शंकर गुहा नियोगी: एक मार्क्‍सवादी, अम्बेडकरवादी और गांधीवादी

ट्रेड यूनियन नेता, ए. के. रॉय, जिनका अभी हाल ही में निधन हुआ, भारतीय राजनीति के एक ऐसे युग के प्रतिनिधि थे जो निश्चित तौर पर और व्यापक रूप में जो अब अतीत का हिस्सा है. धनबाद के सांसद के तौर पर उन्होंने तीन कार्यकाल सेवा में गुज़ारे, वह भी एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में, बिना किसी राजनितिक दल से संबद्ध होकर: उनके चुनाव अभियान के लिए साधन-सुविधा छोटे-छोटे दान स्वरुप खदान मज़दूरों और मध्ध्यम वर्गीय शुक्चिन्तकों द्वारा जमा की जाती थी. रॉय ने शादी नहीं की, और जब वे धनबाद में रहते थे, तो अपने समर्थकों की तरह एक फूस की झोपडी में बिना बिजली के निवास करते थे. उनका चरित्र और जीवन-शैली, भारतीय संसद में बैठने वाली उन मोटी बिल्लियों की दुनिया से कहीं परे हटकर थी, जो क्रोनी पूंजीपतियों की तिजोरी के बल-बूते पर ऐश करते हैं. 

रॉय की मृत्यु के बारे में पढ़कर मुझे उस एक मौके की याद आ  गई जब मैं उनसे लगभग मिला. सन १९८१ में, जब मैं अनियंत्रित खनन के पर्यावरण और सामाजिक प्रभावों पर एक सम्मेलन  (conference on the environmental and social impacts of unregulated mining) में छात्र-वालंटियर था. आयोजकों ने मुझे रॉय को आमंत्रित करने भेजा था. जैसे कि मुझसे कहा गया था, मैं उनके सांसद-फ़्लैट गया, जो विट्ठलभाई पटेल भवन में मात्र दो-कमरे का था; और जो लुटियन शैली के बंगलों (the Lutyens’ bungalows)  से कहीं भी मेल नहीं खाता था, जो आज के सांसदों के लोभ और कब्जे में हैं. मैंने दरवाज़ा खटखटाया, और जब कोई भी जवाब न मिला, तो और ज़ोर-ज़ोर से खटखटाया. थोड़ी ही देर में एक लम्बे कद-काठी के आदमी ने दरवाज़ा खोला, जो कुरता-पायजामा पहने था, और अपनी आंखें मल रहा था. यह रॉय नहीं थे, लेकिन मैंने उसे एकदम पहचान लिया. वह शंकर गुहा नियोगी थे, छत्तीसगढ़ के जुझारू मजदूर नेता. उन्होंने बड़ी शालीनता से मुझे बताया कि रॉय घर पर नहीं हैं, लेकिन अगर कोई सन्देश हो तो वह उन्हें बता देंगे.  उनके सौजन्य ने मुझे और भी शर्मसार कर दिया. इस इंसान को निश्चय ही सोने के लिए कुछ और समय चाहिए था, और मैंने उसे इससे भी वंचित कर दिया. मैं आज भी इसके लिए अपने को दोषी मानता हूँ.

जब मैंने रॉय के निधन के बारे में सुना, तो मुझे गुहा नियोगी की याद आ गई; मैंने उन्हें एक बार फिर से याद किया जब बंगाली लेखक, मनोरंजन व्यापारी के संस्मरण को अंग्रेजी में मैंने पढ़ा. गुहा नियोगी के बारे में ब्यापारी की पहली छाप बहुत-कुछ मेरी तरह ही है; फर्क सिर्फ इतना था कि उन्होंने गुहा नियोगी को हमारी भव्य शाही राजधानी में नहीं बल्कि मध्य भारत के एक गांव में देखा था. छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की एक सभा में ब्यापारी ने देखा कि “एक लम्बा-गोरा आदमी, आंखों में चमक, खादी का कुरता-पायजामा पहने, नीचे घास पर आम लोगों के साथ बैठा था. हालांकि अनेकों के बीच में भी वह लोगों की भीड़ में घुल-मिल नहीं रहा था. उसकी मुस्कराहट, उसके साफ़-सुथरे चहरे पर उसके व्यक्तित्व का रौब झलक रहा था. वह सीधा-तना हुआ खड़ा था; उसके सिर और काँधे दूसरों के मुकाबले कहीं ऊँचे थे – वह सिर जिसने अन्याय के सामने झुकना नहीं सीखा था. एक सिर जिसकी कीमत पैसों में नहीं आंकी जा सकती थी.”

