इस ‘राष्ट्रवादी’ समय में ‘नाफ़रमानी’ और ‘विद्यार्थी’ होने का अर्थ!

एक शिक्षक के रूप में हम जैसे बहुतों को साफ तौर पर सजग कर दिया गया है कि हमारे द्वारा कक्षा में बोला गया एक-एक शब्द तकनीकी तौर पर नपा तुला हो, विशुद्ध कानूनी नज़रिए से अनापत्ति योग्य हो और वर्तमान समय की वर्चस्वशाली राष्ट्रवादी विचारधारा के अनुकूल हो. सूरते हाल यह है कि एक पर्यावरण कार्यकर्ता के छोटे-से ट्वीट से बजरंगी सरकार हिलने लगती है. सीसीटीवी की विस्तृत किन्तु बारीक  तकनीकियों की आँखों के दायरे में शिक्षण संस्थाएं हैं. ऐसे में वहां किसी जीवंत एवं संवेदनशील शिक्षण कर्म – क्लासरूम टीचिंग, कुछ सीखने का जज़्बा, सृजनशीलता अथवा आलोचनात्मक शिक्षा-शास्त्र दूर की कौड़ी प्रतीत होती है. निश्चय ही राज्यसत्ता की प्रत्यक्ष-परोक्ष दमनात्मक कार्रवाई और उसके विचारधारात्मक साधनों के खुले उपयोग का सन्देश बहुत साफ़ है : सुरक्षित रहें. उग्र राष्ट्रवाद की खुराक पीते रहें. यह न भूलें कि सत्ता समर्थक होना पुण्य कर्म है. प्रश्न करने वाला दिमाग खतरनाक होता है. 

 

अविजित पाठक

 

प्रथम सूचना रिपोर्ट और देशद्रोह के आरोपों की इस सुनामी में आलोचनात्मक विवेक की रक्षा कोई आसान काम नहीं है. कक्षा में विद्यार्थियों के साथ संवाद कायम करना, उनके युवा मस्तिष्क को स्वतंत्र रूप से सोचने, अनुभव करने, नए प्रश्नों, सच्चाइयों से रू-ब-रू होने और वर्तमान समय के अधिकारवादी ज्ञान को प्रश्नित करने का काम आज सचमुच कठिन हो गया है. षड्यंत्रकारी, राष्ट्रविरोधी आदि कहलाने से उपजे भय के दायरे ने हमें प्रायः पंगु बना दिया है.

एक शिक्षक के रूप में हम जैसे बहुतों को साफ तौर पर सजग कर दिया गया है कि हमारे द्वारा कक्षा में बोला गया एक-एक शब्द तकनीकी तौर पर नपा तुला हो, विशुद्ध कानूनी नज़रिए से अनापत्ति योग्य हो और वर्तमान समय की वर्चस्वशाली राष्ट्रवादी विचारधारा के अनुकूल हो. सूरते हाल यह है कि एक पर्यावरण कार्यकर्ता के छोटे-से ट्वीट से बजरंगी सरकार हिलने लगती है. सीसीटीवी की विस्तृत किन्तु बारीक  तकनीकियों की आँखों के दायरे में शिक्षण संस्थाएं हैं. ऐसे में वहां किसी जीवंत एवं संवेदनशील शिक्षण कर्म – क्लासरूम टीचिंग, कुछ सीखने का जज़्बा, सृजनशीलता अथवा आलोचनात्मक शिक्षा-शास्त्र दूर की कौड़ी प्रतीत होती है. निश्चय ही राज्यसत्ता की प्रत्यक्ष-परोक्ष दमनात्मक कार्रवाई और उसके विचारधारात्मक साधनों के खुले उपयोग का सन्देश बहुत साफ़ है : सुरक्षित रहें. उग्र राष्ट्रवाद की खुराक पीते रहें. यह न भूलें कि सत्ता समर्थक होना पुण्य कर्म है. प्रश्न करने वाला दिमाग खतरनाक होता है. 

