गोपनीयता क़ानून, खोजी पत्रकारिता और राफे़ल का मुक़दमा!

मिडियापार्ट एक खोजी पत्रिका है और फ्रांस का नियमित एवम बहुप्रसारित अखबार भी नहीं है। फिर भी वहां की सरकार ने राजनीतिक शुचिता को ध्यान में रखते हुए उक्त अखबार के खुलासे पर  गौर किया और जांच बैठाई। ...इसके विपरीत भारत में जब एक प्रतिष्ठित और पुराने अखबार 'द हिंदू' ने राफेल सौदे के बारे में नियमित रूप से विभिन्न मुद्दों पर खबर छापी तो सरकार चैतन्य तो हुयी पर उसकी सारी चेतना 'द हिंदू' के खिलाफ ही उठी रही, जबकि सरकार को इस सौदे के बारे में 'द हिन्दू' में छपी खबरों के आधार पर जांच कराने के लिये आवश्यक कदम उठाने चाहिए थे। सरकार की सीबीआई से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक यही कोशिश रही कि, इस मामले को न तो उभरने दिया जाय औऱ न ही इस पर कोई सार्वजनिक चर्चा हो

मिडियापार्ट, फ्रांस की एक खोजी पत्रिका है जिसने राफेल के सौदे पर पहली बार घोटाले का संकेत दिया था, जब उसने फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलांद के हवाले से यह खबर छापी थी कि, नए और संशोधित सौदे में एचएएल को हटा कर, अनिल अंबानी को ऑफसेट ठेका दिलाने के लिये भारतीय प्रधानमंत्री ने फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति से कहा था। उसे लेकर फ्रांस में बवाल मचा और अब उस सम्बंध में जांच के आदेश दिए गए हैं। मिडियापार्ट एक खोजी पत्रिका है और फ्रांस का नियमित एवम बहुप्रसारित अखबार भी नहीं है। फिर भी वहां की सरकार ने राजनीतिक शुचिता को ध्यान में रखते हुए उक्त अखबार के खुलासे पर  गौर किया और जांच बैठाई।
इसके विपरीत भारत में जब एक प्रतिष्ठित और पुराने अखबार ‘द हिंदू’ ने राफेल सौदे के बारे में नियमित रूप से विभिन्न मुद्दों पर खबर छापी तो सरकार चैतन्य तो हुयी पर उसकी सारी चेतना ‘द हिंदू’ के खिलाफ ही उठी रही, जबकि सरकार को इस सौदे के बारे में ‘द हिन्दू’ में छपी खबरों के आधार पर जांच कराने के लिये आवश्यक कदम उठाने चाहिए थे। सरकार की सीबीआई से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक यही कोशिश रही कि, इस मामले को न तो उभरने दिया जाय औऱ न ही इस पर कोई सार्वजनिक चर्चा हो। भले ही सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को सरकार ने अपने हक में मैनेज कर लिया और ‘द हिन्दू’ अखबार पर उसने ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट के अंतर्गत आपराधिक कृत्य का आरोप लगाया पर सरकार ने उक्त अखबार पर कोई कार्रवाई भी नही की। यह इसलिए नहीं कि, प्रेस के प्रति सरकार के मन मे कोई अनुराग था, बल्कि इसलिए कि ऐसी कार्रवाई से यह प्रकरण औऱ भी प्रचारित होता और इसका असर सरकार पर विपरीत ही पड़ता।
जब राफेल के मामले में यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, और प्रशांत भूषण द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट मे सुनवाई चल रही थी, तब द हिंदू ने इस पर लगातार खबरें छापी थीं। यह लेख उसी समय का फ्लैश बैक है। आज जब इस मामले में फ्रांस में जांच हो रही है तो यह प्रकरण अचानक प्रासंगिक हो गया है। अब फिर से यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि, गोपनीयता कानून, खोजी पत्रकारिता और राफेल मामले पर चर्चा हो।
