कांग्रेस ने असम में चुनाव जीतने पर पांच लाख लोगों को सरकारी नौकरी देने का वादा किया है। इस वादे का क्या असर होगा, यह चुनाव नतीजा आने के बाद ही पता चलेगा लेकिन पांच महीने पहले बिहार में हुए विधानसभा चुनाव के अनुभव पर गौर करें, तो वहां राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव का ऐसा वादा काफी हद तक कारगर रहा था। तेजस्वी यादव का वादा था कि अगर उनकी पार्टी की सरकार बनी, तो वे बतौर मुख्यमंत्री जिस पहले फैसले पर दस्तखत करेंगे, वह दस लाख नौजवानों को सरकारी नौकरी देने का होगा। इस वादे का जबरदस्त असर हुआ। जिस चुनाव को शुरुआत में बीजेपी- जेडी (यू) के पक्ष में एकतरफा समझा जा रहा था, उसे तेजस्वी यादव के इस वादे ने कांटे की टक्कर का बना दिया। तेजस्वी यादव की सभाओं में नौजवानों की उमड़ती भीड़ ने इस बात की तस्दीक की थी कि आज नौकरी के वायदे कि कितनी अहमियत है।
देश में रोजगार का सवाल- या कहें बेरोजगारी की समस्या- अति गंभीर रूप में है। ताजा अनुमानों के मुताबिक युवा बेरोजगारी की दर 20 फीसदी से अधिक हो चुकी है। हालात पहले से भी बेहतर नहीं थे, लेकिन कोरोना महामारी के दौरान अनियोजित लॉकडाउन के फैसले ने हालत को बेहद डरावना बना दिया है। वैसे में नौकरी देने के राजनीतिक वादे से खास कर युवा मतदाता अगर किसी पार्टी या नेता की तरफ आकर्षित होते हों, तो यह स्वाभाविक ही है। असल में 2014 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की बड़ी जीत के पीछे भी एक बड़ा कारण प्रधानमंत्री पद के तत्कालीन उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का हर साल दो करोड़ नौकरी देने का वादा था। लेकिन मोदी और तेजस्वी यादव और अब राहुल गांधी के वादे में एक महत्त्वपूर्ण फर्क है। मोदी ने नौकरी के प्रकार को अस्पष्ट रखा था। जबकि आरजेडी और कांग्रेस ने सरकारी नौकरी का स्पष्ट उल्लेख किया है। इसलिए ये बहस का विषय है कि ऐसी नौकरी के वादे के जरिए बेरोजगारों को लुभाने की आरजेडी और कांग्रेस की रणनीति में कितना दम है? क्या इस वादे के पीछे उनकी कोई सुविचारित- विस्तृत योजना है, या फिर उन्होंने महज ‘चुनावी वादे’ के बतौर इसे अपने चुनाव घोषणापत्र में शामिल कर दिया है?
इससे पहले कि बात आगे बढ़ाई जाए, आज के मीडिया माहौल को देखते हुए यहां एक स्पष्टीकरण जरूरी है। आज का मीडिया माहौल सत्ताधारी दल का अंध-समर्थन और विपक्ष की पल-पल और कदम-दर-कदम पड़ताल करने का है। चूंकि हम यहां सवाल कांग्रेस और आरजेडी से कर रहे हैं, तो इसे भी उसी माहौल का हिस्सा समझा जा सकता है, क्योंकि इस लेख में बीजेपी के वादों की पड़ताल नहीं है। लेकिन ऐसा करने के पीछे ये समझ है कि बीजेपी के रोजगार या विकास के वायदे असल में पड़ताल करने योग्य नहीं हैं। अब यह साफ हो चुका कि उनके पीछे कोई सुविचारित योजना नहीं है। साथ ही अब ये पार्टी अपने राजनीतिक बहुमत के लिए ऐसे वादों पर निर्भर भी नहीं है। उसका प्रमुख राजनीतिक हथियार सामाजिक पूर्वाग्रहों और द्वेष के आधार पर किया गया ध्रुवीकरण है। इसके जरिए बीजेपी परंपरागत सामाजिक वर्चस्वों को फिर से भारतीय समाज में मजबूत करने में फिलहाल कामयाब रही है। दरअसल, यह पार्टी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में और भारतीय संविधान के लागू होने के बाद हुई सामाजिक- आर्थिक प्रगति का निषेध है। इसलिए इससे सकारात्मक बहस की कोई गुंजाइश नहीं बचती। दरअसल, इस पार्टी का बुनियादी चरित्र आरंभ से ऐसा ही रहा है। इसलिए आर्थिक मुद्दों पर उससे संवाद करना अप्रसांगिक है।