एक शिक्षक के रूप में मुझे बताना चाहिए कि ‘सुरक्षित’ रहने के मायने-मतलब क्या हैं. संभवतः इसके तीन निहितार्थ हैं. एक, अपने लिए किसी श्रेष्ठ अथवा उच्चतर आदर्श या मान-मूल्यों की मांग मत कीजिये, अपने को सिर्फ वेतनभोगी धंधेबाजी तक सीमित रखें, ठीक उसी तरह जैसे किसी बैंक का खजांची या कारखाने का मजदूर होता है, कार्यालयी कामों को पूरा करते रहें और उच्चाधिकारियों को उनके प्रति अपनी निष्ठा और समर्पण को बताते रहें. दूसरा, विद्यार्थियों में उनके भीतरी संवेदनात्मक आवेग की आग, उनकी सोच और व्यवहार में लचीलापन पैदा न करें बल्कि शिक्षा को महज किताबी ज्ञान की सीमा में बांधकर रखें और उसे अदद नौकरी पाने की एक कला मानना सिखाएं. बेहतर होगा कि आप विद्यार्थी की प्रतिभा को अलगाव में रखकर शिक्षा को मात्र एक बौद्धिक व्यायाम मानना सिखाएं. तीसरा, शिक्षा का गैरराजनीतिकरण करें जहाँ क्लास रूम में बाहर की दुनिया का प्रवेश निषेध हो. हाँ, आप मार्क्स, गांधी, आंबेडकर को पाठ्यसामग्री के अनुसार उद्धृत कर सकते हैं लेकिन किसान आन्दोलन के प्रतिरोध-प्रदर्शन, बढ़ती हुई सर्वसत्तावादी प्रवृत्ति, सैन्यवाद, समाज में फैलती साम्प्रदायिकता, राजनीतिक महत्त्वाकांक्षी आत्ममोह जैसी चीज़ों के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलेंगे. दूसरे शब्दों में, एक अच्छा धन्धेबाज़ बने रहें. बल्कि आप विद्यार्थियों को बताइये कि आपके चारों तरफ जो हो रहा है वह सब आमफहम है, सामान्य बातें हैं और इसलिए दिशा रवि, सर्फूरा जरगर जैसों से दूरी बनाए रखकर ऐसों को सबक सिखाने के लिए पुलिस से सहयोग करें और उन्हें जेल भिजवाने में मदद करें. 

इस अधंकार युग में हमारी चेतना को रोशनी देने वाली ज्योति को जलाना बहुत जरूरी है. प्रेरणा के एक ख़ूबसूरत लम्हे में एक शिक्षक, और मैं ये मानकर चलता हूँ कि उसकी अंतरात्मा अब भी जीवित है, हमेशा ये विश्वास करेगा कि शिक्षा सद्विवेक के ( न कि कुतर्कों के साधन ) जागरण के लिए जरूरी है. उसकी जरूरत जीवन और दुनिया के साथ साथ हमारी सोच की बंदिशों को तोड़ने के लिए भी है. यह संभव है जब हमारे भीतर दूसरों के विरोधी विचारों को सुनने-सहने का साहस हो, प्रश्न करने-पूछने की भीतरी छटपटाहट हो, सिद्धांत और कर्म की एकता के साथ दूसरों की फ़िक्र करने की नैतिकता हो. 

इसी सन्दर्भ में हमें विद्यार्थियों को पढ़ते-पढ़ाते समय ‘नाफ़रमानी’, ‘राष्ट्रवाद’ और ‘विद्यार्थी’ होने का अर्थ समझाना होगा. गांधी जी ने अपने व्यवहारसिद्ध अनुभवों के आधार पर बताया था कि अंधी आज्ञाकारिता हुक्मबरदारी कोई सद्गुण नहीं है. सत्याग्रह प्रतिरोध की कला है. वह हमारा वास्तविक साहस है. इसलिए युवा छात्र-छात्राएं विश्वविद्यालय परिसर एवं शिक्षण-कक्ष क्लास रूम में लगे सीसीटीवी कैमरा पर सवाल उठाते हैं तो वे नैतिक रूप से कोई  गलत काम नहीं कर रहे हैं. इसके विपरीत, वे हर गतिविधियों को पढने वाली उस तीसरी आँख की संस्कृति का विरोध कर रहे होते हैं. साथ ही वे परस्पर विश्वास, स्वतंत्रता और आत्मानुशासन के नए सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश को गढ़ने-रचने , विकसित करने पर भी जोर दे रहे होते हैं. एक निरंकुश कुलपति या महाविद्यालय के प्राचार्य की दृष्टि में वे अवज्ञाकारी हैं, इसलिए दंड के हक़दार भी हैं. लेकिन एक संवेदनशील शिक्षक की दृष्टि में वे स्वप्नदर्शी संभावनाएं हैं. आज उन्हीं का समय है. 

