गुजरात दंगे में मरने वाले बनाम मोदी जी की तकलीफ़!

वही मोदी जी, ‘जो घर में शादी है, पैसे नहीं हैं’ – कहकर खुश हो रहे थे। आतंकवाद की आरोपी को सांसद बनाया और पार्टी के नेताओं ने कहा कि यह कांग्रेस की साजिश थी, इसके लिए हिन्दू कांग्रेस को कभी माफ नहीं करेंगे और इमरजेंसी के खिलाफ अब भी बोल रहे हैं जबकि इमरजेंसी के लिए कुख्यात दूसरी हस्ती, संजय गांधी की पत्नी और बेटे उनकी पार्टी में हैं, कई साल से। भारतीय अदालतों की विश्वसनीयता और उसकी चिन्ता किसका काम है। इसपर भी कई किताबें हैं। जब अखबारों में कुछ नहीं छप रहा है तो किताबें ही सहारा हैं, रिकार्ड तो हो रहा है लेकिन ….

गुजरात दंगे से संबंधित हालिया रिपोर्ट चर्चा में है। उसपर दिलचस्प टीका-टिप्पणी और प्रतिक्रियाएं सोशल मीडिया पर हैं जबकि अखबारों में राजा का बाजा बजाने के अलावा ऐसा कुछ नहीं आ रहा है। हाल की रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया और दंगे से संबंधित कुछ पुरानी रपटें पढ़ते हुए माया कोडनानी, बाबू बजरंगी और तलहका की रपटों की याद आई। इसके साथ ही याद आया कि तहलका के संपादक तरुण तेजपाल यौन उत्पीड़न के एक मामले में फंसे थे और अदालत से बरी हो गए थे। उसके बाद तहलका की धार जाती रही। राणा अयूब की रिपोर्ट भी तहलका के लिए ही थी और तीस्ता सीतलवाड के बाद कहा जा सकता है कि राणा अयूब का नंबर है। हालांकि अभी तक उनके बचे रहने की भी कहानी चर्चा में पर वह फिर कभी। वैसे उन्हें कम परेशान नहीं किया गया है। माया कोडनानी से संबंधित बीबीसी की 31 अगस्त 2012 की अंग्रेजी की एक रिपोर्ट का शीर्षक है (अनुवाद मेरा), गुजरात दंगे: भाजपा की माया कोडनानी को 28 साल की जेल।

इसमें कहा गया है, भाजपा की वरिष्ठ नेता को 2002 गुजरात दंगों के दौरान 97 लोगों की हत्या के आरोप में 28 साल की जेल हुई है। माया कोडनानी एक पूर्व मंत्री और मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की सहायक हैं। इस दंगे की शुरुआत गोधरा में 60 तीर्थयात्रियों की मौत के बाद हुई थी। दंगे के समय (2002) कोडनानी मंत्री नहीं थीं। श्री मोदी ने 2007 में उन्हें मंत्री बनाया हालांकि 2009 में गिरफ्तारी के बाद मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया लेकिन विधायक बनी रहीं। गुजरात दंगे के सिलसिले में एक और नाम प्रमुखता से आया था, बाबू बजरंगी का। विकीपीडिया के अनुसार उनका नाम बाबू भाई पटेल है और आप बजरंग दल की गुजरात शाखा के नेता थे। बाबू बजरंगी के कई स्टिंग हैं, उनका बचाव भी है और जाहिर है पूरे मामले को समझने के लिए समग्रता में पढ़ना जरूरी है पर मैं यहां उनके एक बयान का उल्लेख सिर्फ यह बताने के लिए कर रहा हूं कि पूरे मामले को समझना आसान नहीं है और एसआईटी रिपोर्ट को चुनौती देने को साजिश मानना सरकारी मनमानी की हद है।

यह अलग बात है कि वह साबित भी हो जाए। मेरा मानना है कि बाबू बजरंगी का यह बयान जब सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध है तो कोई क्यों नहीं कोई किसी क्लीन चिट का विरोध करे और अगर चुनौती दी जानी है तो इस बयान को भी दी जानी चाहिए। कारवां पत्रिका ने आशीष खेतान की पुस्तक, “अंडर कवर माई जर्नी इंटू द डार्कनेस ऑफ हिन्दुत्व” के अंश प्रकाशित किए थे जो इंटरनेट पर उपलब्ध हैं और 17 जनवरी 2021 को पोस्ट किया गया बता रहा है। अंग्रेजी में लिखी इस किताब का संबंधित हिस्सा इस प्रकार है, और यह हिन्दी में ही है, एक अश्लील शब्द समेत। अंग्रेजी में जो लिखा गया है मैं उससे सहमत नहीं हूं इसलिए हिन्दी वाली बात ही लिख रहा हूं। मेरा मानना है कि अंग्रेजी में जो लिखा गया है उसका मतलब कुछ और होगा। हालांकि अभी वह मुद्दा नहीं है।