ब्यापारी बाद में गुहा नियोगी के घर गए. “मुझे यह देख कर ताज्जुब हुआ कि उसका घर मज़दूर बस्ती में रहने वाले किसी और गरीब की मानिंद ही था. एक कमरा जिसके दोनों ओर वरांडाह था. मट्टी की दीवारें जिनके ऊपर खपरे की छत थी….जब मैं वहां पहुँचा तो शंकर गुहा नियोगी, सात सौ पच्चास रुपये के अपने मासिक भत्ते के बल-बूते पर, अपनी पत्नी, दो बेटियों और एक बेटे के छोटे से परिवार के साथ खुश और शांत, एक अस्थिर चौकी पर, चाय की चुस्कियां लेते हुए बैठा था”.

शंकर गुहा नियोगी ने अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत मार्क्सवादी के तौर पर की थी, लेकिन समय के साथ-साथ वह गाँधी के करीब आ गया. ब्यापारी तब अपने विवरण में गुहा नियोगी के उस फलसफे और व्यावहारिक संश्लेषण (the philosophical and practical synthesis) का ज़िक्र करते हैं, जिस पर चलकर गुहा नियोगी ने अपना यह सफ़र तय किया, और जो उन्होंने खुद ब्यापारी को बताया था: “जय प्रकाश नारायण ने एक रचनात्मक आन्दोलन का प्रयास किया, जो असफल रहा. नक्सल्वादियों ने एक ध्वंसात्मक आंदोलन का प्रयास किया, वह भी असफल हुआ. इसलिए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि रचनात्मक और ध्वंसात्मक के बीच एक सामंजस्य बैठाने की ज़रुरत है. इसलिए हमारा नारा है: ‘निर्माण के लिए नष्ट करो , और नष्ट करके निर्माण करो’ (‘Construct to destroy, and destroy to construct’). इसको ध्यान में रखते हुए ही अपने संगठन के माध्यम से हमने प्रयास किया है कि यहाँ हम अस्पताल, छोटे-छोटे स्कूल, वर्कशॉप, सहकारी और सांस्कृतिक समितियों का निर्माण करेंगे.  इन प्रयासों के ज़रिये हमने लोगों को यह बताने की कोशिश की है कि जिस नए समाज की हमने परिकल्पना की है, उसका भावी स्वरुप कैसा होगा. यहाँ हम एक दूसरा प्रयास भी करते हैं कि लोकतंत्र के तहत हमें जो भी मौके मिले हैं उनका अधिकतम लाभ उठाएं – जैसे कि सभा, जुलुस-रैली, प्रदर्शन, ज्ञापन, प्रतिनिधित्व के ज़रिये.”

गुहा नियोगी ने अपने मेहमान से कहा कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा)  और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) [माकपा] के नेतृत्व वाली मज़दूर यूनियनों के संकीर्ण, अर्थवादी दृष्टिकोण में (the narrow, economistic approach) “कारखाने की चार-दीवारी से बाहर एक मज़दूर की ज़िन्दगी के बारे में कोई भी रचनात्मक सोच-विचार है ही नहीं. लेकिन हमने ऐसा किया है, और पता लगाने की कोशिश की है कि एक पुरुष और महिला को अपनी ज़िन्दगी को स्वस्थ, प्रगतिशील और सुन्दर बनाने के लिए कौन-कौन सी चीज़ों की ज़रुरत है.”

छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा (छमुमो) की विशिष्टता को समझाते हुए गुहा नियोगी आगे बताते हैं: “हमने मज़दूरों के लिए उच्चतम वेतन की मांग रखी. उच्चतम वेतन तो मिल भी गया. लेकिन यह वेतन दारू पीने में खर्च हो गया. इसलिए हमें शराब-बंदी आन्दोलन शुरू करना पड़ा. अब आप गौर करें कि मज़दूर यूनियन के परंपरागत मार्ग का यह कभी भी हिस्सा नहीं रहा….इसलिए हमें प्रेरणा स्वरुप गांधी जी के रास्ते को अपनाना पड़ा. हमने सभी ‘वादों’ (isms) में निहित कल्याणकारी सिद्धांतों से कुछ-न-कुछ लिया है – मार्क्सवादी, गांधीवादी, लोहियावादी, अम्बेडकरवादी. हमने उनका अध्धयन किया है, उनसे कुछ लिया है, और अपने ज़रूरतों के मुताबिक उनको यहां अनुकूलित किया है.”

