खाद्य तेल के बढ़ते दाम: सुनहरी धार की हार!

जानकार इसे साजिश मानते हैं। उनका मानना है कि लोगों के दिलों से देशी तेलों का भाव खत्म करने के लिए यह काम किया गया था। जानकार बताते हैं कि सरसो के तेल में आर्गेमोन या भटकटैया या सत्यानाशी के बीज पिसे होने का अंदेशा अमूमन एक फीसद ही होता है। वह पौधा सरसो के खेतों में पैदा होता है इसलिए यह स्वाभाविक भी लगता है। लेकिन जिस लॉट से यह बीमारी फैली उसमें तीस फीसद तक की मिलावट आर्गेमोन और डीजल तथा अन्य जीवननाशी तत्वों का था। कहने का अर्थ कि सत्तर ग्राम सरसो और तीस ग्राम आर्गेमोन के बीज थे!

आप कितने भी खाते पीते घर के हों लेकिन तेल की कीमत आपकी जेब और आपके कानों तक पहुँच गई होगी।

इन दिनों खाद्य तेलों पर लिखना चाहता हूँ लेकिन इस ‘तेल’ शब्द के लिखने मात्र से मामला ऐसा रपटीला बन जाता है कि वह नहीं लिख पाता जो ‘इन दिनों खाद्य तेलों पर लिखना चाहता हूँ।’

कश्मीर में सरसो का उत्पादन कम ही होता होगा लेकिन फिर से सरकारी सरगर्मी वहाँ बढ़ रही है। कुछ सूचनाओं की माने तो वहाँ सेना बढ़ाई जा रही है।

सरसो तथा अन्य खाद्य तेल महंगे क्यों हो रहे हैं, यह मैं आखिर में बताने की कोशिश करूंगा।

बहुत कुछ आपको पता भी होगा कि भारत सरकार ने इस वर्ष के बजट में खाद्य तेलों के मामले में ‘आत्मनिर्भर’ की योजना बनाई है। अगले पाँच वर्षों का लक्ष्य है। उन्नीस हजार करोड़ का संभावित बजट है।

लेकिन फिर तेल इतना महंगा क्यों होता जा रहा है? साल भर या डेढ़ साल पहले जो रिफाईंड 80 से 85 रुपये लीटर मिलता था अब उसका दाम किसी अदृश्य लग्गी ने आसमान पर टांग दिया है।

वह अदृश्य लग्गी क्या है?

मुद्दे पर आते हैं।

आप सब्जी छौंकने के लिए कौन सा तेल इस्तेमाल करते हैं? पच्चीस वर्ष पहले कौन सा करते थे?

आजादी के पहले का भारत खाद्य तेलों के लिए आयात पर निर्भर था। आजादी के बाद वाले शुरुआती दशकों में तिलहन के अच्छे उत्पादन ने आत्मनिर्भर कर दिया था। सत्तर के दशक और फिर अगले दशक में वह आत्मनिर्भरता खत्म हुई, नब्बे का दशक भारत में खाद्य तेलों के उत्पादन के लिहाज से सर्वोत्कृष्ट था, हम पुनः आत्मनिर्भर थे और फिर आया वर्ष 1998… अब स्थिति यह है कि भारत में खाद्य तेलों की कुल जरूरत का सत्तर प्रतिशत हिस्सा आयातित है। यानी तेईस लाख टन की कुल खपत में पंद्रह लाख टन बाहर देश से आता है। आत्मनिर्भरता रीढ़ के बल कराह रही है।

इस सारे आयातित व्यापार का स्वाभाविक प्रभाव सदियों पुरानी उस व्यवस्था पर पड़ा जिसमें हम भारतीय देशी तिलहन का इस्तेमाल करने लगे क्योंकि जो आयात से आया तेल था वह खजूर ( चालू भाषा में पाम ऑइल ) तेल कहते हैं। आंकड़े उदास होकर बताते हैं कि भारत में आयातित समूचे तेल में सत्तर फीसद उस पाम ऑइल का है।

यह खजूर का तेल हमारी आदतों का हिस्सा कभी रहा ही नहीं। हमारी आंतों को कितनी मुश्किल आई होगी उस अपरिचित पाम ऑइल को स्वीकारने में।

अपनी देशी व्यवस्था में दक्षिण भारतीय जहां नारियल तेल, पूर्वी भारत सरसों का तेल, पश्चिमी और मध्य भारत मूँगफली और कपास के बीजों का तेल तथा राजस्थान के आस पास के इलाके वाले तिल का तेल खाया करते थे। अब सब किसी राष्ट्रीय सूत्र की तरह पाम ऑइल यानी खजूर पर अटके हुये हैं। त्रिशंकु का शाप हो जैसे।

ऐसा कैसे हुये होगा?

