अदालत और पुलिस की बुलंदी के बावजूद न्याय की अवमानना का चलन क्यों?

 

यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने अपने समय में कहा था, लोकतंत्र तब है जब अमीर लोग नहीं बल्कि ग़रीब लोग शासक होते हैं।

जब हाल में मशहूर समाजकर्मी वकील प्रशांत भूषण को वरिष्ठ जजों के आचरण पर, लोकतंत्र के सन्दर्भ में, ट्वीट के लिए देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी अवमानना का दोषी करार दिया तो तीन माननीय जजों की पीठ का अंतर्निहित तर्क यही होगा कि अदालत के वकार पर आँच नहीं आने दी जा सकती। इसी तरह जब पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में पुलिसकर्मियों के दुस्साहसी हत्यारे विकास दुबे और उसके कई साथियों को पुलिस ने मार गिराया था तो उनका भी दावा था कि वे पुलिस का वकार ही स्थापित कर रहे थे।

सवाल है, आज इन सबके बावजूद, अदालत और पुलिस की तूती बोलने के बावजूद, कानून का अपना वकार रसातल में क्यों पहुंचा हुआ है? अदालत और पुलिस की इस बुलंदी के बावजूद समाज में न्याय की बुलंदी का दौर क्यों नहीं आ पा रहा?

देश में आम नागरिक को प्रायः शिकायत रहती है कि पुलिस और अदालत से न्याय पाना बड़ी टेढ़ी खीर है। क्यों? दो टूक जवाब होगा, क्योंकि न्याय की अवमानना करने वालों पर शायद ही कभी कोई प्रभावी कार्यवाही होती हो। अदालत की अवमानना पर दंड की व्यवस्था है; पुलिस की अवमानना पर डंडों की, लेकिन न्याय की अवमानना को अनदेखा करने का ही रिवाज चल रहा है।

दरअसल, न्याय की अवमानना देखने के लिए आपको कहीं दूर जाने की जरूरत भी नहीं होती। आप दोस्त की पार्टी से थोड़ी पीकर घर के लिए निकले हैं। सड़क किनारे अपना टू-वहीलर  लगाकर पेशाब करने लगते हैं क्योंकि दूर-दूर तक इसकी सार्वजनिक सुविधा नहीं दिख रही। तभी अचानक गश्त करते पुलिसकर्मी प्रकट होते हैं और आपको डंडा लगाते हुए हांक कर ले जाते हैं। यह प्रसंग खत्म होता है आपको घंटों थाने में अपमानित करने और अपने इस ‘कष्ट’ के लिए पुलिस द्वारा आपसे चार हज़ार रुपए वसूलने के बाद। सोचिए, आपके आस-पास पूरा अदालती और पुलिस तंत्र सक्रिय होने से भी क्या आपको न्याय मिल पाएगा?

ठीक है, सड़क किनारे पेशाब करना क़तई सही नहीं लेकिन क्या इस तरह वे पुलिसकर्मी आपके भीतर क़ानून का रुतबा बढ़ा रहे हैं या क़ानून की तौहीन की जमीन पुख़्ता कर रहे हैं? ज़ाहिर है, अगली बार आप यही सब करते हुए बस अधिक सावधान रहेंगे क़ि कोई पकड़े नहीं।

इससे मिलता जुलता कोई और रोज़मर्रा का, छोटा-मोटा कहे जाने वाला, प्रसंग भी हो सकता है- मास्क, ड्राइविंग लाइसेंस, पार्किंग, कहा-सुनी, शराब, अतिक्रमण, छेड़छाड़ इत्यादि। ये पुलिस के लिए क़ानून के प्रति लोगों के भीतरी सम्मान को मज़बूत करने के अवसर होने चाहिए। लेकिन प्रायः इनका इस्तेमाल सामान्य नागरिक को अपमानित करने या उससे पैसा वसूलने या दोनों में होता मिलेगा।

लिहाज़ा, एक सामान्य व्यक्ति के दिलो-दिमाग में, इस तरह की पुलिस क़वायद का नतीजा कानून पालन से विरक्ति का होता है। जबकि ऐसे अवसरों पर यदि पुलिस सार्वजनिक रूप से सम्बंधित के प्रति नागरिक सम्मान दिखाते हुए अपने कानूनी आचरण का प्रदर्शन करे तो यह दूसरों को भी क़ानून के प्रति सम्मान जताने के लिए प्रेरित करेगा।

लोकतंत्र के प्रति जागरूक तबकों के लिए यह बेशक संतोष का कारण रहा होगा कि हालिया सर्वोच्च न्यायालय संग्राम में वकील प्रशांत भूषण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के एक संघर्षरत हीरो बन कर उभरे हैं। इसके बरक्स गैंगस्टर विकास दुबे के फर्जी एनकाउण्टर का मामला सर्वोच्च न्यायालय के सामने होते हुए भी, वह एक ऐसे घृणित खलनायक के रूप में सामने आया है जिसे उसी के समाज में धूल चटा दी गयी है। लेकिन इन प्रकरणों की संतुष्टि से आम नागरिक के लिए ज़मीनी हकीकत नहीं बदलेगी। दरअसल, न वह सुरक्षित महसूस करेगा न सम्माननीय।

कड़वी सच्चाई छू मंतर होने नहीं जा रही कि उसे न प्रशांत भूषण के अनुकरणीय बलिदान से ज़्यादा कुछ हासिल होगा और न विकास दुबे के बलि चढ़ा दिए जाने से ही। उसके जीवन में लोकतंत्र का अर्थ तभी सिद्ध होगा जब पुलिस और अदालत न्याय के एजेंट के रूप में काम करें।

न्याय की लोकतांत्रिक अवधारणा के साहित्यिक चितेरे प्रेमचंद ने लोक भाषा में इसे यूँ रखा था- न्याय वह है जो कि दूध का दूध, पानी का पानी कर दे, यह नहीं कि खुद ही कागजों के धोखे में आ जाए, खुद ही पाखंडियों के जाल में फँस जाए।

अपवादस्वरूप ही यह पक्ष पुलिसकर्मी की कार्यपद्धति में पाया जाएगा या न्यायिक नेतृत्व की क्षमता और ऊर्जा इस दिशा में काम करती मिलेगी। आश्चर्य क्या कि प्रशांत भूषण और विकास दुबे जनित संवादों की गहमागहमी में भी यह लगभग नदारद ही रहा है।

 


विकास नारायण राय, अवकाश प्राप्त आईपीएस हैं. वो हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।

 


 

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