कोई तो महसूस करे जमातियों को ‘बलि का बकरा’ बनाने की शर्म !

हमारे देश में लेटलतीफी अदालतों की पुरानी आदतों में शामिल है। इस कारण शायद ही किसी को उम्मीद रही हो कि बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ की जस्टिस टीवी नलवड़े व जस्टिस एमजी सेवलिकर की दो सदस्यों वाली खंडपीठ गत मार्च में राजधानी दिल्ली में घटित बहुचर्चित तब्लीगी जमात मामले के विदेशी ‘कोरोना जेहादियों’ में से 29 को इतनी जल्दी उनके ‘अंजाम’ तक पहुंचा देगी। सो भी, जब उनके खिलाफ अभियोजन चलाने वालों का दावा था कि वे दिल्ली में निजामुद्दीन स्थित जमात के मरकज में तेरह से लेकर 22 मार्च (जिस दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बहुचर्चित ‘जनता कर्फ्यू’ का एलान किया था।)  तक उक्त ‘जेहाद’ करते रहे थे। इतना ही नहीं, उन्होंने इस ‘जेहादी’ समुदाय का ‘अपराध’ इतना बड़ा था कि केन्द्रीय गृहमंत्रालय ने उसके अनेक सदस्यों को काली सूची में डालते हुए उनके अगले दस साल तक भारत की यात्रा पर आने पर रोक लगा दी थी। चूंकि इस सिलसिले में उनमें से कुछ के खिलाफ विभिन्न प्रदेशों की अदालतों में आपराधिक मुकदमे दायर कर दिये गये थे, इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने वे मुकदमे निपटने तक उनके भारत छोड़ने पर भी रोक लगा दी थी।

इस लिहाज से इनमें से महाराष्ट्र के अहमदनगर में फंसे (अभियोजन के अनुसार जानबूझकर छिपे) आइवरी कोस्ट, घाना, तंजानिया, जिबूती, बेनिन और इंडोनेशिया के 29 विदेशी नागरिकों के खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द करने का गत शुक्रवार का बाम्बे हाईकोर्ट का फैसला न सिर्फ उनके बल्कि उनके जैसे मामलों में अदालती कार्रवाई का सामना कर रहे दूसरे विदेशियों के लिए भी खुशखबरी है। यकीनन, मील के पत्थर जैसा यह फैसला ऐसे सारे मामलों में नजीर का काम करेगा और भारतीय अदालतों से इन्साफ पाने की पीड़ित विदेशियों की उम्मीद को और बलवती करेगा। वे इस बात को लेकर आश्वस्त हो सकेंगे कि अंततः उनके उत्पीड़न का खात्मा होगा और सरकारें उसकी भरपाई करेंगी।

लेकिन दूसरे पहलू से देखें तो कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए जैसी गम्भीर टिप्पणियां की हैं, वे इन विदेशियों को कठघरे से मुक्त करती हैं तो टूरिस्ट वीजा की शर्तों का उल्लंघन कर तब्लीगी जमात के कार्यक्रम में शामिल होने को लेकर उन पर आईपीसी की विभिन्न धाराओं, महामारी रोग अधिनियम, महाराष्ट्र पुलिस अधिनियम, आपदा प्रबंधन अधिनियम और फॉरेनर्स एक्ट के तहत एफआईआर करने वाले निजाम को उसमें खड़ा भी करती हैं। इस निजाम ने इन विदेशियों को शरण देने वाली मस्जिदों के छः भारतीय ट्रस्टियों को भी नहीं ही बख्शा था और उसका दावा था कि पुलिस ने उनको यह गुप्त जानकारी मिलने पर पकड़ा कि वे अलग-अलग इलाकों की मस्जिदों में रह और लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन कर नमाज अदा कर रहे हैं।

जबकि सच यह था कि वे भारत सरकार द्वारा जारी मान्य वीजा लेकर इस देश की संस्कृति, परंपरा, आतिथ्य और भोजन का अनुभव करने आये थे। हवाई अड़्डे पहुंचने पर उनकी स्क्रीनिंग व कोरोना टेस्ट भी हुए थे, जिनमें निगेटिव पाये जाने के बाद ही उन्हें बाहर निकलने दिया गया था। उन्होंने अहमदनगर के पुलिस अधीक्षक को जिले में अपने पहुंचने की जानकारी भी दी थी। लेकिन क्या करते, 23 मार्च को अचानक लॉकडाउन हो गया, गाड़ियां, होटल और लॉज बंद हो गये, इसलिए मस्जिदों का आसरा लेना पड़ा। फिर भी उन्होंने जिला कलेक्टर के आदेशों का उल्लंघन या कोई अन्य गैर-कानूनी काम नहीं किया।

