मीडिया की स्वतंत्रता को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की ख़बर ली पर एक्सप्रेस ने सरकार की ख़बर दी!

 

 

सरकार विरोधी चैनल महीनों बंद रहा पर सरकार समर्थक एंकर हफ्ते भर में जमानत पा गया था – यह इस सरकार के राज में ‘व्यवस्था’ रही है  

 

आज के अखबारों में सुप्रीम कोर्ट की दो बड़ी खबरें हैं। मोटे तौर पर एक को सरकार के पक्ष में और एक को सरकार के खिलाफ माना जा सकता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट अब सरकार के पक्ष में या खिलाफ फैसले नहीं दे रहा है बल्कि न्याय कर रहा है। वरना पिछले दिनों व्यवस्था यह हो गई थी कि सारे फैसले सरकार के पक्ष में आ रहे थे। भले जिन मामलों में सरकार के पक्ष में फैसला नहीं होना चाहिए वो रह गए लेकिन लंबे समय तक सरकार के खिलाफ फैसले देखने-सुनने को नहीं मिले। बात व्यवस्था की है और इसमें तथ्य है कि सरकार समर्थक एंकर अर्नब गोस्वामी के पक्ष में फैसला तो एक हफ्ते में हो गया पर एक चैनल का प्रसारण बंद किए जाने के मामले में फैसला नहीं हुआ और वही फैसला अब आया है। बेशक, ऐसा सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की भारी संख्या के कारण भी हुआ हो सकता है पर व्यवस्था ठीक हो तो इसे भी देखना ही होगा। हालांकि, मेरा मुद्दा वह नहीं है। 

मेरा मतलब संबंधित खबरों की प्रस्तुति से है और जैसा मैंने पहले कहा, दोनों खबरें मोटे तौर पर दो अलग खानों में आसानी से रखी जा सकती हैं। हिन्दुस्तान टाइम्स ने इन्हें अगल-बगल छाप कर लगभग बराबर महत्व दिया है। हालांकि एक पांच और दूसरी खबर तीन कॉलम में है। सरकार विरोधी और सरकार समर्थक इन खबरों की प्रस्तुति देखने से लगता है कि इनके जरिए अखबारों ने भी सरकार के प्रति अपना समर्थन जाहिर किया है। जैसा मैंने पहले कहा, व्यवस्था के लिहाज से चैनल बंद होने का मामला एक रिपोर्टर, एंकर या संपादक को जमानत मिलने से ज्यादा महत्वपूर्ण था। पर एंकर का फैसला जल्दी हुआ जो घोषित तौर पर सरकार समर्थक है। ऐसे में द टेलीग्राफ ने आज  संबंधित मीडिया संस्थान के दफ्तर की फोटो भी छापी है और देखने लायक है बल्कि ‘खबर’ तो वही है।  

सुप्रीम कोर्ट के दो फैसले अगर आज की दो खबरें हैं और एक सरकार के समर्थन में है तथा दूसरी खिलाफ तो दोनों की प्रस्तुति देखने लायक होगी। बेशक इसमें सरकार को सही ठहराने और सरकार के पक्ष में प्रचार करने का मौका है। मैं यह देखता और बताता हूं कि ऐसा कुछ लग रहा है कि नहीं। जनहित के लिहाज से चैनल का मामला निश्चित रूप से महत्वपूर्ण और बड़ा है। लेकिन सरकार अगर मनमानी करती लगे, उस पर विरोधियों को परेशान करने का आरोप लगे, सरकारी एजेंसी के दुरुपयोग का आरोप लगे और सुप्रीम कोर्ट कहे कि नहीं सभी नागरिक बराबर हैं और नेताओं के खिलाफ सरकारी एजेंसी के दुरुपयोग के आरोप पर हम कोई आदेश नहीं देंगे तो इसे सरकार के समर्थन में प्रस्तुत किया जा सकता है या वैसे भी प्रमुखता दे दी जाए तो बाकी काम प्रचारक और व्हाट्सऐप्प यूनिवर्सिटी से भी हो जाएगा। 

मुझे लगता है एक चैनल पर प्रतिबंध लगाना, लंबे समय तक प्रतिबंध लगा रहना और उसे अब हटाया जाना – अपने आप में बड़ी खबर है और एक मामले में हस्तक्षेप नहीं करने के सुप्रीम कोर्ट के ही निर्णय के मुकाबले ज्यादा गंभीर और बड़ा मामला है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने इसे पांच कॉलम में छापा भी है। शीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट ने चैनल पर से प्रतिबंध हटाया, राष्ट्रीय सुरक्षा का उपयोग बहाने के रूप में करने की निन्दा की। बेशक यह बड़ा मामला है और सरकार की कार्रवाई की अच्छी खासी खिंचाई हुई है पर इंडियन एक्सप्रेस ने दूसरी वाली खबर को चार कॉलम में लीड बनाया है जबकि चैनल पर से प्रतिबंध हटाने की खबर दो कॉलम में है। इसके साथ नागरिक अधिकारों की रक्षा शीर्षक से एक्सप्रेस एक्सप्लेन्ड भी है। 