राफेल मामले में ‘द हिन्दू’ अखबार द्वारा रक्षा मंत्रालय के कुछ गोपनीय दस्तावेज छाप देने से सरकार के गोपनीयता कानून और खोजी पत्रकारिता के आपसी द्वंद्व में एक नयी बहस छिड़ गयी थी। क्या मीडिया, सूत्रों के हवाले से प्राप्त कोई भी दस्तावेज छाप सकते हैं और उनका यह कृत्य ऑफिशयल सीक्रेट एक्ट 1923 के अंतर्गत दंडनीय अपराध की कोटि में भी नहीं आएगा ? इस पर बहस लंबे समय से चल रही है।
राफेल मामले में सुप्रीम कोर्ट में कई हैरान करने वाली घटनाएं घट रही हैं। पहले, सरकार का यह कहना कि कीमतों के बारे में सारे दस्तावेज सीएजी को सौंपे जा चुके हैं और सीएजी ने उनकी ऑडिट कर के उसे लोक लेखा समिति को सौंप दिया है। जब तुरन्त इसका प्रतिवाद लोक लेखा समिति ने किया कि सीएजी ने तो यह रपट भेजी ही नहीं, तब सीएजी ने भी यही सूचित किया कि अभी तो उन्होंने इस मामले में कोई ऑडिट ही नहीं की है। इस विषम स्थिति के बाद सरकार ने टाइपिंग की गलती कह कर अपनी झेंप मिटाई।
इसी मामले में दायर, प्रशांत भूषण ने अपनी पुनर्विचार याचिका पर पक्ष रखते हुए अंग्रेजी अखबार द हिन्दू में छपे एक लेख का हवाला दिया था और यह कहा था कि –
” भारतीय समझौता दल की बातचीत के समानांतर पीएमओ की भी एक बातचीत चल रही थी। पीएमओ द्वारा समानांतर चल रही बातचीत में क्या मुद्दे हैं और क्या क्या मसले उठे हैं यह भारतीय समझौता दल की जानकारी में नहीं है। गुपचुप रूप से चल रहे पीएमओ की बातचीत से आईएनटी द्वारा की जा रही समझौता शर्तो में परेशानी खड़ी हो सकती है अतः समझौता दल के प्रमुख ने रक्षा सचिव और रक्षा मंत्री को बातचीत की इस समस्या से अवगत कराते हुए यह अनुरोध किया कि अगर पीएमओ द्वारा कोई समानांतर बातचीत चल रही है तो, उसे ही चलने दिया जाये। पर तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने यह लिख कर कि पीएमओ हो सकता है इस सौदे पर हो रही आईएनटी की बातचीत की मॉनिटरिंग कर रहा हो, यह पत्रावली वापस कर दिया।”
‘द हिन्दू’ ने उसी फाइल से जुड़े कुछ दस्तावेज और नोट और ऑर्डरशीट की फ़ोटो अपने अखबार में कई किस्तों में खबरों के साथ छापी थी। प्रशांत भूषण ने उन्ही दस्तावेजों को अदालत में प्रस्तुत करने के लिये अदालत से सरकार को निर्देश देने का अनुरोध किया था। तब अटॉर्नी  जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि द हिन्दू में प्रकाशित दस्तावेज रक्षा मंत्रालय से चुराए गए थे। और यह भी कहा कि इस पर ऑफिसियल सीक्रेट्स एक्ट का मुकदमा चल सकता है। लेकिन अटॉर्नी जनरल ने यह नहीं कहा कि वे दस्तावेज जो ‘द हिन्दू’ में छपे थे वे फर्ज़ी हैं और गलत हैं। इसपर सरकार तब भी मौन थी और अब भी मौन है।
सरकारी दफ्तरों में फाइलों के रखरखाव की भी एक संहिता होती है। कौन सी फाइल किस अफसर तक जाती है और लौट कर कब कहां वापस आती है इन सबका ज़िक्र ऑफिस मैनुअल में हैं। कौन सी फाइल कितने समय तक रखी जायेगी और कितने समय के बाद नष्ट होगी। नष्ट करने का निर्णय कौन अधिकारी लेगा आदि आदि सभी बातें ऑफिस मैनुअल या रूल्स ऑफ बिजनेस में लिखा रहता है। राफेल से जुड़ी फाइलें निश्चित ही गोपनीय और महत्वपूर्ण होंगी। उनका मूवमेंट, फाइलों की मूवमेंट स्लिप से पता चल सकता है। आज ये फाइलें गायब हैं कल रक्षा से जुड़े और महत्वपूर्ण दस्तावेज भी चोरी हो सकते हैं या चुराये जा सकते हैं। साउथ ब्लॉक से दस्तावेज चोरी हो जाना एक बड़ी घटना है। सरकार के लिये यह निश्चित रूप से यह एक चिंताजनक प्रकरण होगा। हालांकि दूसरे ही दिन सरकार पलट गयी कि दस्तावेजों की चोरी नहीं हुई है। उनकी फोटोकॉपी की गयी है।