सत्तर के दशक तक हम अपनी जरूरतों का 95% तिलहन अपनी जमीन पर उगाया करते थे। कोल्हू चलते थे। राग दरबारी का शुरुआती दृश्य है जिसमें कोल्हू या चक्की के चलने की आवाज से एक शिक्षक संचालित होता है।

यहाँ कथा का एक सूत्र उस ओर भी निकलता है जिसमें 1971 आता है, पाकिस्तान से युद्ध होता है, तेल के साथ दूध और घी की भी किल्लत होती है, यहाँ तक कि तेल की खपत प्रति व्यक्ति 5 लीटर से घटकर 3.9 लीटर हो जाती है, खुदा जाने क्या हो जाता है कि ‘वनस्पति’ का आविर्भाव होता है। वही वनस्पति। ड से डालडा आगे चलकर जिसका लीडर हुआ।

‘वनस्पति’ घी का प्रसार कुछ इस तरह था कि सत्तर से अस्सी के दशक में आबादी चाहें जितनी बढ़ी हो लेकिन तिलहन महज दस मिलियन टन ही उपजाया जाता रहा।

क्या यह बताने की जरूरत है कि किसानों को लागत से भी कम पैसे मिल रहे थे।

लेकिन यह बताने की जरूरत जरूर है कि जिस जनता पार्टी की सरकार ने कोकाकोला को बाहर का रास्ता दिखाकर खूब नाम कमाया उसी सरकार ने तिलहन के किसानों के दुर्भाग्य का दरवाजा भी खोल दिया था, यानी तेल के आयात का रास्ता साफ किया था।

भारतीय खाद्य तेलों के बीच वनस्पति के उत्पात और किसानों के मुनाफे को ध्यान में रखते हुये एक नायक आजादी के चालीस सालों बाद जन्मा और पचासवें या इक्यावनवें वर्ष में काल-कलवित कर दिया गया।

1977 में वित्त मंत्री ने ‘ओपेरेशन फ़्लड’ से चर्चित वर्गीज़ कूरियन से भेंट कर अपनी इच्छा जताई कि वह दूध वाला, अमूल वाला, इतिहास दुहराया जा सकता है? क्या यह संभव है कि तिलहनों के किसान भी बचत कर पाएँ, उत्पादन बढ़ पाये और तेल का दाम भी कम हो?

जवाब में ‘ओपेरेशन गोल्डेन फ़्लो’ आया। यानी सुनहरी धार। 1977 के आस पास। जिसकी रचना ‘धारा’ के इर्द गिर्द हुई थी। धारा 1988 में, आजादी के चालीस वर्षों बाद बाजार में आया था।

जिन्हें निजीकरण के सुर्रे पर ही भरोसा होता है उनके लिए यह सूचना कि नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड और गुजरात को-ओपेराटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन ने मिलकर वह कमाल किया कि महज चार वर्षों में धारा एक महत्वपूर्ण ब्रांड बन चुका था और उसके पास नियमित ( ओर्गेनाइज्ड ) बाजार का पचास प्रतिशत हिस्सा ले लिया।

ओपेरेशन धारा और टेक्नोलोजी मिशन ऑन ऑइलसीड के सम्मिलित प्रयासों का नतीजा था कि महज पाँच वर्षों में भारत अपनी जरूरत का 98% तिलहन खुद उगा रहा था।

‘धारा’ का जलवा आपको याद होगा।

1990 से 1994 का दौर भारत के तिलहन खेती और खाद्य तेलों के लिए प्रचलित भाषा में ‘स्वर्णिम दौर’ कहा जाता है। क्योंकि उसके बाद भारत में तेल का खेल किसी ‘मर्डर मिस्ट्री’ वाले उपन्यास की तरह घटा, जिस उपन्यास के रहस्य वाले पन्ने हमेशा के लिए गायब फाड़ दिये गए थे।
उस रहस्य कथा के कुछ चरण यों हैं:

वर्ष 1994: नरसिंहा राव, जो अनिर्णय के लिए जाने जाते हैं, की सरकार ने विश्व व्यापार नीति के तहत खाद्य तेलों पर आयात शुल्क घटाकर पैंसठ प्रतिशत कर दिया था।

वर्ष 1998: अटल बिहारी बाजपेयी सरकार ने वह आयात शुल्क घटाकर महज पंद्रह प्रतिशत कर दिया था।

यह दोनों तथ्य उस रहस्य कथा के आवरण सरीखे थे।

संयोग की शक्ल में वर्ष 1998 में वह कुख्यात ड्रॉप्सी रोग फैला था जिसमें तीन हजार से अधिक लोग केवल दिल्ली में ही बीमार पड़ गए थे और तीस से अधिक लोग मौत की नींद सो गए थे। उस समय व्हाट्स ऐप आदि नहीं था इसलिए माहौल खराब करने और तथ्यों तक न पहुँचने की सारी ज़िम्मेदारी बेचारी प्रिंट मीडिया ने अपने कंधों पर ही ले रखी थी। रातों रात लोगों ने सरसो के तेल से किनारा कर लिया। एनडीडीबी ने, जिसका कि अपना ब्रांड था धारा, उसने धारा के खिलाफ विज्ञापन बनवाए, लोगों से अपील किया कि अपना प्रिय ब्रांड धारा न खरीदें।

जानकार इसे साजिश मानते हैं। उनका मानना है कि लोगों के दिलों से देशी तेलों का भाव खत्म करने के लिए यह काम किया गया था। जानकार बताते हैं कि सरसो के तेल में आर्गेमोन या भटकटैया या सत्यानाशी के बीज पिसे होने का अंदेशा अमूमन एक फीसद ही होता है। वह पौधा सरसो के खेतों में पैदा होता है इसलिए यह स्वाभाविक भी लगता है। लेकिन जिस लॉट से यह बीमारी फैली उसमें तीस फीसद तक की मिलावट आर्गेमोन और डीजल तथा अन्य जीवननाशी तत्वों का था। कहने का अर्थ कि सत्तर ग्राम सरसो और तीस ग्राम आर्गेमोन के बीज थे!

यह कहानी का इकलौता हिस्सा होता तब शायद आप यकीन नहीं करते लेकिन एनडीडीबी और उसका ऑपरेशन गोल्डेन फ़्लो अपनी शुरुआत से ही तेलिया राजा और उनके आतंक का शिकार हुये थे। भावनगर स्थित उनके प्लांट पर 1977 से 1982 के बीच आठ बार आग लगी थी लेकिन उस आग के कारण रहस्य ही रह गए। सके दो वरिष्ठ अधिकारी गंभीर और लगभग जानलेवा दुर्घटना के शिकार हुए जब वे यात्राओं पर थे।

‘धारा’ धराशायी हो चुका था। एक निर्णय और एक निकृष्ट धोखे ने खाद्य तेलों की दुनिया में पनपी सहकारिता, जो बीस वर्षों के लगन और परिश्रम से पनपी थी, को नष्ट कर दिया था।

जब अचानक ही सरसो के तेल के खिलाफ वाले प्रचार ने ज़ोर पकड़ा तब फिर वही बेचारी अटल सरकार ने तकरीबन एक मिलियन टन सोयाबीन बीज अमेरिका से खरीदा जिसे गुणवत्ता की शर्तों पर यूरोपीयन यूनियन ने खरीदने से इंकार कर दिया था।

फिर कहानी में धीरे धीरे तेल के दाम बढ़ते गए। किसानों की आमदनी कम होती गई। जो सरसो 1997 में सात मिलियन हेक्टेयर में उगाया जा रहा था, वर्ष 2004 तक वह महज साढ़े चार मिलियन हेक्टयेअर रह गया था। दूसरी तरह खाद्य तेलों का आयात एक मिलियन टन से बढ़ कर 2004 में पाँच मिलियन टन हुआ और अब आलम यह है कि सत्तर प्रतिशत यानी पंद्रह मिलियन टन का आयात होता है।