संबंधित अंश इस प्रकार है सवाल अंग्रेजी में, (अनुवाद मेरा), “मैंने बजरंगी से पूछा, नरेन्द्र भाई उस दिन क्या नरेन्द्र भाई ने सहायता दी जिस दिन नरोदा पटिया हुआ। जबाव हिन्दी में ही लिखा है, उसने तो सब राम नाम कर दिया ना यार, नहीं तो किसकी ताकत थी, सब उसका ही हाथ है भाई, नहीं तो पुलिस को इंस्ट्रक्शन (निर्देश) देवे तो गांड फाड़ देवे पुलिस।” एक अभियुक्त ने यह बयान एक स्टिंग में दिया है और मेरे ख्याल से ऐसा ही या इससे मिलता जुलता एक बयान राणा अयूब की किताब में भी है। लेकिन उसकी बजाय मैं बाबू बंजरंगी के और गंभीर बयान और उसके बचाव की जानकारी देना चाहता हूं।

मेरे पास गुजरात दंगे (इसे हिंसा भी कहा जाता है) की चर्चा करने वाली दो पुस्तकें हैं। पहली, गुजरात रायट्स द ट्रू स्टोरी। इसके लेखक हैं, एमडी देशपांडे जो पेशे से इंजीनियर हैं और कंप्यूटर विज्ञान व इंजीनियरिंग में स्नातक। आप जमना लाल बजाज इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज, मुंबई से एमबीए हैं। पुस्तक के कवर पर बताया गया है कि आपने गुजरात हिंसा पर जबरदस्त अनुसंधान किया है। लेखन के साथ इनकी दिलचस्पी क्रिकेट और भारतीय इतिहास में भी है। दूसरी किताब गुजरात दंगे पर नहीं, मोदी के भारत पर है। क्रिस्टोफ जैफरइलॉट किंग्स कॉलेज लंदन में इंडियन पॉलिटिक्स एंड सोशियोलॉजी के प्रोफेसर हैं। मुझे लगता है कि गुजरात दंगे और उसके बाद जो हुआ को समझने के लिए इसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए। इसका नाम है, मोदीज इंडिया – हिन्दू नेशनलिज्म एंड द राइज ऑफ एथनिक डेमोक्रेसी। इसमें एक अध्याय है, मोदी इन गुजरात : द मेकिंग ऑफ अ नेशनल पोपुलिस्ट हीरो। एक और अध्याय है, मोदीज राइज टू पावर, ऑर (या) हाऊ टू एक्सप्लायट होप फीयर एंड एंगर।

फिलहाल, ‘… द ट्रू स्टोरी’ के बारे में। इसमें एक अध्याय है, तहलका के झूठ। इसमें बाबू बंजरंगी के एक अन्य बयान की चर्चा है। मैं उसे यहां हिन्दी में पेश कर रहा हूं। इसके अनुसार, तहलका के संकर्षण ठाकुर ने दावा किया कि बजरंगी ने यह स्वीकार कर लिया है कि उसने एक गर्भवती महिला का पेट फाड़ कर भ्रूण निकाल लिया। तथ्य यह है कि बजरंगी ने कहा था कि उसके खिलाफ एफआईआर में कहा गया है कि उसने एक गर्भवती महिला को (का पेट) फाड़ दिया था। ट्रांसक्रिप्ट में भ्रूण का उल्लेख नहीं है। इस तरह यह भूण की कहानी का तीसरा रूपांतर है। …. यहां तहलका का पक्ष नहीं है। दूसरी बातें हैं और इसके साथ बताया गया है कि बलबीर पुंज (भाजपा समर्थक पत्रकार, लेखक) ने इसपर आउटलुक में प्रतिक्रिया दी थी। यहां अखबार के सातवें अध्याय का उल्लेख है जिसका शीर्षक है, मीडिया द्वारा मनगढ़ंत झूठ और मिथक।