कांग्रेस, आरजेडी या गैर भाजपा दूसरे दलों की प्रासंगिकता आर्थिक- सामाजिक प्रगति के लिए उनके योगदान के रिकॉर्ड पर रही है। इसलिए ऐसे दल जब कोई ध्यान खींचने वाला वादा करते हैं, तो उस वादे की जरूर पूरी पड़ताल की जानी चाहिए। फिलहाल, मुद्दा सरकारी नौकरियों के वादे का है। तो (असम में) कांग्रेस और (बिहार में) आरजेडी से यह अवश्य पूछा जाना चाहिए कि आखिर (चुनाव जीतने पर) कैबिनेट की पहली बैठक में नौकरियां देने के वादे से देश में लगातार भीषण हो रही बेरोजगारी की समस्या का समाधान कैसे निकलेगा? हम यहां यह मान कर चल रहे हैं कि तेजस्वी अगर जीत गए होते, तो दस लाख सरकारी नौकरियां देने की प्रक्रिया वे शुरू कर देते। या असम में अगर कांग्रेस जीती, तो उसकी सरकार पांच लाख सरकारी नौकरियां दे देगी। तेजस्वी ने कहा था कि गुजरे वर्षों के दौरान बिहार में दस लाख पद खाली हैं, जिन पर भर्ती नहीं हुई है। हम बिना ज्यादा पड़ताल किए मान लेते हैं कि असम में भी पांच लाख सरकारी पद खाली होंगे, जिन्हें भरने में कोई तकनीकी रुकावट नहीं है।
मगर इन दोनों वादों से यह साफ है कि नौकरियां देने का यह वन टाइम यानी एक बार का कदम होगा। लेकिन जो लोग इस संख्या से बाहर रह जाएंगे, कांग्रेस या आरजेडी के पास उनके लिए क्या योजना है? और फिर जिस देश में लगभग सवा करोड़ युवा हर साल श्रम बाजार में प्रवेश करते हों, वहां एक बार नौकरी दे देने के कदम से आखिर खुशहाली का सपना कैसे साकार हो सकता है? इसीलिए इस लेख का विषय यह है कि सरकारी नौकरियों के वादे का अर्थशास्त्र क्या है?
देश में आजादी के बाद ऐसा अर्थशास्त्र अपनाया गया था। उससे एक ऐसा आर्थिक ढांचा बना, जिससे एक बेहद गरीब देश में एक बड़ा मध्य वर्ग उभर पाया। इसके अलावा उस कारण गरीब और पिछड़े तबकों का जीवन स्तर भी पहले से ऊंचा उठाने में मदद मिली। योजनाबद्ध विकास और विकास नीति में पब्लिक सेक्टर को केंद्रीय भूमिका देना उस अर्थशास्त्र का सार था। बाकी उपलब्धियों को फिलहाल छोड़ दें, तो उस अर्थव्यवस्था का यह परिणाम ही कम चमत्कृत करने वाला नहीं है कि भारत में जीवन प्रत्याशा 1947 के लगभग 33 साल से बढ़ कर अब तक लगभग 70 साल के करीब पहुंच गई है। 1991 में सोवियत संघ के विखंडन के बाद नव-उदारवादी विचारधारा और उसके संचालकों की हुई फौरी जीत के बाद भारत ने भी उपरोक्त अर्थव्यवस्था से अलग दिशा तय की थी। वो दिशा अपनी पराकाष्ठा पर 2014 में योजना आयोग को भंग किए जाने के साथ पहुंची। उसके बाद जिस तरह के सांप्रदायिक- क्रोनी राजनीतिक अर्थव्यवस्था (पॉलिटिकल इकॉनमी) देश पर हावी हुई है, वह हम सबके सामने है।
बहरहाल, 2008-09 की आर्थिक मंदी और कोरोना महामारी के बाद नव-उदारवाद के मुख्य गढ़ देशों में भी इस विचारधारा को न सिर्फ चुनौती मिली है, बल्कि अब वहां की सरकारें अपनी साख बरकरार रखने के लिए उस नुस्खे का खुद उल्लंघन कर रही हैं, जिसे उन्होंने दुनिया भर पर थोपा था। उसकी सबसे ताजा मिसाल जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में 1.9 ट्रिलियन का दिया गया कोरोना राहत पैकेज है। जिन देशों में राजकोषीय अनुशासन बरकरार रखने के लिए किफायत (ऑस्टेरिटी) की नीति राजनीतिक दायरे में सर्वमान्य थी, वहां कर्ज लेकर राहत और जन कल्याण के कार्यों पर खरबों डॉलर खर्च करने का नया ट्रेंड पुरानी नीतियों की सीमा को साफ कर गया है।
