कृषि क़ानून से बढ़ेगी बेरोज़गारी, कॉरपोरेट की बलि चढ़ जायेंगे कृषि रोज़गार

सब जानते हैं कि देश में पहले से ही बेरोज़गारी चरम पर है। ऐसे में सरकार की ज़िम्मेदारी थी कि इस गहरे संकट को दूर करने के ठोस कदम उठाए। लेकिन अफसोस की बात है कि इस सरकार की प्राथमिकताओं में शायद जनता की नहीं, बड़े बड़े पूंजीपतियों की सेवा है। वरना और क्या कारण हो सकता है कि अब भी समस्या का समाधान की बजाए सरकार इसके उलट काम करे।

संसद में जिन नए कृषि कानूनों को जबरन पास कराया गया है, उससे देश में बेरोज़गारी और बढ़ने की संभावना है। देश में सबसे बड़ी संख्या में लोग कृषि व्यवसाय से जुड़े हुए हैं। इन कानूनों के बनने के बाद एक बड़े वर्ग की रोजी रोटी रोज़गार धंधा कॉरपोरेट की बलि चढ़ जाने की संभावना है। मंडी में काम करने वाले मजदूरों से लेकर आढ़ती और खेतिहर मजदूर से बटाईदार तक सब पर इसका प्रभाव पड़ सकता है। कृषि व्यवसाय से जुड़ा एक बड़ा वर्ग उन पूंजीपतियों के अधीन हो जाएगा, जिनका निवेश अब इस क्षेत्र में होगा। साफ दिख रहा है कि कानून के पीछे सरकार की मंशा कितनी ख़तरनाक है। क्या देश के अन्नदाताओं को इस कदर असहाय और पंगु बनाने की योजना है कि जो किसान आज सरकार के खिलाफ सड़क पर आ जाते हैं, वो भविष्य में विरोध करने लायक भी न रहें?

मोदी सरकार द्वारा लाये जा रहे कृषि कानूनों पर दो तरह के विरोध हो रहे हैं। एक तो कानून के असर को लेकर और दूसरा है पास कराने के तरीके को लेकर। जहाँ तक तरीके की बात है वो हम सबने देखा कि किस तरह राज्यसभा में संसदीय प्रक्रियायों की हत्या करके ध्वनि मत से जबरन विधेयक पास करवा दिया गया। विधेयक पर वोटिंग को अनसुना कर दिया गया, संसदीय समिति को भेजे जाने की मांग को खारिज दिया गया और टीवी प्रसारण तक को रोक दिया गया, ताकि इस सरकारी बेशर्मी का देश गवाह न बने। राज्य सभा में जो कुछ हुआ उसे कई लोगों ने शर्मनाक करार दिया है। आपके मन में भी सवाल होगा कि अगर ये कानून सच में किसानों के हित में था तो सरकार बहस या मत विभाजन से इतना डर क्यों रही थी?

पहले तो सरकार ने इतने गंभीर मसले पर किसानों से, उनके प्रतिनिधियों से या विपक्ष से कोई सलाह विचार नहीं किया। यहाँ तक कि हरसिमरत बादल जैसे अपने कैबिनेट मंत्री तक को विश्वास में नहीं लिया। अकाली दल की मंत्री ने कानून के विरोध में इस्तीफा देते हुए बताया कि उनको भरोसे में नहीं लिया गया था। तो ऐसी क्या मजबूरी थी कि कहीं कोई चर्चा किये बिना मोदी जी ने कोरोना महामारी के बीच में ही ये अध्यादेश जारी कर दिया? फिर जब शोर और सवाल हुआ तो हर तरीका अपनाया बचकर निकलने का और जबरन विधेयक पास कराने का। आखिर ऐसी बेताबी क्यों?

सबसे ज़्यादा बवाल MSP (न्यूनतम समर्थन मूल्य) को लेकर हो रहा है क्योंकि सबसे ज़्यादा विरोध फिलहाल पंजाब और हरियाणा जैसे उन राज्यों में है जहाँ किसान को MSP मिलने की संभावना ज्यादा होती है। विरोधी कह रहे हैं कि इस कानून के बाद किसानों को उनके फसल की खरीद पर MSP मिलना मुश्किल हो जाएगा, लेकिन प्रधानमंत्री बार बार कह रहे हैं कि मिलता रहेगा। मज़ेदार बात है कि ये कोई नहीं कह रहा कि आज भी कितने किसानों के फसल की खरीद MSP पर होती है। साल 2015 में शांता कुमार कमेटी की एक रिपोर्ट आई जिसने बताया कि हमारे देश में सिर्फ 6% किसानों को MSP मिलता है। मतलब जिस MSP को लेकर इतना हाहाकार हो रहा है, वो ज़्यादातर किसानों के नसीब में पहले से ही नहीं है। ऐसा क्यों? क्योंकि सरकारी खरीद नहीं होती। सरकारी कीमत तो तब मिलेगी न जब सरकारी खरीद हो। और खुले बाजार में हमेशा किसानों का शोषण हो जाता है। मोदी जी के पहले बिल में दरअसल यही दिक्कत है।