राफेल मामले में जब द हिन्दू ने खबर छापी थी तो वे ये दस्तावेज भी छपे थे। तब रक्षामंत्री ने यह आरोप लगाया था कि द हिन्दू ने दुर्भावना से अधूरा दस्तावेज जिसमे रक्षामंत्री की नोटिंग छुपा ली गयी थी, छापा था, और उन्होंने पूरा दस्तावेज जिसमे रक्षा मंत्री की नोटिंग भी थी को सदन में सार्वजनिक रूप से दिखाया । इसकी भी खबर दूसरे दिन अखबारों और न्यूज़ वेबसाइटों पर छपी थी। इसका सीधा अर्थ यह है कि रक्षामंत्री के सदन में प्रस्तुत करने तक वे दस्तावेज सरकार के पास थे और रक्षामंत्री को ये दस्तावेज उनके मंत्रालय ने ही उपलब्ध कराए होंगे। दस्तावेज कभी भी किसी मंत्री या प्रधानमंत्री के पास नहीं रहते हैं । या तो वे मंत्रालय में रखे जाते हैं या पीएमओ के यहां अगर पीएमओ ने उन दस्तावेजों को किन्ही कारण से मंगाया है तो।  इसका मतलब यह हुआ कि दस्तावेजों की चोरी हुई ही नहीं। सरकार उन दस्तावेजों पर क्या प्रतिक्रिया और जवाब देती यह आज तक, वह तय नहीं कर पायी है। यह आलमे बदहवासी है या जानबूझकर ओढ़ी गयी चुप्पी, अभी तक तय नहीं हो पाया है।
उधर एक और खबर गोवा से आ गई। पूर्व रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर के हवाले से गोवा के एक मंत्री ने एक ऑडियो टेप में कहा था कि फाइलें उनके शयन कक्ष में हैं। उक्त ऑडियो टेप के सत्यता की जांच आज तक तो हुई नहीं। यह गम्भीर मामला है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार सुप्रीमकोर्ट ने राफेल सौदा मामले में पुनर्विचार याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान कहा कि वह ऐसे किसी भी पूरक हलफनामों अथवा अन्य दस्तावेजों पर गौर नहीं करेगा जो उसके समक्ष दखिल नहीं किए गए हैं। अदालत में क्या हुआ था, इसे अब पढिये।

प्रशांत भूषण ने कोर्ट में कहा-

“जब प्राथमिकी दायर करने और जांच के लिए याचिका दाखिल की गईं तब राफेल पर महत्वपूर्ण तथ्यों को दबाया गया। अगर तथ्यों को दबाया नहीं गया होता तो सुप्रीम कोर्ट ने राफेल सौदा मामले में प्राथमिकी और जांच संबंधी याचिका को खारिज नहीं किया होता।”
अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा – “अधिवक्ता प्रशांत भूषण जिन दस्तावेजों पर भरोसा कर रहे हैं, वे रक्षा मंत्रालय से चुराए गए हैं. उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ता ने राफेल सौदे पर जिन दस्तावेजों पर भरोसा किया है वे गोपनीय हैं और आधिकारिक गोपनीयता कानून का उल्लंघन हैं। राफेल सौदे से जुड़े दस्तावेजों की चोरी होने के मामले की जांच चल रही है।”
राफेल मामले में अटॉर्नी जनरल ने कहा कि ” जिन्होंने ऐसे दस्तावेजों को पब्लिक डोमैन में सार्वजनिक किया है वे ऑफिशयल सीक्रेट एक्ट के अंतर्गत दंड के भागी होंगे।” वे आगे कहते हैं कि “सरकार इस बारे में जिन्होंने इस एक्ट के अंतर्गत यह अपराध किया है, उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करके कार्यवाही करेगी।”
लेकिन जब अदालत ने उनसे पूछा कि जब पहली बार ये दस्तावेज सार्वजनिक हुये थे, तब सरकार ने क्या कार्यवाही की, तब उन्होंने कहा कि वे यह सरकार से पता करके बताएंगे। अटॉर्नी जनरल ने कहा कि राफेल पर ‘द हिंदू’ की रिपोर्ट उच्चतम न्यायालय में सुनवाई को प्रभावित करने के समान है जो अपने आप में अदालत की अवमानना है। अटॉर्नी जनरल ने राफेल पर पुनर्विचार याचिका और गलत बयानी संबधी आवेदन खारिज करने का अनुरोध करते हुये कहा था कि ये चोरी किए गए दस्तावेजों पर आधारित है.