दरअसल, इस बात की समझ की कुछ झलक कांग्रेस नेताओं ने भी हाल में दिए हैं। एक अमेरिकन यूनिवर्सिटी के शिक्षकों और छात्रों के साथ संवाद में राहुल गांधी ने ये दो टूक कहा था कि 1990 के दशक में जो नीति कारगर हुई, वह अब नहीं होगी। पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने हाल में एक अंग्रेजी अखबार में अपने कॉलम में लिखा- ‘कोई विचारधारा बिना बदले नहीं रहती। गुजरे वर्षों में कांग्रेस ने स्वतंत्रता हासिल करने का संकल्प लिया, रूढ़िवादी और प्रगतिशील तत्वों को समाहित किया, वामपंथ की तरफ झुकी, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को अपनाया, फिर मध्य मार्ग की तरफ लौटी, बाजार अर्थव्यवस्था की समर्थक बनी, वेल्फेयरिज्म (कल्याणकारी नीतियों) को गले लगाया और अब अपनी आर्थिक और सामाजिक नीतियों को फिर से परिभाषित करने की कोशिश कर रही है, ताकि वह बीजेपी से अलग दिख सके।’
इन दोनों बयानों में कॉमन बात यह है कि 1990 के दशक के बाद की नीतियों को अपर्याप्त माना गया है, लेकिन अब कैसी नीति चलेगी, इसको लेकर कोई स्पष्टता नहीं है। और चूंकि कांग्रेस में अभी ये स्पष्टता नहीं है, तो पूरे विपक्ष (वामपंथी पार्टियों को छोड़ कर) के दायरे में ऐसा नहीं है, यह सहजता से मान कर चला जा सकता है। इसकी वजह यह है कि गुजरे सौ साल में भारत में आर्थिक दिशा पर मंथन मोटे तौर पर सिर्फ कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों के भीतर हुआ है। बाकी पार्टियां अपने अलग तर्क और प्रासंगिकता के साथ उभरीं और सफल हुईं। जब आजादी के बाद कांग्रेस ने ‘विकास के समाजवादी ढर्रे’ की नीति को स्वीकार किया, तो बाकी सभी पार्टियों ने उस ढर्रे को स्वीकार कर लिया। अपवाद सिर्फ बीजेपी रही, जिसके पास हालांकि कभी कोई अपनी खास आर्थिक नीति नहीं रही, लेकिन जो अपने आधुनिकता और नेहरू-द्रोह के कारण हर उस चीज की विरोध रही, जिनसे नेहरू और कांग्रेस का नाम जुड़ा था। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कारण योजनाबद्ध विकास और पब्लिक सेक्टर से बीजेपी का विरोध-भाव स्वाभाविक है। इन दोनों को अंतिम रूप से नष्ट करने में पिछले लगभग सात साल में वह काफी कामयाब रही है।
बहरहाल, जब कांग्रेस या कोई अन्य बीजेपी विरोधी पार्टी नौकरी, रोजगार, विकास आदि की बात करती है, तो ये स्वाभाविक सवाल उठता है कि अब अपनी नई सोच में (अगर दिशा में उनकी कोई कोशिश है तो) वे योजनाबद्ध विकास और पब्लिक सेक्टर की क्या और कैसी भूमिका देखती हैं? कोरोना महामारी के बाद जो दुनिया भर में जो अनुभव दिखा, उसने इन दोनों पहलुओं की प्रासंगिकता फिर से जाहिर कर दी है। चीन, वियतनाम और क्यूबा अगर महामारी के मुकाबले में चमकते हुए नाम हैं, तो उन तीनों में सामान्य बात यही दो पहलू हैं। दूसरी ओर मानव इतिहास के सबसे धनी देश अमेरिका और समृद्ध यूरोपीय देशों में जो तबाही मची, उसके पीछे यही कारण समझा गया है कि धीरे- धीरे सरकारी सेवाओं का निजीकरण करती गई सरकारों के पास आपात स्थिति को संभालने के लिए हाथ-पांव ही नहीं बचे हैं। उन देशों