ऐसा नहीं है कि इस सरकार ने कोई पहली बार किसान को खुले बाज़ार में फसल बेचने की छूट दे दी है। किसान हमेशा से अपनी फसल कहीं भी बेच सकता था। असल में ये स्कीम है खरीददारों के लिए और उन कंपनियों के लिए जिनकी नज़र एक बड़े बाजार पर है। सवाल ये है कि क्या प्रधानमंत्री ये सुनिश्चित करेंगे कि APMC मंडियों के अलावा खुले बाजार में होने वाली खरीद पर किसान को MSP से कम कीमत नहीं मिलेगी? क्या इस तरह की कोई कानूनी बाध्यता होगी फसल के खरीददार पर या उन कंपनियों पर जो किसान से सीधा डील कर रहे होंगे? इस सवाल का जवाब दिए बिना प्रधानमंत्री का ये कहना कि MSP की व्यवस्था जारी रहेगी, धोखा देने जैसा है। क्या आप ये साफ साफ कह सकते हैं मोदी जी कि खुले बाजार में कभी कोई व्यापारी या बड़ी कंपनी MSP के नीचे फसल की खरीद नहीं करेंगे? अगर ऐसा नहीं कह सकते तो किसानों को गुमराह आप कर रहे हैं, कोई और नहीं।

दूसरा कानून जो लाया जा रहा है वो जमाखोरी को बढ़ावा देगा। हम सब जानते हैं कि अनाज या किसी भी सामग्री की होर्डिंग से क्या होता है। इस तरह के कानून से किसका हित साधा जा रहा है, वो भी हमें साफ समझ आता है। तीसरा कानून जो लाने की तैयारी है वो कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग से संबंधित है। इसका असर ये होगा कि चंद बड़ी कंपनियां जो कृषि क्षेत्र में बड़ा निवेश करेंगी, वो आपके खेत को कॉन्ट्रेक्ट पर ले लेगी। हम में से कई किसान आज भी ये काम करते हैं, लेकिन कॉन्ट्रेक्ट पर जिन्हें देते हैं उनको बटाईदार कहते हैं। उनका रोज़गार धंधा इसी से चलता है, कई भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की रोजी रोटी इसी से चलती है। जैसे ही बड़ी कंपनियां मार्किट में प्रवेश करेंगी सबसे पहले तो वो सारा बैलेंस बिगाड़ देंगी ताकि सब लोग उन्हें ही अपने खेत देना चाहें। लेकिन धीरे धीरे बाजार के नियम वहीं से तय होंगे और किसान खुद ज़मीन पर कर्मचारी की तरह हो जाएंगे। हो सकता है देश में एक नई तरह की कॉरपोरेट ज़मींदारी शुरू हो जाए। आज तो कम से कम सरकार के सामने किसान अपना विरोध दर्ज़ करा लेता है, अपनी बात कह लेता है, लेकिन उन बड़े कॉरपोरेट के सामने आप कितना विरोध जता पाएंगे और उनपर कितना असर होगा वो आप खुद सोच लीजिये। दरअसल किसान इस कदर असहाय और पंगु होता चला जाएगा कि विरोध करने की भी अपनी क्षमता गंवा देगा।

इसलिए अब भी मोदी सरकार चाहे तो देश के किसानों की आशंकाओं को दूर करे। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस वक़्त प्रधानमंत्री के प्रति किसानों में घोर आशंका है। इस वक़्त उनकी बात का भरोसा किसान क्या, उनकी सरकार के अपने ही मंत्री नहीं कर रहे। मोदी जी अगर इस अविश्वास को दूर करने के प्रति गंभीर हैं तो कानून में कम से कम इतना लिख दें कि खुले बाजार में होने वाली हर खरीद MSP पर होगी। अगर किसानों को ये कानूनन अधिकार मिल जाये कि कोई भी व्यापारी या बड़ी कंपनी उनकी फसल MSP से कम दाम पर नहीं खरीद पायेगा, तो ये सरकार की नीयत के प्रति विश्वास बहाल करने में मददगार होगा।


अनुपम, ‘युवा हल्लाबोल’ के संस्थापक हैं।

 


 

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