सब कर लो मोदी जी, मगर रोओ मत! रुलाने वाला ही रूदाली बन जाए, तो फिल्म फेल हो जाती है!

विष्णु नागर का व्यंग्य : स्ट्रेटजिक रुदन

मोदी जी आप बहुत रोते हो, इतना मत रोया करो भाई! संसद में तो आपके अलावा सभी पत्थर दिल बैठे हैं, वे तो आपको रोता देखकर भी नहीं रोते मगर इधर आप रोये कि उधर गोदी चैनल भी जार-जार रोने लग जाते हैं। आपके आँसू तो फिर भी थम जाते हैं, उनके नहीं थमते। आप दो मिनट बाद रोने से फारिग हो जाते हो, वे दिन-रात रोते रहते हैं। फिर अक्खा सोशल मीडिया भी रोने लग जाता है (या आपके रोने पर हँसने लग जाता है)। भक्त और भक्तिनें भी रोने लग जाते हैं। चारों ओर हाहाकार- सा मच जाता है। दृश्य बेहद कारुणिक हो जाता है। सबका रोना सह्य है मगर आपके कुर्सी पर होते हुए आपके भक्त-भक्तिन रोने लगें, यह असह्य है। अभी से उनका रोना आपकी कुर्सी के लिए घातक है।

अतः मोदी जी, आपको जो करना हो, करो मगर रोओ मत। आज देश आपके नाम रो रहा है कि हमने आखिर किसे प्रधानमंत्री बना दिया और आप रो रहे हो- कांग्रेस के एक नेता के नाम! इससे भक्तों को भ्रम हो सकता है कि आप बहुत भावुक हो। किसी दिन किसानों के आंदोलन से भी पिघल जाओगे और रोकर अपनी भीष्म प्रतिज्ञा से पीछे हट जाओगे। इससे गोदी चैनलों और भक्तों की किरकिरी हो जाएगी। किसानों को खालिस्तानी और पाकिस्तानी कहने की चैनलों की सारी कवायद व्यर्थ हो जाएगी। वे आंदोलनजीवी फिर किसे कहेंगे?उन पर यह अन्याय मत होने दो। वे आपकी गोदी में बैठकर अंगूठा चूसते, आपके अपने  बच्चे हैं। गोदी से उतरकर खेलने-कूदने-खाने की उनकी उम्र अभी हुई नहीं है। होगी, तब भी आप इन लाड़लों को गोदी से उतरने नहीं दोगे। आप इन्हें बिगड़ने नहीं दोगे।

यह तो आपने बहुत समझदारी का काम किया कि लाकडाउन के दौरान गरीब-भूखे मजदूरों के पत्नी-बच्चों समेत हजारों किलोमीटर चलने पर नहीं रोये। उनकी तरफ देखते और मान लो, रो देते तो गजब हो जाता। बेचारे मजदूर सर पर थैला रखकर चलते भी, पुलिस के डंडे भी खाते और आपको रोता देख, रोते भी। उधर देश समझता कि वे डंडे खाकर रो रहे हैं और आपका उनके लिए रोना बट्टे खाते में चला जाता। यह भी अच्छा हुआ कि आज तक आप दिल्ली की सीमा पर बैठे किसानों की हालत पर नहीं रोये। वे आपको रोता देखते तो भ्रम में पड़ जाते कि मोदी जी हमारे लिए भावुक हो रहे हैं। अब तो ये अडाणी-अंबानी के आगे नहीं झुकनेवाले, जबकि आप इनके लिए नहीं, उनके लिए रो रहे थे। फिर भी कोई भ्रम पैदा होना ठीक नहीं। भ्रम भी स्ट्रेटजिकली फैलना-फैलाना चाहिए। स्ट्रेटजी बना कर ही रोना चाहिए। माँ के पैर छूने से लेकर रोने तक की स्ट्रेटजी होना चाहिए। भक्तों तक हर हरकत का स्ट्रेटेजिक संदेश पहुँचना चाहिए-वह बढ़ी हुई दाढ़ी हो या रोना।

उधर किसान-मजदूर-आदिवासी बिना स्ट्रेटजी के रोते हैं इसलिए चायवाले तक नहीं बन पाते। जहाँ हैं, वहीं सड़ जाते हैं। मोदी जी का महत्व प्रधानमंत्री होने में नहीं, उनकी स्ट्रेटजी में है। प्रधानमंत्री तो आते-जाते रहते हैं मगर स्ट्रेटजिक डिसइनवेस्टमेंट से लेकर, बढ़ती दाढ़ी और आँसू बहाने का स्ट्रेटजिक उपयोग करने वाला दूसरा प्रधानमंत्री फिर कभी नहीं होगा।

यह अच्छी तरह समझ लिया जाना चाहिए कि मोदी जी का रोना किसी और का रोना नहीं है कि अंधेरे कोने में बैठकर चुपचाप रो लिए और किसी को पता भी नहीं चला। उन्हें रोना भी लाइव कैमरे के सामने ही आता है। इस कारण उन्हें बहुत सी उल्टीसीधी बातें भी सुननी पड़ती हैं। लोग शक करते हैं कि ये अभिनय-कुशल आदमी के घड़ियाली आँसू हैं। उधर ये जीवन के संध्या काल में पहुँच चुके ‘ट्रेजेडी किंग’ को भी डरा रहे हैं कि बच्चू, देख तू मेरा अहसान मान कि मैं फिल्मों में नहीं आया वरना तेरा यह ताज मेरे सिर पर होता! तुझे बख्शने के लिए ही मैंने देश को नहीं बख्शा।

जो हो, आप इतना रोया मत करो। जीवन में साथियों का मिलना-बिछुड़ना चलता रहता है। फिर आज तो आपके हाथ में सत्ता है। आप जिनके बिछुड़ने पर इतना रो रहे हो, उनसे रोज मिलने का इंतजाम भी कर सकते हो। फिर रोना किस लिए? सब कर लो मोदी जी, मगर रोओ मत। रुलानेवाला ही रूदाली भी बन जाए, तो फिल्म फेल हो जाती है। छप्पन इंच के सीनेवाला रोने लगे तो भक्तों को भी अभक्तों की तरह  सीने के छप्पन इंची होने पर से विश्वास उठ जाता है! इसलिए स्वहित में यह है कि इतना भी मत रोओ कि आपकी यह स्ट्रेटजी भी फेल हो जाए। वैसे भी चौकीदार रोते नहीं। रो-रोकर ‘स्वावलंबी भारत’ नहीं बनाया जा सकता। रो-रोकर मंदिर नहीं बनाया जा सकता। रो-रोकर तो अब बेवकूफ बनाना भी आसान नहीं रहा।


विष्णु नागर, वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और चर्चित व्यंग्यकार हैं। यह व्यंग्य उनके फेसबुक पेज से लिया गया है।

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