में समृद्धि की चमक के भीतर बढ़ी गैर-बराबरी और आम जीवन स्तर में आई गिरावट को भी महामारी के अनुभव ने खोल कर सामने रख दिया है। भारत भी इस कहानी से अलग नहीं है। इसलिए किसी नई सोच में इन दो पहलुओं की अनदेखी अगर की जा रही हो, तो उसकी सफलता आरंभ से संदिग्ध रहेगी, ये बात आज लगभग पूरे भरोसे के साथ कही जा सकती है। इस सिलसिले में ये तथ्य भी उल्लेखनीय है कि पूर्व यूपीए सरकार ने वेलफेयरिज्म की जो नीति अपनाई थी, उसकी अपनी उपलब्धियां जरूर थीं, लेकिन उसके पीछे के तर्क उसी दौर में कमजोर पड़ने लगे थे। जब जॉबलेस ग्रोथ (जीडीपी की ऐसी ऊंची विकास दर जिससे रोजगार पैदा न हो रहे हों) की बात आंकड़ों से सिद्ध हो गई, तब ये सवाल उठा था कि आखिर मनरेगा या खाद्य सुरक्षा जैसे कार्यक्रमों से कितनी खुशहाली हासिल की जा सकती है? 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस ने न्यूनतम आय (न्याय) योजना का जो वादा किया था, वह भी असल में वेल्फेरिजम की पुरानी नीति से निकला था। लेकिन रोजगार से जो आत्म-गरिमा का भाव आता है, उसके साथ एक आत्म-विश्वास से भरे समाज की रचना करने के लिहाज से यह नीति अपर्याप्त है।
तो यह साफ है कि सरकारी नौकरियां तभी दी जा सकती हैं, जब सरकारी क्षेत्र में नई- नई नौकरियों के अवसर बनें। वर्षों से खाली पड़े पदों पर एक बार भर्ती कर लेना समस्या का समाधान नहीं है। दरअसल, इसीलिए नौकरियां देने का वादों पर सवाल लगातार कायम रहे हैं। अतः कांग्रेस और अन्य पार्टियां अगर अपने ऐसे वादों को विश्वसनीय बनाना चाहती हैं, तो इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है कि वे उन नौकरियों की अर्थव्यवस्था भी बताएं। ये अर्थव्यवस्था निम्नलिखित बिंदुओं को शामिल करते हुए बन सकती हैः
- योजना बनाने और अर्थव्यवस्था को निर्देशित करने की राज्य की सत्ता को फिर से स्थापित करने का संकल्प।
- बाजार को नियंत्रित करने के उपायों का एलान
- पब्लिक सेक्टर को फिर से खड़ा करने की व्यापक योजना
- शिक्षा, स्वास्थ्य, सार्वजनिक परिवहन और बैंकिंग को सरकार के हाथ में वापस लाने का संकल्प
- पब्लिक सेक्टर के तहत ग्रीन इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास
- आर्थिक गैर-बराबरी को घटाने और एकाधिकार (मोनोपॉली) को नियंत्रित करने की योजना।
- धनी तबकों पर आय कर और कॉरपोरेट टैक्स को बढ़ाना- यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है, जिससे उपरोक्त योजनाओं के लिए संसाधन जुटाए जा सकते हैं।
- वेल्थ टैक्स और उत्तराधिकार कर का प्रावधान। संसाधन जुटाने के लिए ये भी अहम कदम हैं।
अगर ये कदम सोशलिस्ट लगते हैं, तो कांग्रेस या बीजेपी की सोच से अलग भारत बनाने का इरादा रखने वाली पार्टियों को खुद से ये शब्द जोड़ने से हिचकना नहीं चाहिए। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि अगर वे उपरोक्त (या उससे बढ़िया किसी योजना) के साथ सामने नहीं आती हैं, तो आम जन के पास नौकरियां देने के उनके वादे और 2014 के नरेंद्र मोदी के वादे में फर्क करने का कोई आधार नहीं होगा। ना ही उससे देश के लोगों के सामने ऐसा एजेंडा सामने आएगा, जिसके इर्द-गिर्द इकट्ठा होकर वे सांप्रदायिक-क्रोनी पॉलिटिकल इकॉनमी के खिलाफ संघर्ष के लिए उत्साहित हो सकें।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।