इस संबंध में कानूनी दृष्टिकोण इस प्रकार हैं-

● अगर कोई दस्तावेज जो तथ्यपूर्ण और वास्तविक हों, पर चुरा कर ही प्राप्त किये गए हों और उन्हें अदालत में प्रस्तुत किया गया हो तो भी यदि अदालत उक्त मुक़दमे के संदर्भ में उन्हें प्रासंगिक समझती है तो उन्हें अदालत सुबूत के रूप में स्वीकार करने पर संज्ञान ले सकती है।
● अगर वे दस्तावेज ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट के अंतर्गत क्लासिफाइड दस्तावेज के रूप में चिह्नित हैं तो उनकी गोपनीयता भंग करने वालों पर इस अधिनियम के अंतर्गत कानूनी कार्यवाही की जा सकती है।
● चोरी आईपीसी के अंतर्गत एक दंडनीय और संज्ञेय अपराध है। उसकी अलग से मुक़दमा दर्ज कर तफ्तीश होगी और जिसकी लापरवाही से चोरी हुयी है उसके लापरवाही की अलग विभागीय जांच होगी।
● अगर उक्त लापरवाही, विभागीय जांच से  चोरी में संलिप्तता और षड़यंत्र तक पहुंच जाती है तो फिर यह आपराधिक मामला बनता है और इसकी उसी चोरी के साथ दर्ज एफआईआर के अनुसार जांच होगी।
● अगर प्रस्तुत किया गया दस्तावेज फर्जी है तो यह अदालत की अवमानना है और उक्त फ़र्ज़ी दस्तावेज दायर करने वाले व्यक्ति के खिलाफ अदालत जो समझे वह कार्यवाही कर सकती है।
जब द हिन्दू के प्रधान संपादक एन राम से यह पूछा गया कि उन्हें यह दस्तावेज कहां से मिले तो उन्होनें कहा-
” मीडिया अपनी खबरों के लिये प्राप्त दस्तावेजों का स्रोत बताने के लिये बाध्य नहीं है। अखबार और मीडिया किसी भी दस्तावेज का स्रोत बताने के लिये कि वह उन्हें कहां से मिला है, बाध्य नहीं है। उन्हें अपने श्रोत को बताने के लिये धरती पर ऐसा कोई है जो उन्हें बाध्य कर सके । ”
वे आगे कहते हैं कि ” आप उन्हें चुराया हुआ कह सकते हैं। हमारा इससे कोई सरोकार नहीं है। हमसे कोई भी कोई सूचना उगलवा नहीं सकता है। लेकिन दस्तावेज और उससे जुड़ी खबरें खुद ही सच बयान कर रही हैं।”
उनका बयान आगे पढ़ें- ” राफेल से जुड़े ये सारे दस्तावेज जनहित में ही छापे गये हैं। द हिन्दू अखबार से कोई भी इन गोपनीय दस्तावेजों की प्राप्ति का स्रोत नही पता कर सकता है।
पारदर्शिता लोकतंत्र की पहली शर्त है। अगर शासन व्यवस्था पारदर्शी नहीं है और जनता से कुछ ऐसी चीज़ छुपायी जा रही है जिसे उसे जानने का हक़ है तो यह लोकतंत्र और आसन्न खतरे का पूर्वाभास है। 1923 में जब ऑफिशयल सीक्रेट एक्ट गढ़ा गया तो लोकतंत्र नहीं था। मीडिया लोकतंत्र में अभिव्यक्ति का वाहक है। वह जनहित में खबरें ढूंढ कर लाता है और जनता को सरकार के वास्तविक चेहरे से रूबरू कराता है। विडंबना ही है कि हम एक ऐसे ‘लोकतांत्रिक’ राज्य में रह रहे हों जहां यह बहस होती है कि अमुक दस्तावेज चोरी का है या फोटोकॉपी का है पर यह बहस कोई नहीं उठाता है कि जो उस दस्तावेज में दर्ज है वह सच है या झूठ है। हमने बड़े ही नाटकीयता से बहस के विंदु को मोड़ देते हैं। और बहस दस्तावेज किसी अखबार को मिला कैसे पर केंद्रित हो जाती है बजाय इसके कि दस्तावेज किस बात का खुलासा कर रहा है ?
