बर्फ़ की तह में: रिसती हुई वादियों में इल्‍म का एक गुलशन

कश्‍मीर से ग्राउंड रिपोर्टों की श्रृंखला में आखिरी किस्‍त

श्रीनगर जाने वाले सैलानियों की तरह मैं भी डल झील की सैर करने निकल पड़ा. होटल से ऑटो लिया और पहुंच गए डल झील. वहां पहुंचते ही शुरु हो गया स्थानीय शिकारे वालों का मुझे ‘टोपी’ पहनाने का सिलसिला. कोई 2000 रुपए बोलता तो कोई कम करके 1900 रुपए. एक वक्त को मुझे लगा कि डल झील नहीं ही घूम पाएंगे. मैं थोड़ा झल्ला भी गया था. किनारे से ही डल की तस्वीरें उतारने लगा. फोन का कैमरा इतना भी शानदार नहीं था कि कोहरे में घिरी ज़ाबरवन की पहाड़ियां बिल्कुल साफ दिख सकें. अभी हाल-फिलहाल जब मैंने प्रधानमंत्री मोदी की डल झील वाली तस्वीरें देखीं तो मुझे ईर्ष्या हुई, “इनकी तस्वीरें क्या जबरदस्त आईं हैं यार!” मैंने खुद को समझाया, “वो प्रधानमंत्री हैं. वो बिना जनता के भी अभिवादन स्वीकार करने का हुनर जानते हैं. उन्हें फोटोजेनिक होना आता है.” खैर, एक शिकारे वाले को बहुत देर तक सेट करने के बाद मैं चल पड़ा.

जिसे यहां शिकारा कह रहे थे, इससे छोटी-छोटी नावों पर इसके पहले मैं इलाहाबाद, बनारस और बेगूसराय में चढ़ा था. इन नावों से जुड़ा एक हादसा भी याद आता रहा. फल्गू में बाढ़ आई हुई थी और हमें गांव जाना था. एक ही नाव पर पचासों लोग. नाव डूबते-डूबते बची थी.

शिकारे वाले ने ओढ़ने के लिए एक पतला सा कंबल दे दिया. यह वैसा ही कंबल था जैसा एनजीओ वाले ठंड में गरीबों को बांटा करते हैं. कहने को कंबल होता है, आता है सिर्फ दरी बनाने के काम. जब शिकारा थोड़ा आगे बढ़ा तो मैंने पोज़ मारना शुरू किया, फोटो खिंचवाने के लिए. जैसे गंगा में पानी के छींटे उड़ाते हुए फोटे खिंचवाते हैं, वह डल के साथ संभव न हो सका. बर्फ़ तो नहीं जमी थी लेकिन पानी का तापमान बर्फ़ से कुछ ही कम रहा होगा. डल में एक घंटे की सैर के बाद थोड़ी ऊंची सी एक इमारत दिखी. शिकारे वाले ने बताया कि यह बुक स्टोर है. मैंने उनसे आग्रह किया कि हमें सिर्फ़ दस मिनट दे दें. शिकारे वाले ने कहा, दस मिनट नहीं, “आप बीस मिनट ले लो. उससे ज्यादा देर मत करना.”

बुक स्टोर का नाम था गुलशन बुकस्टोर. बाहर से आपको यह किसी आम किताब की दुकान जैसा ही लगता है, पर जब आप इसके अंदर जाते हैं तो पता चलता है यहां तो पूरा कश्मीर किताबों की शक्ल में मौजूद है. देशी,विदेशी लेखकों द्वारा कश्मीर के अलग-अलग मुद्दों पर इतना काम किया गया है जो शायद ही दिल्ली के बुक स्टोर्स पर देखने को मिले. इस बुक स्टोर में बैठकर पढ़ने की सुविधा भी है. डल झील के बीच,सामने बर्फ से ढंकी पहाड़ियों को देखते हुए भला किताब पढ़ने के लिए इससे मुफीद जगह और क्या हो सकती है. रीडिंग रूम हालांकि सर्दियों के चलते बंद पड़ा था. बुक स्टोर पर मौजूद मैनेजर ने मुझे बताया कि गुलशन बुक स्टोर का अपना पब्लिकेशन भी मौजूद है जहां से कश्मीर के अलग-अलग मुद्दों पर आधारित कई किताबें छप चुकी हैं. शोएब ने हमें यह भी बताया कि मेन गुलशन बुक स्टोर लाल चौक में है. अगले दिन लाल चौक स्थित बुक स्टोर पर मिलने का वादा कर मैंने शोएब से विदा लिया.

