हे, वेतन कटौती के क्षोभ में डूबे महामहिम! आप पर तरस आता है!

मेरे जैसे लोग इसी सोच में होते हैं कि हमारा राष्ट्रपति मुल्क की चिंता में निमग्न है. लेकिन हाय री किस्मत ! हमारा राष्ट्रपति तो अपनी तनख्वाह गिनने और टैक्स काट लिए जाने के क्षोभ में डूबा हुआ है. ...हे भारतभाग्य- विधाता! आप कब सेवानिवृत हो रहे हो?

पूरी दुनिया और विशेष कर अपना भारत जब कोरोना महामारी से परेशान है ,तब हमारे महामहिम राष्ट्रपति महोदय अपनी गरीबी के अहसास से परेशान हैं . उन्हें इस बात की परेशानी है कि उनकी तनख्वाह तो एक शिक्षक से भी कम है . पाँच लाख की तनख्वाह मिलती तो है ,लेकिन पौने तीन लाख तो टैक्स में ही कट जाते है,जो बचती है ,वह तो शिक्षक की पगार से भी कम है.

बेचारे महामहिम पर सचमुच दया आती है; हालांकि दया की कुल थाती तो उनके पास होती है. मेरी इच्छा हुई,अपनी रोटी में से थोड़ी-सी बचत कर राष्ट्रपति महोदय को भिजवा दूँ. लेकिन फिर ख्याल हुआ अभी कुछ महीने पहले तो इसी महामहिम ने मंदिर -निर्माण के लिए पाँच लाख रुपये की अच्छी खासी रकम चंदा स्वरुप दी है. संस्कृत की उक्ति है कि कुपात्र को दान देना पाप है. यह भाव आते ही मैंने अपने इरादे पर पूर्णविराम लगा दिया. लेकिन महामहिम की पीड़ा किसी न किसी रूप में दिमाग में बनी रही.

महामहिम ने तुलना के लिए शिक्षक को ही क्यों चुना ? यह सोचने की बात है. बहुत पहले एक दूसरे महामहिम थ , जिन्होंने अपने को हमेशा एक शिक्षक माना. उनके जन्मदिन को लोग शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं. मौजूदा राष्ट्रपति के वक्तव्य में शिक्षकों के प्रति मौन कमतरी या हिकारत की एक भावना है. लोग जब कहते हैं मेरी तो कुत्ते बराबर भी पूछ नहीं है, तब कुत्ते के प्रति नगण्यता और हिकारत का जो भाव है, वह प्रकट होता है. महामहिम की तनख्वाह शिक्षक बराबर भी नहीं है, इसके मायने आखिर क्या हो सकते हैं !

महामहिम महोदय, आप पर तरस आता है. आप ने शिक्षकों को आखिर क्या समझ लिया है? वह आपकी तरह मंदिर- निर्माण की चिंता में नहीं, समाज और राष्ट्र -निर्माण की चिंता में लगे होते हैं. वे लोग आप से अधिक जिम्मेदार और महत्वपूर्ण हैं. आप ने जिस संविधान की सीढ़ी पर चढ़ कर महामहिम की कुर्सी हासिल की है, उस संविधान के वे व्याख्याता होते हैं. उसके मूल्यों को अपने छात्रों के दिल -दिमाग में पिरोते हैं. वे सिखलाते हैं कि लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्य क्या होते हैं और कोई राष्ट्र सबल -सक्षम कैसे बनता है. ये मंदिर -मस्जिद – गिरजे -गुरद्वारे व्यक्तिगत विश्वास की चीजें हैं और किसी राष्ट्र को उसके नायकों और नागरिकों को इससे कितनी दूरी और कितनी नजदीकी रखनी चाहिए. और महामहिम महोदय आपको यह भी जानकारी होनी चाहिए कि शिक्षकगण भी टैक्स अदा करते हैं.

महामहिम महोदय, सचमुच आप अबोधपन की हद तक भोले हो. राष्ट्रपति बन कर वाकई आपने अपना जीवन अकारथ किया. आपको ठेकेदार -पट्टेदार होना था. या फिर बैंकों का धन लेकर विदेश भाग जाने वाला गुजराती ‘ बिजनसमैन.’  मेरे जैसे लोग इसी सोच में होते हैं कि हमारा राष्ट्रपति मुल्क की चिंता में निमग्न है. लेकिन हाय री किस्मत ! हमारा राष्ट्रपति तो अपनी तनख्वाह गिनने और टैक्स काट लिए जाने के क्षोभ में डूबा हुआ है.

हे भारतभाग्य- विधाता! आप कब सेवानिवृत हो रहे हो?

 

प्रेम कुमार मणि हिंदी के वरिष्ठ लेखक हैं। बिहार विधानपरिषद के सदस्य भी रह चुके हैं।

 

First Published on:
Exit mobile version