थीं. महिलाओं की जो एक जेंडर्ड छवि मेरे मन में थी, वह मुझे यह यकीन नहीं करने दे रही थी कि नसरीन ने अनजान और बाहरी मर्दों के सामने यह अनुभव साझा किया. आसिया ने समय का ध्यान दिलाकर अच्छा ही किया. आदिल ने मुझसे कहा, “अब आप जब अगली बार कश्मीर आएं तो किताब लिखने के उद्देश्य से आएं.” आदिल का मतलब था कि और भी वक्त लेकर आएं ताकि तफ़सील से बात कर सकें. मैंने नसरीन की ओर देखा और अभिवादन की मुद्रा में हल्का झुकते हुए इजाज़त ली.
“आपने नसरीन और आसिया के चेहरों पर गौर किया?,” गाड़ी खुलते ही सलमान ने मुझसे पूछा. इस औचक सवाल का जवाब मेरे पास नहीं था. फिर भी मैंने कहा, “मुझे तो नसरीन और आसिया दोनों ही आत्मविश्वास से लबरेज दिखीं.” “बिल्कुल यही मैं कहना चाह रहा था. उनके चेहरों पर थोड़ा भी शिकन न होना ही प्रतिरोध की निशानी है. उन्होंने सुरक्षाबलों के जुल्मों को आपसे बेझिझक बयां कर दिया. उसके पिता, आप, मैं और सलमान- चार मर्दों के बीच उन्होंने अपमान की सिलवटें खोल दीं. यह नई कश्मीरी महिला है,” आदिल ने कहा.
सलमान ने बताया कि जैश-ए-मोहम्मद ने फोटोग्राफरों को मातम करती महिलाओं की तस्वीर लेने से मना किया था. मिलिटेंट्स की मांओं और बहनों की फोटो लेने से फोटोग्राफरों को परहेज करने को कहा गया था. दरअसल, जैश को लगता था कि महिलाओं की रोती तस्वीरों से कश्मीरी कौम की कमज़ोर छवि दुनिया के सामने पेश होगी. इसे भी महिलाओं ने चुनौती दी. जिसे जैश कमजोर छवि के रूप में देख रहा था, महिलाओं ने जनाज़ों में शामिल होकर उसे कश्मीर की असली तस्वीर के रूप में पेश किया.
मिलिटेंट्स के जनाज़ों में महिलाओं की हिस्सेदारी बताती है कि कश्मीर की संप्रभुता और स्वायत्तता का संघर्ष मजबूत हुआ है जबकि भारत का कश्मीर के साथ रिश्ता बिगड़ता ही जा रहा है. महिलाएं कश्मीर में एक नई क्रांति की वाहक बन रही हैं जो सांस्कृतिक और धार्मिक पितृसत्ता के साथ ही सैन्य शक्ति के खिलाफ भी संघर्षरत हैं.
(रोहिण Newslaundry में काम कर चुके हैं. कई वेबसाइटों के लिए स्वतंत्र लेखन और फिलहाल फ्रीलांस, सभी तस्वीरें जुनैद भट्ट के सौजन्य से)