गुलशन बुक स्टोर के मालिक के साथ लेखक

अगले दिन दोपहर करीब 1 बजे मैं लाल चौक वाले गुलशन बुक स्टोर पहुंचा. यहां डल झील वाले बुक स्टोर के मुकाबले अधिक किताबें थीं. दिल्ली में कश्मीर के बारे में यह बहुत सुना था कि कश्मीर पर काम नहीं हुआ है. किताबों के नाम पर भी सात-आठ से ज्यादा का आप मुंहजुबानी जिक्र न कर पाएं. गुलशन बुक स्टोर पहुंचकर ऐसा लगा जैसे कितना कुछ कश्मीर पर पढ़ने को मौजूद है. अज्ञानता के कारण यह कह दिया जाता है कि कश्मीर पर काम नहीं हुआ है.  कश्मीर के इतिहास से लेकर वहां की संस्कृति, विवादों, हिंसा, बदलते हालात, कश्मीरी शॉल, कटलरी, सूफीज़्म और भी न जाने कितने मुद्दों पर वहां कितना कुछ सहेजकर रखा गया है.

उसके मालिक शेख एज़ाज अहमद अपनी किताबों की दुकान में जैसे कश्मीर का सबकुछ समेट लेना चाहते हैं. ऐसा नहीं है कि बुक स्टोर में सिर्फ कश्मीर से संबंधित ही किताबें हैं बल्कि इंग्लिश लिट्रेचर और राजनीति विज्ञान से संबंधित क्लासिक किताबें भी मौजूद हैं. एज़ाज़ की किताबों की पांच दुकानें हैं. यह दिलचस्प है कि गुलशन बुक स्टोर की शुरुआत 1947 के पहले की गई थी. तब यह दुकान श्रीनगर-मुजफ्फराबाद हाइवे पर स्थित थी. एज़ाज की यह पांचवीं पीढ़ी है जो अब किताबों का कारोबार देख रही है. लाल चौक वाली दुकान पर गुलशन बुक स्टोर ऐंड पब्लिकेशन के मालिक खुद बैठते हैं. वे किताब प्रेमी सैलानियों के लिए गाइड की भूमिका भी निभाते हैं। बता दें कि इनकी यह मशहूर किताबों की दुकान लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में भी दर्ज है.

बातों-बातों में मैंने एज़ाज से पूछ ही लिया कि आखिर उनकी दुकान में हिंदी की कोई किताब क्यों नहीं है? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि उनकी दुकान पर ज़्यादातर लोग अंग्रेज़ी या उर्दू की किताबें ही लेने आते हैं. जब मैंने उन्हें बताया कि हिंदी में कश्मीर पर हाल-फिलहाल ही एक बेहतरीन किताब ‘कश्मीरनामा’ आई है तो एज़ाज झट से लेखक अशोक कुमार पांडे को पहचान गए.

मैंने कश्‍मीर पर अब तक जितनी भी किताबें पढ़ी हैं, किसी में भी कहीं भी कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार को जस्टिफाई नहीं किया गया है, लेकिन पता नहीं क्‍या कारण है कि एक अजीब सा माहौल तैयार कर दिया गया है कि आप कश्मीर को लेकर आत्‍मनिर्णय के अधिकार की बात करेंगे तो चार लोग आपको पंडितों की बात करने को कहेंगे. फिर सेना की बात करेंगे. फिर पाकिस्तान और फिर घूम-फिर कर बंदूक की नोक पर कश्मीर को शासित करने की बात कह कर तमतमाते रहेंगे. यह भी एक किस्म का प्रौपगैंडा ही है.

बातों के बीच एज़ाज अपने दूसरे कस्टमर्स के साथ भी लगे रहे. उनकी दुकान पर आने वाले ज़्यादातर लोग कश्मीर के बाहर के ही थे जो वहां आकर अपने काम से संबंधित किताबें ढूंढते. मुझे यह जानकार काफी अच्छा लगा कि एज़ाज के बुकस्टोर की दो कुर्सियों का इस्तेमाल कुछ स्थानीय पत्रकार अपने वर्कस्टेशन की तरह किया करते हैं. उन्हें एज़ाज ज़रूरत के हिसाब से किताबें भी मुहैया करवाते हैं.