कई सालों पहले, रजनी बक्शी नामक एक लेखिका ने शंकर गुहा नियोगी पर एक सारगर्भित श्रदांजलि प्रकाशित की थी (जो ऑनलाइन उपलब्ध है). उसमें उस राज्य दमन का ज़िक्र उसने किया है जो गुहा नियोगी ने झेला था; आपातकाल के दौरान उसने एक साल जेल में काटे, सरकार द्वारा उसपर हमेशा झूठे और बेबुनियाद मुक़दमे ठोंके गए; और इन सब उत्पीडन का समापन सितम्बर १९९१  में उद्योगपतियों के भाड़े के गुंडों द्वारा उनकी हत्या में हुआ,जब  पुलिस और राजनेता आँख मूंदकर दूसरी तरफ देख रहे थे. उस समय उनकी उम्र ४८ वर्ष थी.

रजनी बक्शी हमें याद दिलाती हैं कि गांधी जी की ही तरह, गुहा नियोगी एक असामयिक पर्यावरणविद् (a precocious environmentalist) थे. खदानों और कारखानों के इर्द-गिर्द बहने वाली स्वच्छ और निर्मल जल वाली नदियों में प्रदूषण को लेकर वे इस समस्या के प्रति सतर्क हुए. गुहा नियोगी द्वारा हिंदी में लिखे एक लेख का अनुवाद उन्होंने किया जो ‘सामाजिक न्याय के साथ पर्यावरणीय स्थिरता का घाल-मेल कैसे करें’ (how to blend social justice with environmental sustainability).  विषय सम्बंधित था.  नियोगी ने इस में वन-प्रबंधन के लोकतंत्रीकरण की मांग उठाई थी, और पानी और वातावरण को प्रदूषित करने वालों के खिलाफ सख्त कार्यवाई की मांग की थी. उन्होंने लिखा था कि “पर्यावरणीय विनाश के कारणों का हमें गहराई से विश्लेषण करना होगा”. “पर्यावरणीय मुद्दों पर चेतना को राष्ट्रीय स्तर पर समग्र तौर पर विकसित किया जाना चाहिए”, उन्होंने आगे लिखा था. “यूनियन के कार्यकर्ता जितने जागरूक होंगे, उतना ही वे भारत में और विश्व भर में  पर्यावरणीय आन्दोलन की समझ विकसित करने का प्रयास करेंगे. वे आंदोलन के साथ भाईचारे की कड़ियाँ बनाने के लिए भी काम करेंगे, और आंदोलन की घटनाओं और गतिविधियों में यूनियन का प्रतिनिधित्व करने के लिए कार्यकर्ताओं और सामान्य सदस्यों को तैयार करेंगे.”

इस लेख में आगे चलकर गुहा नियोगी ने विशेष समस्याओं के निदान के लिए विशेष नीतियों को निर्धारित करने के सुझाव दिए. जंगलों के विषय पर गुहा नियोगी ने लिखा : “जब लोगों को यह महसूस होता है और वे जानते हैं कि जंगल सचमुच में उनके ही हैं, तब उस दिन से प्रत्येक जन – यहाँ तक कि बच्चे भी – उस पर निगरानी की निगाह रखेंगे, और जंगलों को बचा कर रखेंगे. जंगल चोरों को रोक दिया जायेगा, और बेकार और गैर-ज़िम्मेदार अफसरों द्वारा जो खामियां पैदा की गई हैं, उन्हें दूर कर दिया जायेगा. जंगल जब सामूहिक हितों के संरक्षण का साधन बनता है, तब इसके सभी निवासी अवैध रूप से पेड़ों को काटने के लिए इस्तेमाल की गई किसी भी कुल्हाड़ी के हर वार के खिलाफ संघर्ष करेंगे. ऐसे में सामुदायिक हितों की सुरक्षा से ही राष्ट्रीय हितों की रक्षा होगी. यह ने केवल पर्यावरण की सुरक्षा करेगा लेकिन मानव जाति के भविष्य को भी सुनिश्चित करेगा.