धारा की बोतलें अब भी बाजार में दिख जाती हैं। वापसी के लिए प्रयासरत वे बोतलें किसी जिद्दी पहलवान की तरह दिखती हैं।

आपको अगर ए बी सी डी के चौखुंटे में दिलचस्पी न हो, आर्चर डेनियल मिद्लेंड्स का नाम पसंद न आता हो, बंज, कारगिल ( कश्मीर वाला नहीं ), लूई ड्रेफस के नाम में दिलचस्पी न हो तब इतना जानिए कि आज के कुल खाद्य तेलों की खपत का एक तिहाई आयात अडानी विलमर करता है और तरह तरह के नाम वाले पन्नियों में आप तक पहुंचाता है।

इतनी सारी सूचनाओं के बीच आपको यह बताना न मालूम कैसा होगा कि आयातित खजूर तेल के एक अतिरिक्त लीटर की खपत से हृदय रोग का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। जबकि भारत में औसतन सात दशमलव दो लीटर खजूर तेल की खपत प्रति व्यक्ति है।

आपने इतनी देर में एक बार भी अगर खली या खरी के बारे में सोचा हो तो दाद देनी होगी क्योंकि अगर तिलहन भारत में उपजता है तभी खली का उत्पादन होगा जो आपने बचपन में मवेशियों के चारे में खिलाया होगा, नाद में मिलाया होगा। अगर आप आयातित तेल खा रहे हैं तब अपने पशुओं को भी प्रोटीन से वंचित कर रहे हैं।

इस तरह सरकार को अपनी इस घोषणा, जो खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता की बात करती है, पर अमल करना चाहिए। आज खाद्य तेलों की कमी है इसलिए सोयाबीन के अच्छे दाम किसानों को मिला है। सरसो जिसका न्यूनतम समर्थन मूल्य 4650 रुपए प्रति क्विंटल घोषित था और उत्पादन जबकि पिछले वर्ष से सात प्रतिशत अधिक रहा ( इस वर्ष 10 मिलियन टन था, पिछले वर्ष 9.3 मिलियन टन ), किसानों को एम एस पी के बराबर दाम मिला है।

लेकिन सवाल यह था कि खाद्य तेल जब 70% तक आयातित थे तब कमी आई क्यों?

कश्मीर!

भारत में आयातित खजूर तेल का चालीस प्रतिशत हिस्सा मलेशिया से आता है।

8 जनवरी 2020 को विदेश व्यापार निदेशालय ने खजूर तेल को ‘फ्री’ से ‘रिस्ट्रीक्टेड’ की सूची में डाल दिया था, आयात कम होने लगा।
यह सूची बदलना, जानकार बताते हैं कि, एक आलोचना की देन थी। मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने अक्टूबर 2019 में जम्मू कश्मीर पर भारत सरकार के फैसले की आलोचना की थी। उन्होने यहाँ तक कह दिया था कि भारत ने कश्मीर पर ‘हमला किया है और कब्जा कर लिया है।’ दिसंबर 2019 में उन्होने उस महान नागरिकता कानून की भी आलोचना यह कहते हुये कर दी थी कि नया नागरिकता कानून दरअसल देश के धर्मनिरपेक्ष आधार की अनदेखी करता है।

इधर के कानून और उधर की आलोचना ने ऐसा माहौल तैयार किया कि अब तेल रोज-ब-रोज महंगा होता जा रहा है।

इस वर्ष खरीफ में सोयाबीन और मूंगफली की बुआई अत्याधिक होने की उम्मीद है। जाड़ों में सारसो छींटा जाएगा। उन सब का उत्पादन जब तक कोल्हू के घाट लगे, तेल पेराये, पैक हो, बाजार में आए, आप खरीदें, तब तक के लिए शायद तेल का भाव चढ़ते ही जाना है। शायद। वैसे, सरकार ने नया क्या रखा है अपने खजाने में, यह तो सैनिकों की बढ़ती वहाँ संख्या भी नहीं बता सकती, फिर हम आप क्या हैं?

 

लेखक हिंदी के चर्चित युवा लेखक हैं।

First Published on:
Exit mobile version