द हिन्दू के मामले में यही हुआ है कि सरकार यह तो कह रही है कि यह दस्तावेज फोटोकॉपी है, पर यह नहीं कह रही है कि दस्तावेज झूठा है या कूटरचित है। फिर उन दस्तावेजों के तथ्यों पर जो राफेल मामले में रक्षा सौदों की निर्धारित प्रक्रिया के विरुद्ध तथ्य प्रस्तुत करते हैं, पर अटॉर्नी जनरल अदालत में अपना पक्ष क्यों नहीं रखते हैं ? जहां तक दस्तावेज चोरी की बात है तो इतिहास में जितने घोटाले सामने आए हैं, वे सब पिछले दरवाजे से ही आये हैं। कोई सरकार अपना घोटाला खुद नहीं बताती। पत्रकार अपने आधिकारिक सूत्रों से सूचनाएं बाहर लाते हैं और जनता को पता चलता है कि कौन बोफोर्स चोर है, कौन कोयला चोर है, कौन कफन चोर है और कौन राफेल चोर. इस बार शायद ये पैंतरे काम न आएं। ”
आगे वे लिखते हैं, ” एक और दिलचस्प बात है कि राफेल घोटाले के सारे तथ्य अब जनता के सामने हैं, लेकिन हिंदी मीडिया इन तथ्यों के सार्वजनिक होने के बाद भी अपने पाठकों तक नहीं पहुंचा रहा है। हिंदी मीडिया सिर्फ वही सूचनाएं अपने पाठकों तक पहुंचाता है जिसे सरकार चाहती है या जो सरकार के फायदे में है।”
खोजी या तफतीशी पत्रकारिता पर कोई भी रोक सत्ता को निरंकुश करेगी। अमेरिका का प्रसिद्ध वाटरगेट कांड जिसने राष्ट्रपति निक्सन को त्यागपत्र देने पर बाध्य कर दिया था वह इसी का परिणाम है। जब गोपनीय दस्तावेज छपने लगे  तो अमेरिका में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई और निक्सन को राष्ट्रपति का पद छोड़ना पड़ा। गोपनीय दस्तावेजों को छापा था ‘द वाशिंगटन पोस्ट’ के पत्रकार बॉब वुडवार्ड और कार्ल बर्नस्टीन ने। इन पर गोपनीयता भंग का आरोप भी लगा था पर अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया। कुछ साल पहले गोपनीय दस्तावेजों को प्रकाशित करके विकिलीक्स के जूलियस असांजे से दुनियाभर में सनसनी फैला दी थी। असांजे को अमेरिका से भागना पड़ा । भारत मे भी अपने समय के बेहद लोकप्रिय पत्रिका ब्लिट्ज और उसके संपादक रूसी करंजिया ने खोजी पत्रिका कर के सरकार के नाक में दम कर दिया था। पत्रकारिता अगर जनहित में सरकार के कुकर्म, गलतियां, और उनके दोषों को पर्दाफाश नहीं करके केवल विरुदावली गाती है तो वह पत्रकारिता नहीं एक प्रचार माध्यम है।
लेखक भारतीय पुलिस सेवा के अवकाश प्राप्त अधिकारी हैं।
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