नियोगी ने अपने इस लेख को इन गुंजायमान वाक्यों के साथ समाप्त किया, जो आज के दौर में पहले से कहीं ज़्यादा मौजूं हैं: “सच तो यह है कि हमें अपनी पृथ्वी और अपने गृह को सुरक्षित रखना होगा. पेड़,पौधे, स्वच्छ पीने का पानी, साफ़ हवा, चिड़ियाँ और जानवर और मानव जाति – हम सब मिलकर इस दुनिया की संरचना करते हैं. संवेदनशील विचारों और लचीले कार्यकर्मों के ज़रिये हमें प्रकृति और विज्ञान के बीच के संतुलन को बनाये रखना होगा, और यह लोगों की चेतना को विकसित करने और आधार बनाकर ही संभव होगा.”

अपने संस्मरण में, मनोरंजन ब्यापारी लिखते हैं: “नियोगीजी को किसी एक विचारधारा में बांधकर कबूतरों की तरह दरबों में नहीं रखा जा सकता. वह मुश्किल ही नहीं, असंभव प्रयास होगा. वह सभी ‘वादों’ (isms) से परे हटकर था. अगर इतिहास की किसी एक शक्सियत के साथ मैं उसकी तुलना कर सकता हूँ तो वह हैं गौतम बुध, जिन्होंने अपना महल का वैभव और सुख त्याग दिया, और दरिद्रों और पीड़ितों के बीच आकर उनके दुःख-सुख में साथ खड़े हो गए.”

रवि टेलर नाम के एक जवान आदिवासी नेता ने ब्यापारी को नियोगी की मृत्यु के कारणों और परिणामों को समझाने का प्रयास किया: “जब तक वे जिंदा थे, उन्होंने आदिवासियों के दिल और दिमाग में संवैधानिक व्यवस्था में आशा और विश्वास की ज्वाला को जलाये रखा. इसी कारण, तमाम लोगों ने नियोगी को छत्तीसगढ़ के गाँधी की संज्ञा दी. और इसी के क हालते उन्हें मौत के घाट  उतार दिया गया. उन्होंने किसी का कोई नुक्सान नहीं किया. फिर भी उनको मार दिया गया. और उनके हत्यारों को सज़ा तक न मिली. मज़दूरों की न्यायसंगत मांगों को पुलिस और उद्योग माफिया की बंदूकों ने खामोश कर दिया. अब यह मज़दूर अपनी शिकायतों को लेकर किसके पास जाएँ? नियोगी जी की मौत के बाद एक गहरा अन्धकार सा छा गया था. मानव जाति को सहारे के ज़रुरत होती है. नियोगीजी की हत्या के बाद, आदिवासियों के इस सहारे और समर्थन को मिटा दिया गया, और आज एक बहुत बड़े शून्य उन्हें ताक रहा है.”

इस शून्य को नक्सलियों ने भरने की कोशिश की, जिनके बंद-दिमाग और जानलेवा तरीकों ने पुलिस और अर्ध-सैनिक बलों की बर्बर हिंसा को उकसाया, और आदिवासियों को हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया.

निष्ठा और साहस के सन्दर्भ में, ए.के.रॉय और शंकर गुहा नियोगी एक ही पत्थर से तराशे गए अनमोल हीरे थे. (हालाँकि गुहा नियोगी निश्चित तौर पर अधिक मूल विचारक थे). और कोई दूसरा ए.के.रॉय नहीं हो सकता, उनकी तरह का एक ऐसा मूल विचारक जो किसानों और श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करना चाहते हों; उनके जैसे लोग अब संसद में नहीं बैठ सकते हैं. और अभी फिलहाल कुछ समय के लिए कोई दूसरा गुहा नियोगी भी नहीं पैदा हो सकता है, क्योंकि राज्य और भी अधिक दमनकारी हो गया है, और अहिंसक असंतोष के प्रति भी कम सहनशील हो गया है; कम-से-कम गुहा नियोगी के समय की तुलना में. इन अंधेरे समय में, यह उन भारतीयों के लिए अनिवार्य है कि उनकी याद को बनाए रखा जाये जो उन्हें जानते थे या उनके संघर्षशील जीवन के बारे में जानते थे।


रामचंद्र गुहा, एक भारतीय लेखक हैं जिनके शोध में पर्यावरण, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, समकालीन और क्रिकेट इतिहास शामिल हैं। अंग्रेज़ी मूल से अनुवादित रामचंद्र गुहा का यह लेख कोलकाता से प्रकाशित ‘द टेलीग्राफ’ में 14.09.2019 को प्रकाशित हुआ था। इसका अनुवाद राजेंद्र सायल ने किया है। 

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