एक्सप्रेस की खबरों में न सिर्फ लीड का शीर्षक दिलचस्प है। उसके साथ और भी खबरें सरकार का प्रचार करती लग रही हैं और यह संदेश दे रही हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने 14 विपक्षी दलों के आरोप को नहीं माना। जबकि मुख्य खबर यह है कि उसने इस मामले में कोई निर्देश देने से मना कर दिया है। कहने वाले कहते हैं कि यह याचिका ही गलत थी और सुप्रीम कोर्ट में  मुद्द को भटकाने वाली याचिकाएं दायर करने के उदाहरण भी हैं पर वह मेरा विषय नहीं है। फिर भी, इंडियन एक्सप्रेस की प्रस्तुति रेखांकित करने लायक है। ऐसा लग रहा है जैसे खुशी छिपाए नहीं छिप रही है। फ्लैग शीर्षक है, 14 विपक्षी दलों ने आरोप लगाया था कि ईडी, सीबीआई जान-बूझ कर निशाना बना रही है। मुख्य शीर्षक है, सुप्रीम कोर्ट ने विपक्ष की दलील खारिज की : राजनीतिज्ञों के लिए कोई खास नियम नहीं, आम लोगों जैसा ही। उपशीर्षक है, अगर विरोध के लिए जगह कम हो गई है तो इलाज राजनीतिक क्षेत्र में ही है, कोर्ट में नहीं। 

जाहिर है, इस शीर्षक का एक अर्थ यह भी निकलता है सरकार विपक्षी नेताओं के खिलाफ चुनकर सीबीआई-ईडी लगा रही है इसे सुप्रीम कोर्ट ने गलत नहीं माना है। और मुझे यह इसीलिए सरकार का प्रचार लगता है। हालांकि, मुझे यह भी लगता है कि उपशीर्षक, कानून मंत्री किरेन रिजिजू के लिए है और उन्हें नोट कर लेना चाहिए कि अदालत ने राजनीति के क्षेत्र में दखल नहीं दिया और उन्हें भी अदालत के क्षेत्र में दखल नहीं देना चाहिए। पहले के जो मामले हैं वो अपनी जगह हैं। अगर उन्हें उससे गलतफहमी हुई हो तो यह उनका मामला है और अदालतों की ओर से उन्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है। वे अपना काम करें जैसा लोगों ने उन्हें हाल में खूब बताया है। एक्सप्रेस की लीड के साथ भाजपा ने निर्णय की प्रशंसा की, भ्रष्ट के खिलाफ कार्रवाई होगी और कांग्रेस ने निडरता का सबूत दिया ओवैसी ने इसे सेल्फ गोल कहा जैसे शीर्षक भी हैं जो बताते हैं कि ये खबरें अंदर के पन्नों पर हैं।  

टाइम्स ऑफ इंडिया ने दोनों खबरों को एक ही शीर्षक के तहत रखा है और दो उपशीर्षक से दोनों खबरों को अलग किया है। मुख्य शीर्षक है, सरकार नागरिकों को कानूनी उपायों से वंचित रखने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा का उपयोग औजार के रूप में कर रही है। एक खबर का शीर्षक है, दो चैनल के लाइसेंस रद्द करने वाले आदेश को खारिज किया। सरकार की आलोचना करने वाले विचार सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ नहीं होते हैं। मुझे लगता है कि यह सब अब बताने वाली बात नहीं है। सरकार ने मनमानी करने के लिए ऐसी दलील दी जबकि किसी खबर का उदाहरण भी (प्रचारित) नहीं है। जाहिर है, ऐसा कुछ है नहीं। इसमें मुहरबंद लिफाफे की चर्चा भी है जो इंडियन एक्सप्रेस में प्रमुखता से नहीं है।  फिर भी चैनल को इतने समय तक बंद रखने के लिए सरकार की जो आलोचना होनी चाहिए थी वह इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर तो नहीं है। टाइम्स ऑफ इंडिया में जरूर है। मीडिया संस्थानों, पत्रकार संगठनों ने किया ही नहीं हो तो वह अलग मुद्दा है।  

द हिन्दू में लीड का शीर्षक वही है जो टाइम्स ऑफ इंडिया में एक खबर का है या उपशीर्षक है, सरकार की आलोचना करने वाले विचार सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ नहीं होते हैं। पूरा शीर्षक इस प्रकार होगा, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकारी नीतियों पर आलोचनामक नजरिया सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ नहीं है। उपशीर्षक है, अदालत ने मलयालम चैनल मीडिया वन पर से प्रतिबंध हटाया और कहा कि मार्गदर्शन के बिना अस्थायी तौर पर सील्ड लिफाफों का उपयोग प्राकृतिक न्याय के क्षेत्र का उल्लंघन करती है। इस लिहाज से साफ है कि सरकार ने जो किया-करवाया वह प्राकृतिक न्याय के खिलाफ है। फिर भी लंबे समय तक यह सब चलता रहा है। 

अब उसका समर्थन भी हो रहा है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि सरकार की नीति की आलोचना को सत्ता विरोधी नहीं कहा जा सकता। साथ ही, बगैर तथ्यों के ‘हवा में’ राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी दावे करने को लेकर केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रति नाखुशी भी जताई। देश के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई वाली पीठ ने ‘मीडियावन’ के प्रसारण पर सुरक्षा आधार पर प्रतिबंध लगाने के केंद्र के फैसले को बरकरार रखने संबंधी केरल उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया। यह दिलचस्प है कि हाईकोर्ट ने जिस सामग्री के आधार पर फैसला दिया था, उसे केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक सीलबंद लिफाफे में शीर्ष अदालत को सौंपा था और कहा था कि सुरक्षा मंजूरी देने से इनकार करने का मंत्रालय का फैसला विभिन्न एजेंसियों से प्राप्त खुफिया सूचनाओं पर आधारित था। 

इसपर पीठ ने कहा है कि सरकार प्रेस पर अनुचित प्रतिबंध नहीं लगा सकती है क्योंकि इसका प्रेस की आजादी पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। यह विडंबना ही है कि इंडियन एक्सप्रेस ऐसी सरकार के खिलाफ टिप्पणी को महत्व नहीं देकर उसके पक्ष में फैसले को महत्व दे रहा है।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।

 

 

 

 

 

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