उस छात्र के विषय में भी सोचें जो षड्यंत्रकारी सिद्धांतों बदहवास मदहोश संस्कृति के बीच से उठने वाले धमकीपूर्ण राष्ट्रवाद की वैधता से इस बिना पर असहमत है कि वह बहुसंख्यकों का राष्ट्रवाद है और उसकी जगह पर वह विश्वास, प्रेम पर आधारित उन श्रेष्ठ मूल्यों और आदर्शों को प्रतिष्ठित देखना चाहता है जो हर घृणा के दायरे से ऊपर या बाहर हो. क्या वह ‘ट्रेटर’ है यानी देशद्रोही ? एक शिक्षक का कर्तव्य है कि वह बताये ( ऐसी मांग करने वाले ) विद्यार्थी ‘अपराधी’ नहीं हैं. उनका मजाक यह कहकर नहीं उड़ाया जा सकता कि वे ‘आन्दोलनजीवी’, ‘परजीवी’ हैं, जैसा कि प्रधानमंत्री जी ने कहा. बल्कि उन लोगों के विपरीत जिन्होंने राष्ट्रवाद को नागरिक समाज के एक तबके के लोगों के विरुद्ध युद्ध में बदल दिया है, वे हमारे खोये हुए सद्विवेक के प्रतीक हैं. संभवतः टैगोर के राष्ट्रवाद के अर्थ को उन्होंने ही सही और गंभीर तरीके से आत्मसात किया है. 

एक अच्छा छात्र वह नहीं है जो अपने उत्तर में तकनीकी रूप से सही होने के कारण अच्छे अंक पाता है, अपने व्यावसायिक मालिकों को भी खुश रखता है. क्या एक शिक्षक को बार बार बताना पड़ेगा कि एक उम्दा छात्र वही है जो साम्प्रदायिक घृणा, पूंजीपतियों की लूट, पर्यावरण को नष्ट करने वाले ‘विकास-मन्त्र’ के बुरे और हिंसक इरादों को बिना अपनी रचनात्मक ऊर्जा की चिंता किये ‘न’ कहने– अस्वीकार करने का साहस रखता है. यही तो विडम्बना है. कोचिंग संस्थाएं तत्काल सफलता– इंस्टेंट सक्सेस दिलाने और फैंसी विद्यालय सर्वोत्तम की सेना तैयार करने का दावा कर रहे हैं. इन सबके बीच शिक्षा एक उपभोक्ता माल है. विद्यार्थी उपभोक्ता है और शिक्षक पगारजीवी मात्र. 

सरकारी विश्वविद्यालयों को तो सुनियोजित तरीके से मारा जा रहा है. अब शान्तिनिकेतन में टैगोर के काव्यात्मक सार्वभौम मुक्ति के विश्वास की छाया भी देखने को नहीं मिलेगी. जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय को क्षत विक्षत कर दिया गया है. आदर्शों का विघटन, सपनों का भाप बनकर उड़ जाना, रीढ़ विहीन तथाकथित महामानवों का हमारा रोल मॉडल– आदर्श बनना और हल्ला गुल्ला मचाने वाले ‘राष्ट्रवादी’ टीवी एंकर्स का हमारा एकमात्र शिक्षक बन जाना – यह सब सचमुच बहुत दुखद है. इसे बदलना होगा. 

इस गुणात्मक परिवर्तन के लिए हमें शिक्षा का पुनर्नवीकरण करना होगा जो सही मायने में सर्वोत्तम और मुक्तिकामी हो. निर्जीव शिक्षण संस्थाएं पतित समाज का लक्षण हैं. अगर हमारे विश्वविद्यालय बलशालियों के शिक्षाशास्त्र को प्रश्नों के कठघरे में खड़ा करने वाले संवेदनशील युवा मस्तिष्क को दिशा देने और परिष्कृत करने में असमर्थ होंगे तो लोकतंत्र तानाशाही के लिए रास्ता छोड़ेगा. अगर भयाक्रांत मस्तिष्क या भय का मनोविज्ञान हमारी सबसे बेशकीमती चीज़ – सद्विवेक ही उड़ा ले जाये तो फिर जीवन जीने का अर्थ ही क्या बचेगा ?

 

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