अभियोजन इन विदेशियों के खिलाफ कोर्ट में अपना एक भी आरोप या दावा साबित नहीं कर पाया तो कोर्ट की यह टिप्पणी बहुत स्वाभाविक थी कि उसके द्वारा दर्ज एफआईआर ‘राजनीति से प्रेरित’ थी और जब कोरोना अपने पांव पसार रहा था, राजनीतिक सरकार बलि का बकरा तलाश रही थी, और ऐसा लगता है कि इन विदेशियों को बलि का बकरा बना दिया गया। सभी हालात और कोरोना संक्रमण से जुड़े ताजा आंकड़ों के हवाले से कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इन विदेशियों के खिलाफ इस तरह के कदम उठाने की कोई जरूरत नहीं थी। उसने कहा कि यह कार्रवाई न सिर्फ इनका उत्पीड़न बल्कि देश की ‘अतिथि देवो भव’ और सहिष्णुता व सर्वधर्म समभाव की परम्परा का अपमान भी है, जिसके चलते देश की संस्कृति, परंपरा, आतिथ्य और भोजन का उनका अनुभव अच्छे के बजाय बुरा हो गया।

कोर्ट ने अपने आदेश में इसे लेकर पछतावा जताने और जो हानि हो चुकी है, उसे सुधारने को कहा है। बेहतर होगा कि जिनपर इस पछतावे और सुधार की जिम्मेदारी है, कम से कम अब उन्हें चेत आये और आगे वे कम से कम ऐसे विदेशियों पर देश में आकर इरादतन गैरकानूनी धर्मान्तरण व धर्मप्रचार कराने या करने के आरोप लगाने से परहेज करें, जिन्हें इस देश की एक भी भाषा न आती हो और जो धर्म प्रचार के नहीं, सुधार के आन्दोलन से जुड़े हुए हों। अन्यथा वे इसी तरह कोर्टों के सवालों के सामने निरुत्तर होते और पछताते रहेंगे।

हां, एक और अच्छी बात यह है कि कोर्ट ने अपनी टिप्पणियों में प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मीडिया के उस बड़े प्रोपागैंडे की भी कड़ी आलोचना की है, जिसने आपदा में अवसर व बलि के बकरे तलाश रही सरकारों का निरंतर सहयोग किया और ऐसा माहौल बनाया, जिससे लोगों में यह धारणा मजबूत हो कि देश में कोरोना के लिए संक्रमण के सबसे बड़े खलनायक तब्लीगी जमाती ही हैं। याद कीजिए, इस मीडिया ने उनके उत्पीड़न के क्रम में उन्हें ‘कोरोना जेहादी’ करार देने से भी परहेज नहीं किया। तब भी नहीं, जब ‘पूरे मुस्लिम समुदाय को दोष देने, निशाने पर लेने और साम्प्रदायिक घृणा फैलाने’ के विरुद्ध जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने सात अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और मांग की कि वह सरकार को मीडिया का यह दुष्प्रचार रोकने और इसके लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने का निर्देश दे। जमीयत ने यह भी कहा कि बहुतायत में फर्जी खबरें प्रसारित किये जाने से देश का सामाजिक ताना-बाना खराब हुआ है और इस अपराध के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। उसने तब्लीग मामले की सीबीआई जांच की भी मांग की।

लेकिन दुर्भाग्य से कोर्ट ने तुरंत कोई निर्देश देने से इनकार कर दिया और 28 मई को केंद्र और भारतीय प्रेस परिषद (पीसीआई) को नोटिस जारी करते हुए न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) को भी मामले का पक्ष बनाने को कहकर सुनवाई 15 जून तक के लिए टाल दी। इससे प्रोपागैंडा के अलम्बरदार मीडिया महानुभावों को खुलकर खेलने का पर्याप्त समय मिला और उन्होंने रही-सही कसर भी पूरी कर ली। उस समय उनकी इस तरह की कारस्तानियां बहुत दुर्भाग्यपूर्ण लगी थीं, लेकिन अब लगता है कि एक तरह से ठीक ही हुआ कि आज बाॅम्बे हाईकोर्ट द्वारा की गई आलोचना को लेकर अपने समर्थन में कहने के लिए उनके पास कुछ नहीं है और वे उसके फैसले पर प्राइम टाइम न सही, नानप्राइम टाइम में भी बहस कराने का साहस नहीं कर पा रहे।

लेकिन सवाल इन महानुभावों के नहीं इस देश और इसके भविष्य का है। यह कि अपने को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने वाले जिस देश में महामारी के कठिन कोप के वक्त सरकारों द्वारा विदेशी नागरिकों और साथ ही सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को धार्मिक व साम्प्रदायिक आधार पर घृणा का पात्र बनाकर उत्पीड़ित किया जाता हो और सरकार की भक्ति में मीडिया की आसक्ति को भी उनके विरुद्ध झूठे प्रचार में कितने भी नीचे जा गिरने से गुरेज न हो, उसकी भविष्य की छवि कैसी होगी और उसका लोकतंत्र कब तक अपनी खैर मना सकेगा?

जवाब इसलिए भी कठिन है कि जिस महाराष्ट्र से यह फैसला आया है, वहां शिवसेना, जिसका साम्प्रदायिक अतीत किसी से छिपा नहीं है, कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस नाम की दो खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली पार्टियों के कंधों के सहारे सरकार चला रही है। यानी घमंजा ऐसा है कि कहने का मन होता है: आपदा में अवसर की तलाश की बेहिसाब गिरावट ने दोनों तरफ बराबर आग लगा रखी है।

 


कृष्ण प्रताप सिंह लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं

 


 

First Published on:
Exit mobile version