माया कोडनानी की ताजा स्थिति जानने की कोशिश में 18 दिसंबर 2017 की एक खबर से पता चला कि गुजरात हाईकोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया था। 21 अप्रैल की एक खबर के अनुसार बाबू बजरंगी की उम्र कैद कायम रही। मार्च 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने उसे मेडिकल कारणों से जमानत दे दी थी। यहां यह याद दिलाने की जरूरत है कि स्टेन स्वामी जेल में ही मर गए। उन्हें जमानत नहीं मिली। जहां तक तहलका की रिपोर्ट का सवाल है, तथ्य यह भी है कि उसके संपादक पर सहकर्मी के साथ यौन दुर्व्यवहार का मामला चला और वे बरी हो गए। गोवा सरकार ने इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की जिसे स्वीकार कर लिया गया है। यहां उल्लेखनीय है कि 20 मार्च 2019 के एक फैसले के अनुसार समझौता ब्लास्ट के कुल आठ अभियुक्त थे, इनमें से एक की मौत हो चुकी है, जबकि तीन को भगोड़ा घोषित किया जा चुका है। अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष अपने लगाए आरोप को साबित नहीं कर सका और इस कारण सभी चार अभियुक्तों को बरी किया जा रहा है।

अभियुक्तों की रिहाई पर नाराजगी जताते हुए पाकिस्तान ने तब कहा था कि धमाके के 11 साल बाद सभी अभियुक्तों का बरी हो जाना साबित करता है कि भारतीय अदालतों की विश्वसनीयता कितनी कम है। इसके बावजूद, 20 मार्च को फैसला सुनाए जाने के बाद की एक खबर बीबीसी के पोर्टल पर टाइम्स टाइम्स ऑफ इंडिया के हवाले से है। इसमें कहा गया है, “यह पूछे जाने पर कि क्या अभियोजन पक्ष इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील करेगा, उन्होंने (उस समय के गृह मंत्री राजनाथ सिंह) कहा, नहीं, सरकार को क्यों अपील करनी चाहिए? इसका कोई मतलब नहीं है। राजनाथ सिंह ने इस मामले में नए सिरे से जाँच को भी ख़ारिज कर दिया। उन्होंने कहा, “एनआईए ने इस मामले की जाँच की। इसके बाद ही उसने आरोप पत्र दाखिल किया। अब जबकि कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुना दिया है, उस पर भरोसा किया जाना चाहिए।”

एक व्यक्ति और दूसरी महिला से कथित यौन दुर्वयवहार का तहलका मामला इतना गंभीर क्यों है कि निचली अदालत के फैसले के खिलाफ राज्य सरकार ने हाई कोर्ट में अपील है और आतंकवाद के मामले में अभियुक्त, साध्वी प्रज्ञा को प्रारंभिक जांच से बरी हुए बिना भी सांसद बना दिया गया। यह अलग बात है कि भाजपा नेताओं ने उन्हें हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए कांग्रेस की साजिश का शिकार करार दिया है। प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि हिन्दू इसके लिए कांग्रेस को कभी माफ नहीं करेंगे और हिन्दू आतंकवाद के दाग के लिए कांग्रेस को सजा देंगे। इसके बावजूद अदालत में मामला साबित नहीं हुआ तो वह कानूनी मामला है लेकिन तथ्य यह है कि इन सारी बातों को लिखा और पढ़ा भी नहीं गया है जबकि लिखने-पढ़ने में भी बचाव कम नहीं है। यह सब जान-बूझकर भी यह समझना मुश्किल नहीं है कि गुजरात दंगे क्यों और कैसे हुए होंगे।

कुछ लोगों का मानना है कि सरकार (या प्रधानमंत्री) को बहुमत है तो वे जो चाहे कर सकते हैं। पर तथ्य यह है कि कुछ लाख वोट या समर्थन पाने वाले के समर्थन से मोदी जी प्रधानमंत्री हैं। उनकी सरकार तीन घंटे में एक गाने को 27 मिलियन (दो करोड़ 70 लाख) बार देखे जाने और 3.3 मिलियन (3 करोड़ 30 लाख) लोगों द्वारा पसंद किए जाने के बावजूद यूट्यूब से हटवा देती है (हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर) जबकि गाने वाला अब जिन्दा नहीं रहा। उसकी लोकप्रियता से डरने की जरूरत नहीं है। लोकप्रियता को भुनाना हो तो अलग बात है। लोकप्रियता की आड़ में ऐसा काम वही करेगा जो अपने समर्थकों के प्रति आश्वस्त होगा। यह आश्वासन किस दम पर है मैं नहीं जानता पर इसमें मीडिया की भूमिका जरूर मानता हूं। कुछ हद तक समर्थकों की अंधभक्ति भी हो सकती है कि वे विरोध में कुछ सुनना समझना ही पसंद नहीं करते हैं क्योंकि उनकी राय में समाज के एक वर्ग के लोग टाइट हो रहे हैं। हालांकि यह भी उनका भ्रम ही है।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

 

 

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