एज़ाज से किताबों पर बात करते-करते कब चर्चा कश्मीर के हालात की ओर मुड़ गयी, इसका मुझे ध्यान ही नहीं रहा. एज़ाज अपनी किताबों की दुनिया के बीच रहने वाले एक खुशमिज़ाज इंसान होने के साथ-साथ एक निराश कश्मीरी नागरिक भी थे. उन्हें हमेशा यह टीस रहती है कि वक्त के साथ कश्मीर में कुछ सुधरा नहीं बल्कि और बिगड़ता ही चला गया. वहां के युवा किताबों से हथियारों की ओर चले गए. हालांकि एज़ाज इसकी वजह कश्मीर में बुनियादी सुविधाओं की कमी भी बताते हैं.

किताबों की दुकान खोलने के पीछे एज़ाज का मुख्य उद्देश्य कश्मीरी युवाओं को किताबों की तरफ वापस लौटाना ही है. डल झील के बीचों-बीच बुक स्टोर खोलने के पीछे एज़ाज का मकसद भी यही था. इस सिलसिले में उन्होंने जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सैयद से बात की थी और आज उनके सपनों का बुक स्टोर डल झील के बीच आकर्षण का केंद्र बन चुका है.

2014 में घाटी में आए एक विनाशकारी बाढ़ में बुक स्टोर की मुख्य ब्रांच का काफी नुकसान हुआ था और उन्हें अपनी दुकान दोबारा खोलने में महीनों लग गए थे.

एज़ाज चाहते हैं कि गुलशन बुक स्टोर कश्मीर के इतिहास और राजनीति को दर्ज करने में अहम भूमिका निभाए. वे स्थानीय पत्रकारों और शोधकर्ताओं को फेलोशिप भी प्रदान करने के इच्छुक नज़र आते हैं. बातचीत के दौरान एज़ाज को कई लेखकों के फोन भी आते रहे जो अपनी किताबें उनके पब्लिकेशन से छपवाना चाहते थे. उनकी दुकान में विदेशी शोधकर्ताओं का भी आना हुआ जो वहां कुछ पुरानी किताबों की मांग करते दिखे. ऐसा बहुत कम देखने को मिला कि किसी ने कश्मीर पर कोई किताब मांगी हो और गुलशन बुक स्टोर में वह न मिली हो.

एक चीज हालांकि मुझे बहुत अखर गई. गुलशन पब्लिकेशन की किताबों की कीमत दूसरे प्रकाशकों के मुकाबले कहीं अधिक थी. मैं चाहकर भी तीन से ज्यादा नहीं खरीद सका. बहुत चुनने के बाद मैंने डेविड देवदास की “रेज़ इन कश्मीर”, नायला अली खान की “इस्लाम, विमेन एंड वायलेंस इन कश्मीर” और प्रेम नाथ बज़ाज की “कश्मीर इन क्रूसिब्ल” खरीदी. डेविड की किताब मुख्यत बुरहान के बाद के घाटी के हालात पर आधारित है. नायला उन परतों को उघाड़ती हैं जिन्हें कनफिलक्‍ट जोन में गैर-ज़रूरी समझा जाता है- महिलाओं और बच्चों की स्थिति. इन किताबों का रिव्यू कभी विस्तार से लिखूंगा.

उम्मीद है अगली बार जल्द ही कश्मीर जाना होगा. पांच भाग की इस श्रृंखला का अंत यही कहकर करूंगा कि आप भी कश्मीर को टीवी और हवाई बातों से बिल्कुल न समझें. किताबें पढ़े और उनके संदर्भों  को खंगालें. कोशिश करें कि वैष्णो देवी से आगे बढ़कर श्रीनगर तक पहुंचें. कश्मीर को जानना बेहद जरूरी है. कश्मीर केवल सैर-सपाटे की जगह नहीं है, कश्‍मीर केवल हनीमून डेटिनेशन नहीं है. कश्‍मीर एक मुसलसल रिसता नासूर है सदियों से, जिसके खून से हज़ारों पन्‍ने रंगे जा चुके हैं. इन पन्‍नों को पलटिए, कश्‍मीर को नए सिरे से समझिए. किताबें आपको बुला रही हैं. उनकी आवाज़ सुनिए.

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(रोहिण Newslaundry में काम कर चुके हैं. कई वेबसाइटों के लिए स्वतंत्र लेखन और फिलहाल फ्रीलांस)

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